इस्लाम में बाल अधिकार

इस्लाम ने बच्चों को जो प्रेम और अधिकार दिया है उसकी एक झलक

इस्लाम ने बच्चों को जो प्रेम और अधिकार दिया है उसकी एक झलक

बच्चे अल्लाह की बहुत बड़ी नेमत हैं, इनका महत्व उन से पूछिए जो इस नेमत से वंचित होने के कारण उनके प्रति अपने दिलों में कैसी भावनायें रखते हैं कि अब तक लाखों रुपये खर्च कर चुके हैं और अबी भी खर्च करने के लिए तैयार हैं।

जहाँ बच्चे बहुत बड़ी नेमत हैं वहीं बहुत बड़ी अमानत भी हैं। इस्लाम एक प्राकृतिक धर्म है जो हमें इस अमानत का महत्व समझने और उसके अधिकार अदा करने का आदेश देता है। निम्न में इस्लाम में बच्चों के अधिकार से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत की जा रही हैं।

बच्चों से प्रेमः

आज इनसान जब कुछ बड़ा हो जाता है तो बच्चों की परवाह भी नहीं करता जब कि मुहम्मद सल्ल. शासक होने के बावजूद बच्चों के पास से गुज़रते तो उनको सलाम करते थे। अपने नवासों को गर्दन पर बठाते। नमाज़ में बच्चों के रोने की आवाज़ आती तो नमाज़ हल्की कर देते। नमाज़ पढ़ते तो कभी अपनी नवासी उमामा को उठाए होते, जब सज्दा करते तो उसे ज़मीन पर रख देते, जब सज्दा से उठते तो उठा लेते।  एक बार मस्जिद में खुत्बा (भाषण) दे रहे थे उसी बीच आपके दोनों नवासे मस्जिद में आए, लाल कपड़े पहन रखे थे जिसमें उलझ रहे थे, आपने खुत्बा रोक दिया, उन्हें उठा कर अपने पास लाए और कहा कि मैंने इन दोनों को अपने कपड़े में उलझते हुए देखा तो स्वयं पर क़ाबू न पा सका…उसके बाद खुतबा पूरा किया।

मुहम्मद सल्ल. ने एक दिन अपने नवासे हसन को बोसा दिया तो वहां पर उपस्थित एक व्यक्ति अक़रा बिन हाबिस ने कहाः मेरे पास दस बच्चे हैं लेकिन मैंने उन में से किसी को अब तक बोसा नहीं दिया है। यह सुन कर अल्लाह के रसूल सल्ल. ने उसकी ओर देखा और कहाः जो दया नहीं करता उस पर दया नहीं की जाती। (सहीह बुख़ारी)

बच्चों के अधिकारः

इस्लाम ने बच्चे की पैदाईश से पहले उसे यह अधिकार दिया कि होने वाले माता पिता विवाह की बंधन में बंधने से पूर्व संस्कृति, अच्छे आचरण और नेकी को जीवन साथी के चयन का आधार बनाएं।

इस्लाम में बच्चे का यह अधिकार है कि एक व्यक्ति जब अपनी पत्नी से सम्भोग के लिए आय तो सम्भोग से पूर्व यह दुआ कर ले कि ऐ अल्लाह!  तू हमें शैतान से बचा और जो हमें संतान प्रदान कर उसे भी शैतान से बचा।

बच्चे का अधिकार है कि उसका अक़ीक़ा किया जाए, उसका अच्छा नाम रखा जाए और उसका ख़त्ना कर दिया जाएःबच्चे की पैदाईश की खूशी प्राकृतिक होती है इसी लिए इस्लाम ने आदेश दिया कि बच्चे की पैदाइश पर सातवें दिन दो बकरा और बच्ची की पैदाइश पर एक बकरा ज़बह कर के उसका गोश्त स्वयं खाए और मित्रों सम्बन्धियों और निर्धनों को खिलाय। उसी प्रकार बच्चे का अच्छा से अच्छा नाम रखा जाए कि कल क़्यामत के दिन लोगों को उनके नामों द्वारा पुकारा जाएगा और नाम का एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।

रहा ख़त्ना कराने का मामला तो यह प्राकृतिक सुन्नतों में से है जिसका समर्थन आज आधुनिक चिकित्सक करते हैं कि खत्ना न कराने के कारण लिंग के ऊपरी भाग के चमड़े में गंदगी और किटाणू एकत्र हो जाते हैं जिन से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

अपनी माँ का दूध पीना बच्चे का मूल अधिकार है और माँ के दूध का बच्चे के स्वास्थ्य और मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसी लिए पिता की तुलना में माता अच्छे व्यवहार का हक़ ज्यादा रखती है।

मर्द बच्चों और बच्चियों के बीच अंतर न किया जाएःअल्लाह के रसूल सल्ल. के पास एक व्यक्ति बैठा था उसका एक बेटा आया तो उसने उसे चूमा और अपनी गोद में बैठा लिया फिर उसके बाद उसकी बेटी आई तो उसने उसे चूमा और अपने बग़ल में बैठा लिया तो अल्लाह के रसूल सल्ल. ने कहाः तुम ने उन के बीच न्याय नहीं किया। (सिलसिलतुल अहादीस अस्सहीहा 7/263 )

इस्लाम में बच्चे का यह अधिकार भी है कि वह अपने सही वंश से आनंदित हो और मात्र शंका के आधार पर कोई किसी को उसके वंश से वंचित नहीं कर सकता।

आज बच्चों के अंतर्राष्ट्रीय अधिकार की समितियां बच्चों को जीवन प्रदान करने का दावा करती हैं जब कि इस्लाम ने बहुत पहले बच्चों को जीवन का अधिकार प्रदान किया। गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली महिलाओं को छूट दी कि यदि बच्चे को कष्ट पहुंचने का भय हो तो रोज़ा छोड़ दें और बाद में उनकी अदाइगी कर लें। और जब मुहम्मद सल्ल.से पूछा गया कि सब से महा-पाप क्या है? तो आप ने कहाः तू अल्लाह के साथ किसी को भागीदार ठहराओ जब कि उसी ने तुझे पैदा किया है। पूछा गया फिर कौन सा पाप सब से बड़ा है? तो आपने कहाः तू अपने बच्चे को इस लिए क़त्ल कर दे कि वह तुम्हारे साथ खाता है।

बल्कि व्यभीचार करने वाली महिला को उस समय तक सज़ा देने से रोक दिया गया जब तक कि बच्चे को जन्म दे कर उसे दूध पिलाने की अवधि पूर्ण न कर ले।   

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