इस्लाम में महिला का स्थान

पर्दा-

नारी पर प्रतिकाल में अत्याचार हुआ है। यूनानियों ने उसे शैतान की बेटी, सुक्रात ने उसे हर प्रकार के उपद्रव की मुख्य, अफ्लातून ने बुरे लोगों की प्राण, अरस्तू उसे अवनति का कारण कहा है। अरब वासी लज्जा के भय से उसे जीवित धर्ती में गाड़ देते थे। और हमारे अपने भारत में सै साल पहले औरत को उस के पति के मृत्यु के बाद पति के साथ जिन्दा जला देते थे। परन्तु इस्लाम ने चौदह सौ साल पहले उसे बहुत ही ऊंचा स्थान दिया, बहुत आदर-सम्मान दिया। मर्द और औरत को एक ही स्थान पर रखा, और लोगों को ज्ञान दिया कि औरत और पुरूष्य दोनों एक ही तत्व से पैदा किए गए हैं। दोनों के जीवन का कुच्छ लक्ष्य हैं। सब से पहला उद्देश्य यह कि मानव जाति के सिलसिले को क़ायम रखना। पवित्र क़ुरआन की इस आयत को ध्यानपुर्वक पढ़े।

يَا أَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ مِنْ نَفْسٍ وَاحِدَةٍ وَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَاءً ، وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي تَسَاءَلُونَ بِهِ وَالْأَرْحَامَ ، إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيبًا – (سورة النساء: 1)

 ” ऐ लोगों! अपने रब का डर रखों, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दी। अल्लाह का डर रखो, जिसका वास्ता दे कर तुम एक-दूसरे के सामने माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना हैं। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं “। (सूरः अन्निसाः 1)

क़ुरआन मजीद की इस आयत में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि मर्द तथा स्त्री दोनों एक ही तरह के दो जीव हैं और दोनों जीवों की रचना का उद्देश्य मानव-जाति को बढ़ाना और उसके सिलसिले को क़ायम रखना है।

इस रचना का दुसरा उद्देश्य भी बताया गया है। ध्यानपुर्वक से अल्लाह ताला के कथन को पढ़े।

وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُمْ مِنْ أَنْفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُمْ مَوَدَّةً وَرَحْمَةً ، إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ – (سورة الروم: 21)

““ ” और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उसके पास शान्ति प्राप्त करो। और उसने तुम्हारे बीच प्रेम और दयालुता पैदा की। और निश्चय ही इस में बहुत-सी निशानियाँ है, उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते है”। (सूरः रूमः 21)

इन दोनों आयतों पर विचार करें तो मालूम होगा कि मर्द और औरत को एक ही स्थान पर रखा गया है।

इसलाम ही एक मात्र धर्म है जिस ने हर मानव को उस का सही स्थान पर प्राजमान किया है जो उस के प्राकृतिक स्थिति से मेल खाता है। उसे वह अधिकार दिया जो उस के शारीरिक एंव मान्सिक शक्ती के अनुकूल है। महिला प्राकृतिक और शारीरिक शक्ति के अनुसार कमज़ोर है इसी लिए जीवन के हर पराव में एक रक्षक दिया। जब बालिका हो तो बाप और बड़ा भाई उसकी शिक्षा, खान-पान की व्यवस्था करे, उसकी हर तरह से रक्षा करे, उस से प्रेम करे, लड़का तथा लड़की में कोई अन्तर न रखे और जब बालिका बड़ी हो जाऐ तो उचित लड़के से विवाह कर दे। अब पति पर पूरी ज़िमेदारी होगी कि अपनी शक्ति के अनुसार उसे अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनाए, अच्छा खाना खिलाए और उसकी रक्षा करे, उसके साथ अच्छा व्यवहार करे और यह एहसान नहीं बल्कि पत्नी का पति पर अधिकार है। यदि कोई पति अपनी पत्नी की ज़िम्मेदारी को सही ढंग से अदा नहीं करता तो वह अल्लाह के पास पापी होगा। जब औरत माता श्री हो जाए तो बच्चे अपने माता-पिता की आज्ञा करे और माता को पिता पर तीन दरजा ऊंचा स्थान दिया। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कथन को पढ़ेः ” एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल! कौन मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है? तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप।  ” (सह़ी बुखारीः ह़दीस संख्यां- 113508)

जब माता बुढ़ापे को पहुंच जाए तो बेटा जीविका का व्यवस्था करे और उसे किसी बात पर बुरा-भला न कहे और नहीं डांटे-फटकारे बल्कि उनके किसी बात पर ” हूँ ” तक न कहे। अल्लाह तआला ने मुसलमानों को इसी का आज्ञा दिया है।

” अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों (माता-पिता) बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना ” – ( सूरः इस्राः23

एक औरत चाहे वह बेटी हो या बहन हो या मौसी हो, या पत्नी या माँ हर हाल में रानी है जिसकी सेवा करना मर्द संबंधी पर अनिवार्य है और इस्लाम के नियमों में कोई भी व्यक्ती संशोधन नहीं कर सकता है। जो इस्लाम के आज्ञानुसार जीवन गुज़ारेगा, उसे पुण्य प्राप्त होगा और जो इस्लाम के आज्ञा का उल्लंघन करेगा वह पापी होगा।

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