हदीस का परिचय (1)

हदीस का परिचयपवित्र क़ुरआन के बाद मुसलमानों के पास इस्लाम का दूसरा शास्त्र अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल. की कथनी और करनी है जिसे हम हदीस और सीरत के नाम से जानते हैं।

हदीस की परिभाषाः

हदीस का शाब्दिक अर्थ है: बात, वाणी  और  ख़बर।  इस्लामी परिभाषा में ‘हदीस’ मुहम्मद सल्ल॰ की कथनी, करनी तथा उस कार्य को कहते हैं जो आप से समक्ष किया गया परन्तु आपने उसका इनकार न किया। अर्थात् 40 वर्ष की उम्र में अल्लाह की ओर से सन्देष्टा नियुक्त किए जाने के समय से देहान्त तक आप (सल्ल॰) ने जितनी बातें कहीं, जितनी बातें दूसरों को बताईं, जो काम किए तथा जो काम आपके समक्ष किया गया और उससे अपनी सहमती जताई उन्हें हदीस कहा जाता है।

हदीस क़ुरआन की व्यख्या हैः

इस्लाम के मूल ग्रंथ क़ुरआन में जीवन में प्रकट होने वाली प्रत्येक प्रकार की समस्याओं का समाधान मौजूद है,जीवन में पेश आने वाले सारे आदेश को संक्षिप्त में बयान कर दिया गया है, क़ुरआन में स्वयं कहा गया हैः

 مَّا فَرَّطْنَا فِي الْكِتَابِ مِن شَيْءٍ  ﴿سورة الأنعام  38﴾ 

“हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है।” (सूरः अल-अनआम 38)

परन्तु क़ुरआन में अधिकतर विषयों पर जो रहनुमाई मिलती है वह संक्षेप में है। इन सब की विस्तृत व्याख्या का दायित्व अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम  पर रखा। अल्लाह ने फ़रमायाः

 وَأَنزَلْنَا إِلَيْكَ الذِّكْرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيْهِمْ    سورة النحل 44 

 “और अब यह अनुस्मृति तुम्हारी ओर हमने अवतरित की, ताकि तुम लोगों के समक्ष खोल-खोल कर बयान कर दो जो कुछ उनकी ओर उतारा गया है”। (सूरः अल-नहल 44)

फिर आपने लोगों के समक्ष क़ुरआन की जो व्याख्या की वह भी अल्लाह के मार्गदर्शन द्वारा ही थी, अपनी ओर से आपने उसमें कुछ नहीं मिलाया, इसी लिए अल्लाह ने फ़रमायाः

وَمَا يَنطِقُ عَنِ الْهَوَىٰ ، إِنْ هُوَ إِلَّا وَحْيٌ يُوحَىٰ   سورة النجم 3، 4

“और न वह अपनी इच्छा से बोलता है; वह तो बस एक प्रकाशना है, जो की जा रही है।” (सूरः अल-नज्म 3,4)

इसकी प्रमाणिकता सुनन अबूदाऊद की इस हदीस से भी सिद्ध होती है जिसे मिक़दाम बिन मअद रज़ि. ने वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः

ألا إني أوتيت الكتاب ومثله معه       سنن أبي داؤد بحاشيته عون المعبود 4/328-329

“मुझे किताब दी गई है और उसी के समान उसके साथ एक और चीज़ (दहीस) दी गई है।” (सुनन अबी दाऊद)

स्पष्ट यह हुआ कि सुन्नत अथवा हदीस भी क़ुरआन के समान है और क़ुरआन के जैसे यह भी वह्य है परन्तु क़ुरआन का शब्द और अर्थ दोनों अल्लाह की ओर से है जब कि हदीस का अर्थ अल्लाह की ओर से है और उसका शब्द मुहम्मद सल्ल. की ओर से, और दोनों को समान रूप में पहुंचाने का आपको आदेश दिया गया है।

इब्ने हज़्म रहि. ने फ़रमायाः “वह्य की दो क़िस्में हैं, एक वह वह्य है जिकसी तिलावत की जाती है जो चमत्कार के रूप में प्रकट हुई है और वह क़ुरआन है जबकि दूसरी वह्य जिसकी तिलावत नहीं की जाती और न ही वह चमत्कार के रूप में प्रकट हुई है वह हदीस है जिसकी प्रमाणिकता क़ुरआन के समान ही है।” ( अल-इह्काम फ़ी उसूलिल अहकामः इब्ने हज़्म 87)

पैग़म्बर (सल्ल॰) के सारे काम इन दोनों प्रकार की वह्यों के अनुसार होते थे। यही कारण है कि इस्लाम धर्म के मूल स्रोत क़ुरआन के बाद दूसरा स्रोत ‘हदीस’है। दोनों को मिलाकर इस्लाम धर्म की सम्पूर्ण व्याख्या और इस्लामी शरीअत की संरचना होती है।

हदीस के बिना क़ुरआन को नहीं समझा जा सकताः

क़ुरआन को समझने के लिए हदीस से सम्पर्क अति आवश्यक है, कि हदीस क़ुरआन की व्यख्या है, उदाहरणस्वरुप क़ुरआन में नमाज़ पढ़ने का आदेश है लेकिन उसका तरीक़ा नहीं बताया गया, क़ुरआन में ज़कात देने का आदेश है परन्तु उसका तरीक़ा नहीं बताया गया, क़ुरआन में रोज़ा रखने का आदेश है परन्तु उसकी व्याख्या नहीं की गई, हाँ जब हम हदीस से सम्पर्क करते हैं तो वहाँ हमें नमाज़ का तरीक़ा, उसकी शर्तें, उसकी संख्या सब की व्याख्या मिलती है, उसी प्रकार रोज़ें के मसाइल और ज़कात के नेसाब की तफ़सील हमें हदीस से ही मालूम होती है। आखिर “किस क़ुरआन में पाया जाता है कि ज़ुहर चार रकअत है,मग्रिब तीन रकअल है, रुकूअ यूं होगा और सज्दे यूं होंगे, क़िरत यूं होगी और सलाम यूं फेरना है, रोज़े की स्थिति में किन चीज़ों से बचना है, सोने चांदी की ज़काम की कैफ़ियक क्या है, बकरी, ऊंट, गाय की ज़कात का निसाब क्या है और ज़कात की मात्रा क्या है… “

हदीस पर अमल करना ज़रूरी हैः

हदीस के इसी महत्व के कारण विभिन्न आयतों और हदीसों में हदीस को अपनाने का आदेश दिया गया हैः अल्लाह ने फ़रमायाः

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ أَطِيعُواْ اللّهَ وَأَطِيعُواْ الرَّسُولَ وَأُوْلِي الأَمْرِ مِنكُمْ فَإِن تَنَازَعْتُمْ فِي شَيْءٍ فَرُدُّوهُ إِلَى اللّهِ وَالرَّسُولِ إِن كُنتُمْ تُؤْمِنُونَ بِاللّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ ذَلِكَ خَيْرٌ وَأَحْسَنُ تَأْوِيلا  النساء 59

ऐ ईमान लाने वालो! अल्लाह की आज्ञा का पालन करो और रसूल का कहना मानो और उनका भी कहना मानो जो तुम में अधिकारी लोग हैं। फिर यदि तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए, तो उसे तुम अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हो। यही उत्तम है और परिणाम के एतबार से भी अच्छा है (सरः अल-निसा  59 )

उपर्युक्त आयत में अल्लाह की ओर लौटाने से अभिप्राय उसकी किताब की ओर लौटाना है और उसके रसूल की ओर लौटाने से अभिप्राय उनके जीवन में उनकी ओर और उनके देहांत के पश्चात उनकी सुन्नत की ओर लौटाना है। एक दूसरे स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमायाः

قلْ إِن كُنتُمْ تُحِبُّونَ اللّهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللّهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ وَاللّهُ غَفُورٌ رَّحِيم( آل عمران {31

कह दो, “यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह भी तुम से प्रेम करेगा और तुम्हारे गुनाहों को क्षमा कर देगा। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।” (सूरः आले इमरान 31) 

इस आयत से स्पष्ट हुआ कि अल्लाह से प्रेम अल्लाह के रसूल के अनुसरण में नीहित है, और अल्लाह के रसूल सल्ल. का अनुसरण आपकी प्रत्येक कथनी करनी और आपकी सीरत के अनुपाल द्वारा ही सिद्ध हो सकता है। इस लिए जिसने सुन्नत का अनुसरण नहीं किया वह अल्लाह से अपने प्रेम के दावा में भी झूठा माना जायेगा।

एक स्थान पर अल्लाह ने अपने रसूल के आदेश का विरोध करने वलों को धमकी दीः

فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَن تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيم ) النور{63} .

अतः उनको, जो उसके आदेश की अवहेलना करते हैं, डरना चाहिए कि कहीं ऐसा न हो कि उन पर कोई आज़माइश आ पड़े या उन पर कोई दुखद यातना आ जाए (सूरः अल-नूर 63 )

इस से भी सख्त शैली में अल्लाह ने फ़रमायाः

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّى يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا فِي أَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا تَسْلِيمًا{ النساء، 65.

तो तुम्हें तुम्हारे रब की कसम! ये ईमान वाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के झगड़ो में ये तुम से फ़ैसला न कराएँ। फिर जो फ़ैसला तुम कर दो, उस पर ये अपने दिलों में कोई तंगी न पाएँ और पूरी तरह मान लें (सूरः अल- निसा 65)

क़ुरआन के अतिरिक्त विभिन्न हदीसों में भी आपके अनुसरण का आदेश दिया गया है जैसा कि सहीह बुख़ारी में हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः

كلُّ أمتي يدخلون الجنة إلا من أبى”. قالوا: يا رسول الله، ومن يأبى؟ قال: “من أطاعني دخل الجنة، ومن عصاني فقد أبى (رواه البخاري)

“मेरी सारी उम्मत जन्नत में प्रवेश करेगी अलावा उसके जिसने इनकार किया, लोगों ने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल इनकार करने वाला कौन है ? आपने फ़रमायाः जिसने मेरा अनुसरण किया वह जन्नत में प्रवेश करेगा और जिसने मेरी अवज्ञा की उसने इनकार किया।” (बुख़ारी)

और इमाम मालिक ने मुअत्ता में बयान किया है कि अल्लाह के रसूल सल्ल. ने फ़रमायाः

«تركت فيكم أمرين لن تضلوا ما تمسكتم بهما: كتاب الله وسنتي»أخرجه الإمام مالك (الموطأ 2/899).

” मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़ कर जा रहा हूं जब तक उन दोनों को थामे रहोगे पथ-भ्रष्ठ न होगे, अल्लाह की किताब और मेरी सुन्नत।”

मिक़दाम बिन मादीकरब रज़ि. से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः ” जान रखो, मुझे क़ुरआन दिया गया और उसके साथ ऐसी ही एक और चीज़ भी, ख़बरदार रहो, ऐसा न हो कि कोई पेट भरा व्यक्ति अपनी मस्नद पर बैठा हुआ कहने लगे कि तुम्हारे लिए इस क़ुरआन का पालन आवश्यक है, जो इस में हलाल पाओ उसे हलाल समझो और जो कुछ उस में हराम पाओ उसे हराम समझो, हालांकि जो कुछ अल्लाह का रसूल हराम निर्धारित करे वह वैसा ही हराम है जैसा अल्लाह का हराम किया हुआ है। ” ( अबू दीऊद, तिर्मिज़ी, इब्नेमाजा) 

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