“काश मैं नबी का ज़माना पाता” कहना कैसा है ?

क्या एक मुसलमान के लिए वैध है कि वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक समय में होने की तमन्ना करे?

ऐसा ही तमन्ना एक उर्दू कवि नबवी युग में होने की करता है और कविता में अपनी दिली भावनाओं को व्यक्त करता है जिसकी पहला दो पंक्तियाँ इस तरह हैं:

काश मैं दौरे पयम्बर में उठाया जाता

बा खुदा नक्शेकदम सरकार का पाया जाता

साथ सरकार के गज़वात में शामिल होता

उनकी नुसरत में लहू मेरा बहाया जाता

यह तमन्ना हर मोमिन की होगी कि काश उसे अल्लाह के नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सोहबत में जीवन बिताने का मौका मिलता, काश वह सहाबा की संगत में समय बिताया होता, उन्हें देखने का सौभाग्य प्राप्त कर पाता, यह तमन्ना ऐसी है जो हर मोमिन की हो सकती है, लेकिन इस तमन्ना में एक दूसरा अर्थ भी शामिल है, वह यह कि हम वास्तविकता से सपना की ओर जा रहे हैं, हम काल्पनिक दुनिया बसाने की कोशिश कर रहे हैं, इस लिए विषय को समझने के लिए निम्न में कुछ तथ्य पर ध्यान दिया जाए। शायद कि उतर जाए तेरे दिल में मेरी बात

पहली बात: क्या हमारा इस युग में पैदा होना अपने विकल्प से है ? बिल्कुल नहीं, अल्लाह की तकदीर से ऐसा हो सकता है, अल्लाह ने हमारे लिए इस ज़माने में पैदा होना लिखा था, और एक मोमिन को चाहिए कि अल्लाह के निर्णय से पूरे तौर पर सहमत रहे। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

لا يؤمن عبد حتى يؤمن بالقدر خيره وشره  – صحيح البخاري: 2652صحيح مسلم: 2533 

 एक बंदा मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि भाग्य की अच्छाई और बुराई पर ईमान न लाए। ( सही बुख़ारी: 2652,  सही मुस्लिम: 2533)

अगर हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में होने की तमन्ना करते हैं तो मानो हम अपने रब के निर्णय से सहमत नहीं।

दूसरी बात यह कि क्या आपको पता है कि आप जिस ज़माने में जी रहे हैं यह ज़माना आपके लिए बेहतर नहीं और जिस ज़माने की आप तमन्ना कर रहे हैं उसमें आपका नुकसान नहीं। अल्लाह ने फरमाया:

 وَعَسَى أَنْ تَكْرَهُوا شَيْئًا وَهُوَ خَيْرٌ لَكُمْ وَعَسَى أَنْ تُحِبُّوا شَيْئًا وَهُوَ شَرٌّ لَكُمْ وَاللَّهُ يَعْلَمُ وَأَنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ البقرة: 216

“और बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें अप्रिय हो और वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। और बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें प्रिय हो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। जानता अल्लाह है, तुम नहीं जानते।” ( सूरः अलबक़राः 216)

क्या आप को पता नहीं कि कितने लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में थे, अपनी मृत्यु तक जीवित रहे लेकिन उन्हें ईमान की तौफ़ीक़ न मिल सकी,  संभव है आप भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखते और आप पर ईमान नहीं लाते, संभव है आप उन लोगों में शामिल होते जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दुश्मन थे, आप का जीना दोभर कर दिया था, क्या ऐसा संभव नहीं था?

ऐसी ही तमन्ना की थी एक सहाबी के सामने एक व्यक्ति ने, अतः सहाबी-ए-रसूल ने उसे किस प्रकार समझाया था पढ़िए यह वाक़िआ:

अब्दुर्रहमान बिन जुबैर बिन नुफैर अपने पिता से रिवायत करते हुए कहते हैं कि जुबैर बिन नुफैर ने कहा: एक दिन हम मिक़दाद बिन अस्वद रज़ियल्लाहु अन्हु के पास बैठे थे, उनके पास से एक आदमी का गुज़र हुआ, उसने कहाः

طوبى لهاتين العينين اللَّتين رأَتا رسول الله- صلى الله عليه وسلم – والله لوَدِدْنا أنَّا رأينا ما رأيتَ، وشَهِدنا ما شَهِدتَ۔

“सुसमाचार है इन दो आंखों के लिए जिसने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का दीदार किया है, अल्लाह की क़सम! हमारी इच्छा थी कि काश हमने वह देखा होता जिसे आपने देखा और उस जगह शरीक रहे होते जहाँ आप शरीक रहे।”

यह सुनकर मिक़दाद बिन अस्वद रज़ियल्लाहु अन्हु गुस्सा हो गए,  जुबैर बिन नुफैर कहते हैं कि मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि इस में गुस्सा होने की क्या बात थी, उसने तो अच्छी ही बात कही है। फिर हज़रत मिक़दाद रज़ियल्लाहु अन्हु ने उसको सम्बोधित करते हुए कहा:

ما يَحمل الرجل على أن يتمنَّى محضرًا غيَّبه الله عنه، لا يدري لو شَهِده، كيف كان يكون فيه؟

 “इस आदमी को कौन सा मामला इस बात पर उभार रहा है कि वह ऐसे युग में जीने की तमन्ना रखता है जिसे अल्लाह ने उससे छिपा कर रखा है, पता नहीं अगर उसमें हाज़िर होता तो उसकी क्या हालत होती, अल्लाह की क़सम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक ज़माने में ऐसे लोग पाए गए जिन्हें अल्लाह तआला ने औंधे मुंह नरक में डाल दिया, उन्होंने आपकी दावत को स्वीकार नहीं किया और न उसकी पुष्टि की, क्या तुम इस बात पर अल्लाह की तारीफ नहीं करते कि तुम्हें ऐसे युग में बनाया कि तुम अपने रब को जान रहे हो, अपने नबी की शिक्षाओं की पुष्टि कर रहे हो, तुम्हारे लिए पर्याप्त है कि तुम्हारे अलावा अन्य परीक्षण का शिकार हुए। अल्लाह की क़सम! अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जिस समय भेजा उस समय दूसरे नबियों की अपेक्षा बहुत कठोर परिस्थितियाँ थीं, लोग अज्ञानता में जी रहे थे, वे समझते ही नहीं थे कि मूर्तिपूजा से बेहतर कोई धर्म हो सकता है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ऐसी ठोस शरीअत लेकर आए, जिसने सत्य और असत्य के बीच अंतर कर दिया, पिता और पुत्र के बीच जुदाई डाल दी, यहाँ तक कि एक आदमी अपने पिता, अपने बेटा, या अपने भाई को काफ़िर देखता, जबकि अल्लाह ने उसके दिल के ताला को ईमान से खोला दिया होता, वह जान रहा होता कि अगर यह मर गया तो सीधा नरक में जाएगा, संतान आँखों की ठंडक होती है लेकिन इसके बावजूद उनकी आंखें इस बात से ठंडी नहीं हो रही थीं, यह जानकर कि उनका प्यारा जहन्नम का ईंधन बनने वाला है।”

ज़रा इस घटना पर विचार करें और उसकी गहराई में जाने की कोशिश करें तब समझ में आएगा कि सहाबा की कैसी दूरदर्शिता और अंतर्दृष्टि थी, क्या आप नहीं देखते कि अबूतालिब आजीवन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की रक्षा करता रहा लेकिन ईमान की दौलत से महरूम रहा, कि हिदायत अल्लाह के हाथ में है नबी भी इच्छा रखने के बावजूद किसी को हिदायत नहीं दे सकते, अल्लाह तआला ने फरमाया:

إِنَّكَ لَا تَهْدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَكِنَّ اللَّهَ يَهْدِي مَنْ يَشَاءُ وَهُوَ أَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِينَ۔   القصص: 56

“ऐ नबी, आप जिसे चाहें उसे हिदायत नहीं दे सकते, लेकिन अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है और वह उन लोगों को जानता है जो मार्गदर्शन स्वीकार करने वाले हैं।”

अगर हम मान लेते हैं कि हम अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक ज़माने में होते और मुहम्मद सल्ल. पर ईमान लाये होते तो क्या संभव नहीं था कि सहाबी की बजाय अब्दुल्लाह बिन सबा की पार्टी में होते?  जी हाँ! कोई दूर नहीं कि हम मुनाफिक़ों में शामिल हो जाते, क्या उन लोगों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नहीं देखा था, क्या वे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ जीवन नहीं बिताए थे, क्या उन्होंने अपने माथे की आंखों से वह चमत्कार नहीं देखा था जिसे सहाबा ने देखा था, बल्कि उनमें कितनों ने सहाबा के साथ जिहाद में भी भाग लिया था, तो क्या ऐसा संभव नहीं था कि हम मुनाफिक़ीन की सूची में शामिल हो जाते ?

अगर हम मान लेते हैं कि हम मुहम्मद सल्ल. के मुबारक ज़माने में होने के बावजूद ईमान लाते और अपने ईमान में सच्चे होते तो क्या आप जानते हैं कैसे ईमान वालों से हमारा मुकाबला होता ? उन सहाबा से हमारा मकाबला होता जिन में से कुछ ने अपने घर का सारा धन लाकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में पेश कर दिया था और कहा था कि सिद्दीक के लिए है ख़ुदा का रसूल बस।

फिर सहाबा के पवित्र जीवन को देखो क्या हमारे जैसे आराम और ऐश में उनकी ज़ींदगी गज़री ? नहीं और बिल्कुल नहीं, उनकी पूरी ज़ींदगी जिहाद, बलिदान और अल्लाह के दीन की बुलंदी के लिए वक़्फ थी, उन्होंने अल्लाह के दीन के लिए खुद को समर्पित कर दिया था, इस महान दीन को अपनाने के रास्ते में क्या क्या कष्ट न झेलना पड़े, किन किन दुखद स्थितियों का सामना करना न पड़ा, मक्की जीवन में बिलाल, खब्बाब और ऑलि यासिर की जानलेवा तकलीफ़ों के उदाहरण हमारे सामने हैं, फिर मदनी जीवन और उसके बाद की अवधि में सहाबा ने इस दीन के लिए जो बलिदान दिया और जिन खतरों का सामना किया यह उन्हीं का हक़ था, मानो वह जिहाद के लिए ही पैदा हुए थे।

अब हम अपने ईमान की समीक्षा कर के देखें कि क्या हमारा ईमान उन्हीं के जैसा है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी दीन पर जमे रहते ? क्या हम उनके जैसे कुर्बानी दे सकते थे ? दिल को टटोलिए और मन से पूछिए।

इस लिए अल्लाह ने हमें जिस ज़माने में पैदा किया है उस पर राज़ी रहें और इसी में अपने रब को प्रसन्न करने में लगे रहें, फिर अल्लाह के इस उपकार पर विचार करें कि हमें बिना किसी परिश्रम और खोज के यह महान दीन मिल गया, जब कि आज भी कितने डाक्टर हैं, इंजिनियर हैं, चांद सितारों को अधीन करने का दावा करने वाले हैं, लेकिन वे दुनिया की सब से बड़ी सच्चाई अल्लाह के सम्बन्ध में जान नहीं रहे हैं। अल्लाह ने हमें मुस्लिम परिवार में पैदा कर के उन सारे लोगों प्रथानता प्रदान किया। फिर यह शुभसूचना भी सुनें: मुस्नद अहमद की रिवायत है, अबू उमामा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

طوبى لِمَن رآني وآمَن بي، وطوبى سبع مرات لِمَن لَم يَرَني وآمَن بي۔ مسند أحمد 22214، صحيح الجامع:3924

सुसमाचार है उनके लिए जिन्होंने मुझे देखा और मुझ पर ईमान लाए और सात बार सुसमाचार है उनके लिए जिन्होंने मुझे नहीं देखा और मुझ पर ईमान लाए। (मुस्नद अहमद 22214, सहीहुल जामिअ़: 3924)

अंतिम बात यह है कि अगर आप दुनिया में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सोहबत से वंचित हैं तो अल्लाह से सवाल करें कि आख़िरत में आपको उनकी सोहबत नसीब फरमाए। बुखारी औऱ मुस्लिम की रिवायत है, अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से क़्यामत के बारे में पूछा कि क़्यामत कब आएगी ? आपने फ़रमाया: तुमने उसके लिए क्या तैयारी कर रखी है ? उसने कहा: कुछ नहीं, हाँ इतना तो है कि मैं अल्लाह और उसके रसूल से प्रेम करता हूँ। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः

أنت مع مَن أحْبَبت

तुम (कल क़यामत के दिन) उनके साथ होगे जिन से तुम प्रेम करते हो।

अनस रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की इस बात से हम सहाबा को जितनी खुशी हुई किसी बात को लेकर नहीं हुई थी, अनस कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अबू बकर और उमर रज़ियल्लाहू अन्हुमा से हम प्रेम करते हैं, और मुझे आशा है कि उन से प्रेम करने के कारण मुझे उनकी संगत नसीब होगी, यधपि उनके अमलों जैसे अमल नहीं कर सका। (बुख़ारी: 3688, मुस्लिमः 2639)

हम भी अल्लाह के नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, अबू बकर, उमर और सभी सहाबा से प्रेम करते हैं, और उम्मीद करते हैं कि यधपि हम उनके अमलों के जैसे अमल न कर सके लेकिन हम भी उनकी संगत में रहने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे। इन शा अल्लाह

इसलिए हमें दुआ करनी चाहिए कि या अल्लाह! हम तेरे नबी की सोहबत से दुनिया में वंचित रहे लेकिन आख़िरत में हमें वंचित न रखना। मात्र दुआ नहीं बल्कि आपकी संगत पाने के लिए अमल की भी ज़रूरत है। एक सहाबी ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से यही इच्छा जताई थी, आपने उसे अमल करने पर उभारा थाः

राबिआ बिन काब अस्लमी रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि में अल्लाह के नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास रात बिताता और आपके वुज़ू का पानी लाता और जरूरत की चीजें प्रदान करता था, एक दिन आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : राबिया! कुछ मांगना हो तो माँगो, मैंने कहा: मेरी चाहत है कि जन्नच में मुझे आपकी संगत मिले, आपने फ़रमाया: और कुछ? मैंने कहा: बस यही। आपने फ़रमाया:

فأعنِّي على نفسك بكثرة السجود – سنن ابی داؤد: 1193 

अधिकतम नमाज़ें अदा करके मेरी मदद करो। (सुनन अबी दाऊद: 1193)

लेखः सफात आलम मुहम्मद ज़ुबैर तैमी

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