मात्र इस्लाम ही मुक्ति का साधन है
हिन्दु भाइयों की अपनी आस्था है जिसका हम सम्मान करते हैं, उसका विश्लेषण हमारा उद्देश्य नहीं परन्तु इस लेख में हम यह दर्शाना चाहते हैं कि कुछ लोग हैं जो स्वयं को आर्य समाजी कहते हैं और हिन्दु भाइयों से अलग आस्था रखते हैं, तथा प्रतिदिन इस्लाम पर विभिन्न प्रकार की आपत्तियाँ करते रहते हैं उन से निवेदन है किः
1- जब आप मानते हैं कि ईश्वर की कोई मु्र्ति नहीं है तो फिर मंदिरों में राम, कृष्ण और गणेश की मूर्तियाँ क्यों ? सारे मंदिरों से मूर्तियाँ निकाल दें, क्या ऐसा कर सकते हैं आप? हालांकि हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं कि यह उनकी आस्था है और वे अपने आस्थानुसार ऐसा कर रहे हैं।
2- आप ईश्वर और मानव को अलग अलग मानते हैं यह अच्छी बात है परन्तु कृपया हमें यह बताएं कि हर शक्ति में भगवान का अंश कैसे आ गया, यह कैसा एकेश्वरवाद है?
3- यदि आप मानते हैं कि ईश्वर कोई रूप नहीं लेता और न ही उसका कोई अंश है तो अब जरा बताएं कि ईश्वर ने मानव को क्यों बनाया, इसका उत्तर हमें कौन देगा ? कैसे हमें विश्वास होगा कि वास्तव में प्रस्तुत की जाने वाली वाणी ईश्वर की है, राक्षस भी तो बोल सकता है कि मैं ईश्वर हूं मेरा पालन यूं करो ? ईश्वरीय संदेश तथा राक्षस की पथभ्रष्टता से बचने का उचित उपाय क्या होगा ?
अब सुनें इस्लाम ने कैसा बुद्धिसंगत सिद्धांत दिया है कि ईश्वर मानव से बिल्कुल अगल है परन्तु ईश्वर मानव से क्या चाहता है इसे बताने के लिए अल्लाह ने हर देश और हर युग में अनुमानतः 1,24000 ज्ञानियों को भेजा। पुराने ज़माने में उन ज्ञानियों को श्रृषि कहा जाता था। क़ुरआन उन्हें धर्म प्रचारक, रसूल, नबी अथवा पैग़म्बर कहता है। उन सारे संदेष्टाओं का संदेश यही रहा कि एक ईश्वर की पूजा की जाए तथा किसी अन्य की पूजा से बचा जाए। वह सामान्य मनुष्य में से होते थे, पर उच्च वंश तथा ऊंचे आचरण के होते थे, उनकी जीवनी पवित्र तथा शुद्ध होती थी। उनके पास ईश्वर का संदेश आकाशीय दुतों (angels) द्वारा आता था। तथा उनको प्रमाण के रूप में चमत्कारियाँ भी दी जाती थीं ताकि लोगों को उनकी बात पर विश्वास हो।
लेकिन जब इनसानों ने उनमें असाधारण गुण देख कर उन पर श्रृद्धा भरी नज़र डाला तो किसी समूह नें उन्हें भगवान बना लिया, किसी ने अवतार का सिद्धांत गढ़ लिया, जब कि किसी ने समझ लिया कि वह ईश्वर के पुत्र हैं हालांकि उन्होंने उसी के खण्डन और विरोध में अपना पूरा जीवन बिताया था।
इस प्रकार हर युग में संदेष्टा आते रहे और लोग अपने सवार्थ के लिए इनकी शिक्षाओं में परिवर्तन करते रहे। यहाँ तक कि जब सातवीं शताब्दी ईसवी में सामाजिक, भौतिक और सांसकृतिक उन्नति ने सम्पूर्ण जगत को इकाई बना दिया तो ईश्वर ने हर हर देश में अलग अलग संदेष्टा भेजने का क्रम बन्द करते हुए संसार के मध्य अरब के शहर मक्का में महामान्य हज़रत मुहम्मद ( ईश्वर की उन पर शान्ति हो) को संदेष्टा बनाया और उन पर ईश्वरीय संविधान के रूप में क़ुरआन का अवतरण किया। वही नराशंस तथा कल्कि अवतार हैं जिनकी आज हिन्दू समाज में प्रतीक्षा हो रही है।
मुसलमान मुहम्मद सल्ल. को ईश्वर के साथ मिलाकर नहीं मानते, यदि कोई मुसलमान मान ले तो वह इस्लाम की सीमा से बिल्कुल निकल जाएगा, बल्कि मुसलमान मुहम्मद सल्ल. को मानव मात्र परन्तु संदेशवाहक मानते हैं, क्यों कि अल्लाह से जोड़ने वाला तो कोई होना चाहिए था ना, जो मानव मात्र हो, और लोगों के लिए आदर्श बन सके।
इस्लाम में प्रवेश करने वाले कल्मा में अल्लाह और मुहम्मद सल्ल. को मिलाया नहीं गया है, जैसा कि कुछ आर्य समाजी अज्ञानता के कारण जनता को दर्शाते हैं परन्तु इसमें दो प्रश्नों का उत्तर है कि पूजा किसकी ? तथा पूजा किस प्रकार ? अर्थात् एक व्यक्ति मुसलमान बनने से पूर्व यह स्वीकार करता है कि मैं आज से साक्षी हूं कि मात्र एक अल्लाह की पूजा करूगां और मेरे पूजा करने का नियम और तरीक़ा अन्तिम संदेष्टा ने जैसे बताया वैसा ही होगा। इसमें भागीदार बनाने की बात कहाँ से आ गई बल्कि इसमें शुद्ध एकेश्वरवाद है। मुहम्मद सल्ल. ने तो यहाँ तक कहा कि यह कहना “यदि अल्लाह चाहे और आप चाहें ” भागीदार ठहराना है, कि मानो आपने इनसान को अल्लाह के समान बना दिया। इस लिए हमें कहने दिया जाए कि यदि शु्द्ध एकेश्वरवाद की शिक्षा किसी धर्म ने दी है तो मात्र इस्लाम ने, जो सारी मानवता का धर्म है। लेकिन है कोई जो इस विषय पर विचार करे ?
उसी प्रकार इस्लाम हर प्रश्न का उत्तर देता है और उसकी शिक्षायें अपनी सत्यता को खोल खोल कर बयान करती हैं उदाहरण स्वरूप ईश्वर कौन है उसका पूरा परिचय, संसार तथा मानव को ईश्वर ने क्यों बनाया, हमें कहाँ जाना है, हमारा ईश्वर से क्या सम्बन्ध होना चाहिए? इन प्रश्नों का सटिक उत्तर देने के साथ साथ जो सिद्धांत उतारा गया वह कब उतरा, कैसे उतरा, किन पर उतरा, जिन पर उतरा उनकी जीवनी का एक एक छण कैसा था, सिद्धांत किस प्रकार सुरक्षित हुआ, इन सारे प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देता है। लेकिन वेद किस पर उतरा, कब उतरा, कैसे उतरा, सब से पहले किसने लिखा इन सारे प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकते।