इस्लाम आसान धर्म है

दीन आसान है (2)इस्लाम की विभिन्न सुन्दर्ताओं में से एक महान सुन्दर्ता यह है कि यह बिल्कुल आसान धर्म है, इसके आदेश आसानी पर आधारित हैं, इस पर चलना आसान है और इसके आदेशानुसार समाज को ढ़ालना आसान है। अल्लाह ने कहाः

(يريد الله بكم الْيُسْرَ وَلا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ (البقرة: من الآية185

अल्लाह तुम्हारे साथ आसानी चाहता है तंगी नहीं चाहता।

एक दूसरे स्थान पर अल्लाह ने कहाः

 (وَمَا جَعَلَ عَلَيْكُمْ فِي الدِّينِ مِنْ حَرَجٍ (الحج: من الآية78

अल्लाह ने दीन में तुम्हारे लिए कोई तंगी नहीं रखी।

अल्लाह ने ऐसे ही आदेश दिए हैं जिनकी इसनान शक्ति रखता है। अल्लाह ने कहाः

 (لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلَّا وُسْعَهَا) (البقرة: من الآية286  

अल्लाह किसी इनसान को उसकी शक्ति से अधिक मुकल्लफ नहीं करता।

 क़ुरआन में मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की यह विशेषता बयान की गई है कि

  لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مِنْ أَنْفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَرِيصٌ عَلَيْكُمْ بِالْمُؤْمِنِينَ رَؤُوفٌ رَحِيمٌ (التوبة:128

तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक रसूल आ गया है। तुम्हारा मुश्किल में पड़ना उसके लिए असह्य है। वह तुम्हारे लिए लालयित है। वह मोमिनों के प्रति अत्यन्त करुणामय, दयावान है

उसी प्रकार विभिन्न हदीसों में इस दीन की आसानी पर प्रकाश डाला गया है और कट्टरता से रोका गया है।

और जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हज़रत मुआज़ बिन जबल और हज़रत अबू मूसा अश्अरी रज़ियल्लाहु अन्हुमा को यमन भेजते हैं तो उनको विशेष उपदेश देते हुए कहते हैं

, يَسِّرا ولا تُعسِّرا وبَشِّرا ولا تُنَفِّرا –  أخرجه البخاري (5/108). ومسلم (3/1359) رقم (1733

और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस दीन की वास्तविकता बयान करते हुए कहा कि निःसंदेह यह दीन बहुत आसान है

उमर फारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु रास्ते से गुज़र रहे थे कि छत की नाली से उनके कपड़े पर कोई चीज़ गिरी, तो उमर फारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ जो व्यक्ति था उसने कहाः ऐ नाली वाले, तुम्हारा पानी पवित्र है अथवा अपवित्र ? उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहाः ऐ नाली वाले, हमें मत बताना, फिर वल निकल गए। ( इग़ासतुल्लह्फ़ान 1/154)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बुज़दिली के बारे में पूछा गया जिसे यहूदी खाते हैं? तो आपने फरमायाः जो चीज़ भी हम मुसलमानों के बाज़ार में पाते हैं उसे खरीद लेते हैं और उसके सम्बन्ध में पूछते नहीं। (जामिउल- उलूम वलहिकम 267)

इन आयतों से पता चला कि इस्लाम बिल्कुल आसान दीन है।  इसके शरई अहकाम मुकल्लफ़ से परिश्रम और कष्ट को दूर करते हैं।  दीन शरीयत के सारे आदेशों शामिल है।  मतलब यह हुआ कि धर्म की कोई ऐसी शिक्षा नहीं जिस पर अमल करने में दास को परेशानी होती हो। विशेष रूप में इबादत में मानव स्वभाव का पूरा ख्याल रखा गया है और जहां कठिनाई पैदा हो जाए वहां आसानियां रखी गई हैं। इस लिए इस्लामी इबादात पर एक नज़र डालकर देख लें तो इस्लाम का आसान पहलू सरलता से समझ में आ जाएगा।

तहारत अर्थात् पवित्रता में रियायत दी गई कि यदि कोई बीमार है या परेशानी में है तो वुज़ू करने की बजाय तयम्मुम कर ले।  अगर तयम्मुम करने की क्षमता नहीं है और कोई पास नहीं जो तयम्मुम करा सके और इधर नमाज़ का समय निकल जाने की आशंका है तो बिना तहारत अर्थात् पवित्रता प्राप्त किए नमाज़ पढ़ने की भी रियायत मिलती है।

यात्री चार रकअत की नमाज़ में क़स्र (चार रकअत की नमाज़ों को दो रकअत पढ़ना) और जमा (दो नमाज़ों को एकत्र करना) की रियायत दी गई है और जो खड़ा होकर नमाज़ अदा न कर सके उसके लिए बैठने या सो कर या आंख या सिर के इशारे से नमाज़ पढ़ने की अनुमति है।

महिलाओं की जो नमाज़ें विशेष दिनों में छूट जाती हैं इस्लाम ने उन की क़ज़ा उन से माफ कर दी है,  लेकिन रोज़े ज्यादा नहीं होते और उनकी अदाइगी आसान है इस लिए उन्हें क़ज़ा करने का आदेश दिया गया है। उसी तरह अगर बारिश आदि का मौसम हो तो यह रियायत दी गई कि दो नमाज़े इकट्ठा कर के एक साथ जमा कर के अदा कर लें। जैसे अस्र को ज़ुहर में और ईशा को मग़्रिब में।

उसी तरह इस बात की भी गुंजाइश रखी गई कि जिन लोगों को लगातार पेशाब के बूँदें आते रहते हैं,  या जिन पुरुषों को धात गिरने की बीमारी है वह ताजा वुज़ू करें और उसी हालत में नमाज़ अदा कर लें, नमाज़ अदा  करते समय यदि बूँद गिर भी जाए तो उस से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

रोज़ा में यात्री और रोगी को कठिनाई के आधार पर इफ्तार की रियायत दी गई और बाद में क़ज़ा का आदेश दिया गया। उसी तरह जिस रोगी को चंगा होजाने की उम्मीद न हो या बुढ़ापे के कारण  रोज़ा रखने की शक्ति न रखता हो, उसके लिए हर दिन के बदले किसी गरीब को एक समय का खाना खिला देना काफी है।

ज़कात धनवान मुसलमानों पर ही अनिवार्य होती है जब कि शर्तें पूरी हो जाएं, और यह आवश्यकता से अधिक माल में ही अनिवार्य होती है, साथ ही मिल्कियत की हर चीज़ में ज़कात नहीं आती,  जिस घर में आदमी रहता है, सवारी जिसे उपयोग करता है और भूमि जिसे व्यापार हेतु नहीं रखा उन चीज़ों पर ज़कात नहीं। चाहे उनकी कीमत कितनी भी हो।

हज जीवन में एक बार ही फर्ज़ होता है जबकि उसकी शर्त पाई जाए कि माली और बदनी शक्ति पाई जाए और इस में नियाबत की भी गुंजाइश रखी गई है कि किसी ने यदि अपनी ओर से हज कर लिया है तो वह दूसरे की ओर से कर सकता है जो मर चुका हो या सवारी पर बैठने के योग्य न हो।

सामान्य परिस्थितियों में ऐसी रियायत को अपनाना बेहतर है लेकिन अगर कठिनाई हो रही हो तो उस समय छूट को अपनाया आवश्यक हो जाता है। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का विजय के वर्ष रमज़ान में मक्का के लिए रवाना हुए। आप रोज़ा से थे और लोग भी रोज़ा से थे।  आपसे कहा गया कि लोगों पर रोज़ा रखना कठिन हो रहा है, तो आपने पानी मंगवाया और पी लिया, जिसे  लोग देख रहे थे। इस प्रकार लोगों ने भी रोज़ा तोड़ दिया, परन्तु कुछ लोग रोज़ा से ही रहे।  आपसे कहा गया कि कुछ लोग अभी तक रोज़ा से हैं, आपने यह सुन कर फरमाया:

 أولئك العصاة أولئك العصاة 

“वे लोग अवज्ञाकारी हैं। वे नाफरमान हैं” (सहीह मुस्लिम)

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम स्वयं दया के प्रतीक थे, आपने आसानी फ़रमाई,  लोगों को आसानी का आदेश दिया और अपने पूरे जीवन में आसानी के प्रतीक रहे। मुस्नद अहमद की रिवायत है अल्लाह के नबी अल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

إنی بعثت بحنیفیة سمحة   مسند احمد  

“मुझे उस दीन के साथ भेजा गया है जो घमंड तथा सम्मिश्रण से बिल्कुल शुद्ध और आसान है”।

उसी तरह अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह भी कहा:

إن الدین یسر ولن یشاد الدین أحد الا غلبہ   رواه البخارى 

“वास्तव में धर्म आसानी का नाम है आदमी इसमें तकल्लुफ करेगा और अपनी शक्ति से बढ़कर इबादत करने की कोशिश करेंगा दीन उस पर ग़ालिब आ जाएगा”। (बुखारी)

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक रात लोगों को तरावीह की नमाज़ पढ़ाई,  दूसरी रात जब आए तो लोगों की संख्या अधिक हो गई, फिर तीसरी या चौथी रात लोग बड़ी संख्या में एकत्र हो गये तो आप न निकले, सुबह हुई तो आपने कहा:

तुम ने जो कुछ किया मुझे पता था लेकिन मुझे निकलने में यह बात निषेधात्मक थी कि मुझे आशंका हुई कि ऐसा न हो कि (नमाज़े तरावीह) तुम पर अनिवार्य हो जाय और तुम उससे आजिज आ जाओ “(सही मुस्लिम )

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:

“मैं नमाज़ में खड़ा रहता हूँ और उसे लंबी करना चाहता हूँ उसी समय बच्चे के रोने की आवाज आती है तो नमाज़ हल्की कर देता हूँ कि ऐसा न हो कि माँ पर सख्त गुज़रे” (सुनन अबी दाऊद)

उसी तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आसानी अपनाने का आदेश दिया और सख्ती अपनाने से सख़्ती के साथ मना किया:

एक आदमी अल्लाह के नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा कि मैं सुबह की नमाज़ में फलां आदमी की वजह से देरी करता हूँ कि वह नमाज़ बहुत लंबी करते हैं। हदीस के रावी अबू मुस्ऊद अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं: मैंने आपको उस दिन से अधिक कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा, आपने फरमाया: ऐ! लोगो! आप में से कुछ लोग नफरत दिलाने वाले हैं जो कोई लोगों की इमामत कराए उसे चाहिए कि नमाज़ हल्की पढ़ाए क्योंकि इस के पीछे लम्बा, कमजोर और जरूरतमंद लोग  होते हैं। “(सही मुस्लिम )

हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक बूढ़े आदमी को देखा जिसे उसके दो बेटे घसीट कर  (काबा की ओर) ले जा रहे थे, आप ने फरमाया: यह क्या समस्या है ‘उन्होंने उत्तर दिया कि इस ने मिन्नत मानी थी कि पैदल चलकर बैतुल्लाह जाएगा। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा: अल्लाह इस बात से बेनियाज़ है कि यह अपने आप को सजा में डाले’ और फिर आप ने उसे आज्ञा दी कि सवारी पर सवार हो जाए। ” (बुखारी, हदीस: 1865) 

एक बार अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को भाषण देते हुए कहाः

يَا أَيُّہَا النَّاسُ إِنَّ اللَّہَ تَعَالَى فَرَضَ عَلَيْکُمُ الْحَجَّ فَقَامَ رَجُلٌ فَقَالَ أَفِي کُلَّ عَامٍ يَا رَسُولَ اللہِ ثَلاَثَ مِرَاتٍ فَجَعَلَ يُعْرِضُ عَنْہُ ، ثُمَّ قَالَ لَوْ قُلْتُ نَعَمْ لَوَجَبَتْ وَلَوْ وَجَبَتْ مَا قُمْتُمْ بِہَا ، ثُمَّ قَالَ دَعُونِي مَا تَرَکْتُکُمْ فَإِنَّمَا أَہْلَکَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِکُمْ سُؤَالِہِمْ وَاخْتِلاَفِہِمْ عَلَى  أَنْبِيَائِہِمْ فَإِذَا أَمَرْتُکُمْ بِأَمْرٍ فَأْتُوہُ مَا اسْتَطَعْتُمْ وَإِذَا نَہَيْتُکُمْ عَنْ شَيْءٍ فَاجْتَنِبُوہُ          صحیح مسلم ، حدیث : 1337

” लोगो! अल्लाह ने तुम पर हज करना अनिवार्य ठहराया है। इसलिए हज किया करो। एक व्यक्ति ने पूछा ” ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल) क्या हर साल, इस सवाल को उसने तीन बार दोहराया तो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने फरमाया: अगर मैं कह देता हाँ तो हर साल हज अदा करना अनिवार्य हो जाता और तुम्हें उसमें सामर्थ न होता। फिर आप ने कहा ” मुझे छोड़ दो जब तक मैं तुम्हें छोड़े रखूं, इससे पहले के लोग अपने नबियों से अधिक सवाल करने और मतभेद करने के कारण ही नष्ट किए गए थे, जब मैं तुम्हें किसी चीज़ का आदेश दूँ तो उसे ताक़त भर बजा लाओ और जब मैं तुम्हें किसी चीज़ से मना करूँ तो उसे छोड़ दो। ” (सहीह मुस्लिम हदीस: 1337)

इब्ने अक़ील एक दिलचस्प बात लिखते हैं :

“मुझ से एक व्यक्ति ने पूछा कि पानी में अनगिनत गोते लगाने के बावजूद मुझे यह संदेह होता है कि पता नहीं कि स्नान सही हुआ भी है या नहीं, तो इसके बारे में आपकी क्या राय है, मैंने कहाः जनाब! मेरी राय है कि जाएं आप से तो नमाज़ ही माफ कर दी गई है, उसने पूछा कि वह कैसे, मैंने कहा क्योंकि नबी ने फरमाया है:
” तीन व्यक्तियों से क़लम उठा लिया गया है। पागल यहां तक ​​कि इफाक़ा हो जाए। सोया हुआ यहां तक ​​कि जग जाए और बच्चा यहाँ तक कि वयस्क हो जाए।” (सुनन अबी दाऊद)
और जो व्यक्ति पानी में लगातार ग़ोता लगाने के बावजूद भी यह शक करे कि पता नहीं शरीर में पानी लगा है या नहीं तो वह मजनून है और मजनून से क़लम उठा लिया गया है, उस से नमाज़ (और अन्य सभी कर्तव्य) माफ कर दिए गए हैं। (इग़ासतुल्लहफ़ान, इमाम इब्ने क़य्यिम 1/154)

इमाम इब्ने क़य्यिम लिखते हैं कि शैतान बड़ा चालाक है, उसका एक बहुत अजीब उपाय यह है कि वह मानव स्वभाव को टटोल कर उसकी समीक्षा करता है कि किसका स्वभाव इफरात की ओर माइल है और किसका स्वभाव तफरीत की ओर, जिस ओर उसके स्वभाव का मैलान होता है उसी ओर उसे लगा देता है। यही कारण है कि लोगों की अधिकता या तो इफरात की घाटी में जुटी होती है या तफरीत की घाटी मैं हैरान रहती है। यानी या तो वे शरीयत के आदेश का पालन करने में कोताही करते हैं और हिम्मत की पस्ती का परिचय देते हैं या इतना अतिशयोक्ति करते हैं कि सीमा से भी आगे बढ़ जाते हैं। जबकि बहुत कम नेक लोग ऐसे होते हैं जो सीधे पथ पर रहते हैं, जो पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने निर्धारित किया है और बेशक आप (स.अ.व.) की प्रक्रिया और तरीका ही रास्ता संतुलित है।

(इग़ासतुल्लहफ़ान, इमाम इब्ने क़य्यिम 1/137)

 किसी के मन में यह सवाल पैदा हो सकता है कि शरई अहकाम की बजावरी में दास को त्याग करने की जरूरत पड़ती है और उसे परेशानी भी  होती है फिर आसानी का अभिप्राय क्या हुआ?  तो आसानी का अर्थ यह है कि ईश्वर मनुष्य को उसकी शक्ति से अधिक मुकल्लफ़ नहीं करता और अगर किसी इबादत में कठिनाई हो भी रही हो तो अल्लाह अलग ढंग से उसकी अदाएगी को आसान कर देता है कि एक मोमिन की तबीयत उसके लिए अनुकूल हो जाती है। मोमिन को उसकी अदाएगी में आध्यात्मिक सुख मिलता है तो एकमोमिन इस पूजा द्वारा एक उच्च लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है इस लिए इबादत की वक़्ती थकान बहुत आसान लगती है।

 

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