इस्लाम के स्तम्भ

इस्लाम के स्तम्भ1

इस्लाम शब्द का अर्थ होता है ‘सुपुर्दगी, आत्मसमर्पण, अम्नों शान्ति, सुरक्षित आदि अर्थात अपने आपको बिना किसी शर्त के अल्लाह तआला के हवाले (Surrender) कर देना है। मतलब कि अल्लाह की इच्छा के अनुसार पूर्ण रुप से अपने आप को परिवर्तन कर देना और पारिभाषिक मतलह होता हैः “ अल्लाह के शिक्षा को स्वीकार कर लेना, उसके प्रति नत मस्तक हो जाना, और अपने सर्व स्वार्थ को अल्लाह के अधिन कर देना तथा सम्पूर्ण जीवन में अल्लाह का अधिकारी व भक्त बन जाना, केवल उसी को उपास्य और पूज्य मानना, केवल उसी से प्रार्थना करना तथा उसका दास व भक्त बन जाना और अपना पूर्ण जीवन उसी के बनाए हुए नियम व आदेशानुसार व्यतीत करना, इसी सिद्धान्त के अनुसार ‘पवित्र क़ुरआन’ मानव जीवन का पूर्ण विधान है।

नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस्लाम के स्तम्भ के प्रति स्पष्ट कर दिया हैः जैसा कि हदीस जिबरील में वर्णन हैः

ثم قال: يا محمدُ أخبرني عن الإسلامِ؟ قال: أن تشهد أن لا إله إلا الله وأن محمدًا رسولُ اللهِ، وتقيمَ الصلاةِ وتؤتيَ الزكاةِ، وتصومَ رمضانَ، وتحجَّ البيتَ إنِ استطعتَ إليه سبيلًا .(صحيح مسلم و سنن النسائ: 5005)

 फिर (जिबरील ने कहा) ने कहाः  ऐ मुहम्मद! मुझे इस्लाम के प्रति बताओ? तो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः इस्लाम यह है कि तुम गवाही दो कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य माबूद (पुज्य) नहीं और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल हैं और नमाज़ क़ायम करो, ज़कात (दान) दो, रमज़ान महीने के रोज़े रखो, और यदि अल्लाह के घर आने जाने की शक्ति है तो उस के घर का हज्ज करो….. (सही मुस्लिमः , सुनन नसईः 5005)

दुसरी हदीस में यह स्पष्ट वर्णन है कि इस्लाम पाँच स्तम्भों पर आधारित है जिन्हें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के इस फरमान के द्वारा स्पष्ट किया गया है:

بُنِي الإسلامُ على خمسٍ: شَهادةِ أن لا إلهَ إلا اللهُ وأنَّ محمدًا رسولُ اللهِ ، وإقامِ الصلاةِ ، وإيتاءِ الزكاةِ ، والحجِّ ، وصومِ رمضانَ- (صحيح البخاري: 8 و صحيح مسلم: 16)

” इस्लाम की नीव पाँच चीज़ों पर आधारित हैः इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य (मा’बूद) नहीं, और मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के सन्देष्टा हैं, नमाज़ क़ायम करना, ज़कात देना, हज्ज करना और रमज़ान के महीने के रोज़े रखना।” (बुखारी हदीस संख्याः 8 तथा मुस्लिमः 16)

इस्लाम अक़ीदा (आस्था, विश्वास) और शरीअत (नियम, क़ानून, शास्त्र) एवं  अख़्लाक़ (नैतिकता, सद्सभाव, सुन्दर चरित्र और सर्वेत्तम आचार) का नाम है जिस में अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल और हराम (वैध और अवैध), नैतिकता, शिष्टाचार, उपासना के कार्य, मुआमलात, अधिकारों और कर्तव्यों और  क़ियामत के दृश्यों को स्पष्ट किया है।

अल्लाह तआला ने इस धर्म को अपने नबी के जीवित रहते ही परिपूर्ण कर दिया है। अब इस में किसी प्रकार की कमी या ज़्यादती अस्वीकारित है। क्यों कि अल्लाह ने इस धर्म इस्लाम को पसंद कर लिया है कि यह क़ियामत के आने तक सर्व मानव जाति के लिए जीवन व्यतीत का साधन और संविधान हो, और जीवन में आने वाले सम्पूर्ण समस्याओं के समाधान के नियम अंकित कर दियें हैं। अल्लाह के इस कथन पर विचार करें: ” आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को मुकम्मल (पूर्ण) कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दीं और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसन्द कर लिया।” (सूरतुल-माईदा:3)

ऊपर बयान की गई ह़दीस में इस्लाम के पांच स्तम्भ के प्रति स्पष्ट हुआ है जिसे संक्षिप्त में बयान किया जाता है।

पहला स्तंभ: कलमा शहादत की गवाही देनाः अर्थात ” अश्हदु अल्ला-इलाहा इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्ना मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह ” की गवाही देनाः

इस का मतलब यह है कि मनुष्य यह कठोर विश्वास रखे कि तन्हा अल्लाह ही परमेश्वर (पालनकर्ता) स्वामी, नियंत्रक, सृष्ठिकर्ता , उत्पत्तिकर्ता और प्रदाता है, और यह आस्था और विश्वास रखे कि केवल अल्लाह ही पूज्य एवं उपस्य के योग्य हैं और इबादत की सम्पूर्ण क़िस्में केवल अल्लाह के लिए विशेष कर देना, उस में किसी को तनिक भर भागिदार और साझीदार न बनाना और अल्लाह के सब सुंदर नामों और सर्वोच्च गुणों और पूर्ण विशेषताओं को साबित किया जाए जिन्हें अल्लाह ने अपने लिए साबित किया है, या उन सिफ़ात (विशेषताओं) को अल्लाह के लिए उसके रसूल ने साबित किया है।

अल्लाह तआला क़ुरआन में अपनी इबादत की ओर निमन्त्रण करता है:

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُنْ لَهُ صَاحِبَةٌ وَخَلَقَ كُلَّ شَيْءٍ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ – ذَٰلِكُمُ اللَّهُ رَبُّكُمْ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ فَاعْبُدُوهُ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ وَكِيلٌ – لَا تُدْرِكُهُ الْأَبْصَارُ وَهُوَ يُدْرِكُ الْأَبْصَارَ وَهُوَ اللَّطِيفُ الْخَبِيرُ – سورة الأنعام: 100-103

अर्थः वह आकाशों और धरती का सर्वप्रथम पैदा करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है, जबकि उसकी पत्नी ही नहीं? और उसी ने हर चीज़ को पैदा किया है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है (101) वही अल्लाह तुम्हारा रब; उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; हर चीज़ का स्रष्टा है; अतः तुम उसी की बन्दगी करो। वही हर चीज़ का ज़िम्मेदार है (102) निगाहें उसे नहीं पा सकतीं, बल्कि वही निगाहों को पा लेता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म (एवं सूक्ष्मदर्शी) ख़बर रखनेवाला है  ( सूरः अन्आमः 100 -103 )

तथा मनुष्य यह आस्था रखे कि अल्लाह तआला ने अपने रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपना रसूल बनाकर भेजा है, और आप पर क़ुर्आन अवतरित किया और आप को तमाम लोगों तक इस दीन को पहुँचाने का आदेश दिया है, तथा यह आस्था रखे कि अल्लाह और उसके रसूल से प्रेम और अनुराग करना और उनका आज्ञापालन करना हर एक मुस्लिम पर वाजिब है, रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बताए हुए तरीके पर चलना ज़रुरी है और अल्लाह से मुहब्बत करना रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की अनुसरण और ताबेदारी के बिना परिपूर्ण नहीं हो सकता है। अल्लाह का कथन है।

“कह दीजिए अगर तुम अल्लाह तआला से मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी (अनुसरण) करो, स्वयं अल्लाह तआला तुम से मुहब्बत करेगा और तुम्हारे गुनाह माफ कर देगा और अल्लाह तआला बड़ा माफ करने वाला और बहुत दयालू है।” (सुरत-आल इम्रान: 31)

दूसरा स्तम्भ:  नमाज़

इसका मतलब यह है कि आदमी यह अक़ीदा रखे कि अल्लाह ने हर बालिग (व्यस्क) बुद्धिमान मुसलमान पर दिन और रात में पाँच वक्त की नमाज़ें अनिवार्य की हैं जिसे वह पवित्रता की हालत में अदा करेगा, चुनाँचि वह अपने रब के सामने हर दिन पाकी हासिल करके नम्रता और सुकून- शान्ति और ख़ुशूअ के साथ खड़ा होकर नमाज़ अदा करता है। अल्लाह का उसकी नेमतों पर शुक्र अदा करता है, उसके फज्ल़ (अनुकम्पा) का सवाल करता है, उस से अपने गुनाहों की माफी माँगता है, उस से जन्नत का प्रश्न करता है और जहन्नम से पनाह मांगता है।

कठिनाई और आपदा के समय नमाज़ बन्दे के लिए सहायक है और अपने ऊपर आए हुए समस्या के समाधान के लिए नमाज़ के माध्यम से अल्लाह से दुआ मांगता है तो अल्लाह उसकी सहायता करता है। जैसा कि अल्लाह का फरमान है।

وَاسْتَعِينُوا بِالصَّبْرِ وَالصَّلَاةِ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى الْخَاشِعِينَ – سورة: 45

अर्थः  ” और सब्र और नमाज़ के द्वारा मदद हासिल करो। और वास्तव में यह बहुत भारी है, लेकिन अल्लाह से डरने वालों के लिए नहीं।” (सूरतुल बक़रा :45)

पाँच समय की नमाज़ें दिन और रात में प्रत्येक पुरूष और स्त्री पर अनिवार्य हैं:  जैसा कि अल्लाह का फरमान है।

إِنَّ الصَّلَاةَ كَانَتْ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ كِتَابًا مَوْقُوتًا – سورة النساء : 103

“नि:सन्देह नमाज़ मुसलमानों पर निश्चित और नियत समय पर अनिवार्य की गई हैं।” (सूरतुन्निसा :103)

अल्लाह तआला ने नमाज़ पर पाबन्दी करने की ओर उत्साहित किया है: “नमाज़ों की हिफाज़त करो विशेषकर बीच वाली नमाज़ की, और अल्लाह तआला के लिए विनम्रता के साथ (बा-अदब) खड़े रहा करो।” (सूरतुल बक़रा : 238)

दिन और रात में अनिवार्य नमाज़ें पाँच हैं: फज्र, ज़ुह्र, अस्र, मग्रिब और ईशा।  इन फ़र्ज़ (अनिवार्य) नमाज़ के अतिरिक्त कुछ सुन्नत मुअक्किदा जैसे फ़र्ज़ नमाज़ों से पहले और कुछ बाद में पढ़ा जाता है और कुछ सुन्नत गैर मुअक्किदा नमाज़ें भी हैं जैसे तहज्जुद की नमाज़, तरावीह की नमाज़, चाश्त के वक्त की दो रक्अतें और इनके अलावा दूसरी सुन्नत नमाज़ें।

और जिस ने नमाज़ छोड़ दिया, उस आदमी का इस्लाम में कोई हिस्सा नहीं, अत: जिस ने जान बूझ कर उसे छोड़ दिया उस ने कुक्र किया जैसाकि अल्लाह तआला का कथन है : “लोगो ! अल्लाह की ओर ध्यान करते हुए उस से डरते रहो और नमाज़ को कायम रखो और मुश्रिकों (मूर्तिपूजकों) में से न हो जाओ।” (सूरतुर्रूम :31)

पाँच बार दैनिक नमाज़ें गुनाहों को मिटा देती हैं, जैसा कि पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है: “तुम्हारा क्या विचार है अगर तुम में से किसी के दरवाजे़ पर नदी हो जिस में वह प्रति दिन पाँच बार स्नान करता हो, तो क्या उसके शरीर पर कुछ गंदगी (मैल) बाक़ी रहे गी? लोगों ने उत्तर दिया: उसकी गंदगी (मैल-कुचैल) बाकी नहीं रहेगी। आप ने फरमाया: तो इसी के समान पाँच दैनिक नमाज़ें भी हैं इनके द्वारा अल्लाह तआला गुनाहों को मिटा देता है।” (मुस्लिम हदीस नं.: 677)

मिस्जद में नमाज़ पढ़ना स्वर्ग में प्रवेश करने का कारण है, पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :” जो आदमी सुबह या शाम को मिस्जद में आता है तो अल्लाह तआला उसके लिए स्वर्ग में मेहमानी की व्यवस्था करता है जब भी वह सुबह या शाम के समय आता है।” (मुस्लिम हदीस नं. :669)

नमाज़ बन्दे को उसके उत्पत्तिकर्ता (खालिक़) से जोड़ती और मिलाती है, तथा वह नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आँख की ठंढक थी। जब भी आप को कोई गंभीर मामला पेश आता था तो नमाज़ की तरफ भागते थे, अपने रब (प्रभु) से चुपके चुपके बातें करते, उस से विनती करते, उस से क्षमा मांगते और उसके फज्ल़ व मेहरबानी (दया और अनुकंपा) का प्रश्न करते।

क़ुरआन तथा हदीस में नमाज़ की बहुत महत्व है, जो एक मुस्लिम और गैर मुस्लिम में अन्तर करती है। इस लिए दिन एवं रात में पांच बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। जो इस्लाम का दुसरा स्तम्भ और रूक्न है।

तीसरा स्तंभ:  ज़कात:

अल्लाह तआला ने लोगों को रंग, नैतिकता, व्यवहार, ज्ञान, कर्मों और जीविकाओं में भिन्न-भिन्न पैदा किया है, चुनाँचि उन्हीं में से कुछ को धन्वान और कुछ को निर्धन बनाया है, ताकि धन्वान की कृतज्ञता के द्वारा और निर्धन की धैर्य के द्वारा परीक्षा करे।

जब मूमिन लोग आपस में भाई-भाई हैं और यह भाईचारा, करूणा, हमदर्दी, स्नेह, प्रेम , दया, प्यार और मेहरबानी पर आधारित है, इसी लिए अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर ज़कात को अनिवार्य किया है जो उनके मालदार लोगों से लेकर उनके निर्धन और गरीब लोगों में वितरन किया जाएगा, अल्लाह तआला का फरमान है:

خُذْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيهِمْ بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْ إِنَّ صَلَاتَكَ سَكَنٌ لَهُمْ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ- سورة التوبة: 103

“आप उनके मालों में से सद्क़ा ले ली जिए जिस के द्वारा आप उन्हें पाक व साफ कर दीजिए, और उनके लिए दुआ कीजिए, बेशक आप की दुआ उनके लिए इत्मेनान का कारण है।” (सूरतुत्तौबा : 103)

ज़कात, धन को पवित्र करता और उस में बढ़ोतरी करता है, मन को कंजूसी और लोभ से पाक करता है, गरीबों और मालदारों के बीच प्यार के सम्बन्ध को मज़बूत बनाता है, जिस के कारण कीना-कपट (द्वेष) समाप्त हो जाता है। शान्ति फैलती है और उम्मत को सौभाग्य प्राप्त होता है।

जो भी व्यक्ति सोना, चाँदी या अन्य धातुओं और और व्यापार के सामान में से निसाब भर (वह नियुक्त सिमित न्यूनतम राशि जिस पर ज़कात अनिवार्य होती है) का मालिक हो और उस पर एक साल बीत जाये, तो उस पर अल्लाह तआला ने चालीसवाँ हिस्सा (2.5%) ज़कात निकालना अनिवार्य किया है।

जहाँ तक कृषि उपज और फलों का संबंध है तो यदि उसकी सिंचाई बिना खर्च के हुई है तो उस में दसवाँ भाग और अगर खर्च के द्वारा उसकी सिंचाई हुई है तो उस में बीसवाँ भाग उसकी कटाई के समय ज़कात निकालना अनिवार्य है, जब  वह कृषि उपज 600 किलो से अधिक हो यदि कोई कृषि उपज का व्यापार करता है तो फिर उस पर व्यापार के अनुसार ज़कात देना पड़ेगा।

स्वयं उपयोग के पशुओं पर ज़कात नहीं है। परन्तु अधिक मात्रा में पशुओं का पालन या व्यापार करने पर ज़कात देना अनिवार्य है। जिस का विस्तार से विवरण किक्ह की किताबों में है।

जो व्यक्ति अपने माल में से ज़कात निकालेगा तो अल्लाह तआला उसके गुनाहों को मिटा देगा, उसके धन में बरकत देगा और उसके लिए बहुत बड़ा सवाब (पुण्य) सुरक्षित रखेगा।

अल्लाह तआला का फरमान है: ” तुम नमाज़ अदा करो और ज़कात (धर्मदान) देते रहो और जो भलाई तुम अपने लिए करो तो उस का बदला अल्लाह के पास पा लोगे, बेशक अल्लाह तआला तुम्हारे अमल को देख रहा है।” (सूरतुल बक़रा : 110)

ज़कात को रोक लेना और उसकी अदायगी न करना उम्मत के लिए आपदाओं, मुसीबतों और बुराईयों को न्योता देता है, ज़कात रोकने वालों को अल्लाह तआला ने क़ियामत के दिन कष्टदायक अज़ाब की धमकी दी है। अल्लाह तआला का कथन है:

وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنْفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللَّهِ فَبَشِّرْهُمْ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ –  يَوْمَ يُحْمَىٰ عَلَيْهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكْوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمْ وَجُنُوبُهُمْ وَظُهُورُهُمْ هَٰذَا مَا كَنَزْتُمْ لِأَنْفُسِكُمْ فَذُوقُوا مَا كُنْتُمْ تَكْنِزُونَ –  سورة التوبة: 34-35

अर्थः ” और जो लोग सोने चाँदी का खज़ाना रखते हैं और उसे अल्लाह के मार्ग में खर्च नहीं करते उन्हें कष्टदायक सज़ा की सूचना पहुँचा दीजिए। जिस दिन उस खज़ाना को जहन्नम की आग में तपाया जायेगा, फिर उस से उन के माथे और पहलू और पीठें दागी जायेंगी (उन से कहा जायेगा) यह है जिसे तुम ने अपने लिए खज़ाना बना कर रखा था, तो अपने खज़ानों का मज़ा चखो।” (सूरतुत्तौबा : 34)

ज़कात को गुप्त तरीक़े से अदा करना ज़्यादा उत्तम है परन्तु कभी कभी  उसे लोगों के सामने ज़ाहिर करने का लक्ष्य लोगों को ज़कात अदा करने पर उभारना हो तो यह भी अच्छा है जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : “अगर तुम सदक़ात (दान-पुण्य) को ज़ाहिर करो, तो वह अच्छा है, और अगर तुम उसे छिपा कर गरीबों को दे दो, तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और अल्लाह तुम्हारे गुनाहों को मिटा देगा, और तुम जो कुछ भी करते हो अल्लाह उस से अवगत है।” (सूरतुल बक़रा : 27)

अल्लाह तआला ने ज़कात अदा करते समय जिन लोगों को ज़कात की राशी दी जाएगी उन लोगों के प्रति भी बयान कर दिया है। अल्लाह तआला ने इस कथन के द्वारा उनका उल्लेख किया है:

إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَابْنِ السَّبِيلِ فَرِيضَةً مِنَ اللَّهِ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ – سورة التوبة: 34-35

 ” सदक़े तो बस ग़रीबों, मुहताजों और उन लोगों के लिए है, जो ज़कात जमा करने पर नियुक्त हों और उनके लिए जिनके दिलों को आकृष्ट करना औऱ परचाना अभीष्ट हो और गर्दनों को छुड़ाने और क़र्ज़दारों और तावान भरनेवालों की सहायता करने में, अल्लाह के मार्ग में, मुसाफ़िरों की सहायता करने में लगाने के लिए है। यह अल्लाह की ओर से ठहराया हुआ हुक्म है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त तत्वदर्शी है (60)” (सूरतुत्तौबा : 60)

चौथा स्तंभ: रमज़ान का रोज़ा रखना

रमज़ान महीने का रोज़ा इस्लाम के पांच स्तम्भों में से चौथा स्तम्भ है। रोज़ा (ब्रत) जिसे अरबी में  सियाम कहते हैं जिस का अर्थ होता है,” रुकना ” अर्थातः  सुबह सादिक से लेकर सूर्य के डुबने तक खाने – पीने तथा संभोग से रुके रहना, रोज़ा कहलाता है। रमज़ान के महीने का रोज़ा हर मुस्लिम, बालिग, बुद्धिमान पुरुष और स्री पर अनिवार्य है। अल्लाह का कथन है।

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ – سورة البقرة: 183

“ ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखनेवाले बन जाओ।”  (सूरः अल्-बकराः183)

जिसे हर मुस्लिम को हृदय , जुबान और कर्म के अनुसार मानना ज़रुरी है। रोज़े को उसकी वास्तविक हालत से रखने वालों को बहुत ज़्यादा पुण्य प्राप्त होता है जिस पुण्य की असल मात्रा अल्लाह तआला ही जानता है, प्रिय रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया ” मनुष्य के हर कर्म पर, उसे दस नेकी से लेकर सात सौ नेकी दी जाती है सिवाए रोज़े के, अल्लाह तआला फरमाता है कि रोज़ा मेरे लिए है और रोज़ेदार को रोज़े का बदला मैं दूंगा, उस ने अपनी शारीरिक इच्छा ( संभोग) और खाना – पीना मेरे कारण त्याग दिया, ( इस लिए इसका बदला मैं ही दूंगा) रोज़ेदार को दो खुशी प्राप्त होती है, एक रोज़ा खोलते समय और दुसरी अपने रब से मिलने के समय, और रोज़ेदार के मुंह की सुगंध अल्लाह के पास मुश्क (कस्तुरी) की सुगंध से ज़्यादा खुश्बूदार है।         ( बुखारी तथा मुस्लिम)

इसी तरह जन्नत ( स्वर्ग ) में एक द्वार एसा है जिस से केवल रोज़ेदार ही प्रवेश करेंगे, रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है, ” जन्नत ( स्वर्ग ) के द्वारों की संख्याँ आठ हैं, उन में से एक द्वार का नाम रय्यान है जिस से केवल रोज़ेदार ही प्रवेश करेंगे  ”

रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने साथियों को शुभ खबर देते हुए फरमाया ” तुम्हारे पास रमज़ान का महीना आया है ,यह बरकत वाला महीना है,अल्लाह तआला तुम्हें इस में ढ़ाप लेगा, तो रहमतें उतारता है, पापों को मिटाता है, और दुआ स्वीकार करता है और इस महीने में तुम लोगों का आपस में इबादतों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने को देखता है, तो फरिश्तों के पास तुम्हारे बारे में बयान करता है, तो तुम अल्लाह को अच्छे कार्ये करके दिखाओ, निःसन्देह बदबख्त वह है जो इस महिने की रहमतों से वंचित रहे.  ” ( अल – तबरानी)

रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया ” जो व्यक्ति रमज़ान महीने का रोज़ा अल्लाह पर विश्वास तथा पुण्य की आशा करते हुए रखेगा , उसके पिछ्ले सम्पूर्ण पाप क्षमा कर दिये जाएंगे ”  ( बुखारी तथा मुस्लिम)

रोज़ा और क़ुरआन करीम  क़ियामत के दिन अल्लाह तआला से बिन्ती करेगा के रोज़ा रखने वाले , क़ुरआन पढ़ने वाले को क्षमा किया जाए, तो अल्लाह तआला उसकी सिफारिश स्वीकार करेगा, जैसा कि रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है ” रोज़ा और कुरआन करीम  क़ियामत के दिन अल्लाह तआला से बिन्ती करेगा कि ऐ रब, मैं उसे दिन में खाने – पीने और संभोग से रोके रखा तो मेरी सिफारिश उस के बारे में स्वीकार कर, क़ुरआन कहेगा, ऐ रब, मैं उसे रातों में सोने से रोके रखा तो मेरी सिफारिश उस के बारे में स्वीकार कर, तो उन दोनो की सिफारिश स्वीकार की जाएगी ” (मुस्नद अहमद और सही तरग़ीब वत्तरहीब)

फजर से पहले से लेकर सूर्य के डुबने तक खाने – पीने तथा संभोग से रुके रहना ही रोज़ा की वास्तविक्ता नहीं बल्कि रोज़ा की असल हक़ीक़त यह कि मानव हर तरह की बुराई , झूट, झगड़ा लड़ाइ, गाली गुलूच, तथा गलत व्यवहार और अवैध चीज़ो से अपने आप को रोके रखे ताकि रोज़े के पुण्य उसे प्राप्त हो, जैसा कि रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है ” जो व्यक्ति अवैध काम और झूट और झूटी गवाही तथा जहालत से दूर न रहे तो अल्लाह को कोई अवशक्ता नहीं कि वह भूका, पीयासा रहे ”     ( बुखारी )

पाँचवाँ स्तंभ : हज्ज :

हज्ज वह महत्वपूर्ण इबादत है जो इस्लाम का पांचवाँ स्तम्भ है, जिस के बिना किसी मानव का इस्लाम पूर्ण नहीं हो सकता जिस की फर्ज़ीयत के प्रति अल्लाह ताआला ने पवित्र क़ुरआन में फरमाया है।

” ولله على الناس حج البيت من استطاع إليه سبيلا ومن كفر فإن الله غني عن الكافرين” –  آل عمران:97

” और अल्लाह का लोगों पर अधिकार है कि जो लोग अल्लाह के घर काबा जाने आने की क्षमता रखते हैं, तो वह हज्ज के लिए काबा का यात्रा करें और जो इन्कार करेगा तो अल्लाह सारे संसार वालों से बेनयाज़ है।”  (सूरः आले-इमरान,97)

इसी तरह रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमायाः

” يا أيها الناس قد فرض الله عليكم الحج فحجوا, فقال رجل أكل عام ؟ يا رسول الله! فسكت. فقالها ثلاثا فقال: لو قلت نعم لوجبت ولما استطعم” ( رواه مسلم)

” ऐ लोगो, अल्लाह तआला ने तुम्हारे ऊपर हज्ज फर्ज़ (अनिवार्य) किया है, तो तुम लोग हज्ज करो, तो एक आदमी ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल! क्या प्रत्येक वर्ष? तो आप खामूश हो गये, वह व्यक्ति तीन बार यह प्रश्न किया, तो आप ने फरमायाः यदि मैं हाँ कहता तो प्रत्येक वर्ष अनिवार्य हो जाता और तुम इस की क्षमता नहीं रख सकते ” ( सही मुस्लिम )

हज्ज की परिभाषाः जब कोई व्यक्ति अल्लाह की इबादत की नियत से विशेष महीने और विशेष दिनों में और विशेष समय में ही मक्का और हज्ज के स्थानों की यात्रा करे तो उसे हज्ज कहते हैं।

किसी इन्सान पर हज्ज के फर्ज़ होने के लिए उन में पांच शर्तो का पाया जाना अनिवार्य है। जिन्हें  निम्न में संक्षिप्त में बयान किया जाता है।

 

(1) मुस्लिमः  हज्ज उसी मानव पर अनिवार्य होता है जो मुसलमान होता है और मुस्लिम होने के बाद हज्ज करता है तो उस का यह हज्ज उस के लिए काफी होगा यदि किसी ने नाबालिग की आयु में हज्ज किया तो बालिग होने के बाद भी हज्ज करने की क्षमता हो तो उसे दो बारा हज्ज करना पड़ेगा।

(2)  बुद्धि वाला होनाः अल्लाह तआला ने धर्म के आदेश को मानना बुद्धि वालों पर अनिवार्य किया है जो मानव पागल हो तो ऐसे व्यक्तियों पर दीन की बातों का पालन करना अनिवार्य नहीं है, जैसा कि कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमायाः

عَائِشَةَ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهَا، أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ: ” رُفِعَ الْقَلَمُ عَنْ ثَلَاثَةٍ: عَنِ النَّائِمِ حَتَّى يَسْتَيْقِظَ، وَعَنِ المُبْتَلَى حَتَّى يَبْرَأَ، وَعَنِ الصَّبِيِّ حَتَّى يَكْبُرَ “-  سنن أبي داؤد-4/139 وصححه الشيخ الألباني)

आईशा (रज़िल्लाहु अन्हा) से से वर्णन है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया, ” तीन व्यक्तियों को अल्लाह तआला ने क्षमा किया है। नीन्द से सोनेवाले यहाँ तक कि वह निन्द से जाग जाए और पागल यहाँ तक कि वह बुद्धि वाला हो जाए और बच्चों से यहाँ तक कि वह बालिग हो जाए, (सुनन अबी दाऊद-4/139- अल्लामा अलबानी ने सही कहा है)

(3)  बालिग होनाः अल्लाह तआला ने धर्म के आदेश को मानना बालिग पर अनिवार्य किया है, कोई भी बालक या बालिका दीन के आदेश तथा आज्ञा पर अमक कर सकता है परन्तु बालिग होने के बाद दीन के आदेश पर अमल करना अनिवार्य हो जाता है यदि बालिग होने के बाद दीन के आज्ञा अनुसार जीवन नहीं बिताता तो वह पापी और गुनह्गार होगा जैसा कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने  स्पष्ट किया कि बच्चों पर धर्म के आज्ञा का पालन अनिवार्य नहीं है।

عَنْ عَائِشَةَ، أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، قَالَ: ” رُفِعَ الْقَلَمُ عَنْ ثَلَاثَةٍ: عَنِ النَّائِمِ حَتَّى يَسْتَيْقِظَ، وَعَنِ الصَّغِيرِ حَتَّى يَكْبَرَ، وَعَنِ الْمَجْنُونِ حَتَّى يَعْقِلَ-(سنن ابن ماجة 1/658 وصححه الشيخ الألباني)

आईशा (रज़ी अल्लाहु अन्हा) से से वर्णन है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमायाः ” तीन व्यक्तियों को अल्लाह तआला ने क्षमा किया है। नीन्द से सोनेवालों से यहां तक कि वह निन्द से उठ जाए, और बच्चों से यहां तक कि वह बालिग हो जाए, और पागल से यहां तक कि वह बुद्ध वाला हो जाए, (सुनन इब्नि माजा -4/139- अल्लामा अलबानी ने सही कहा है

(4) आजाद होनाः  इसी तरह गुलाम पर हज्ज फर्ज़ नही है,

(5) क्षमता होनाः  किसी भी मुस्लिम की आर्थिक क्षमता के अनुसार उस पर हज्ज फर्ज़ होता है जैसा अल्लाह तआला ने स्वयं ही क़ुरआन मजीद में कहा है।

” ولله على الناس حج البيت من استطاع إليه سبيلا – آل عمران:97

और अल्लाह का लोगों पर अधिकार है कि जो लोग अल्लाह के घर काबा जाने आने की क्षमता रखते हैं, तो वह हज्ज के लिए काबा का यात्रा करे, ( सूरः आले-इमरान,97)

 

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