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أكاديمية سبيلي Sabeeli Academy

तौहीदे उलूहियत

Tauheed

अल्लाह तआला को उसकी उलूहियत में यकता और तन्हा मानने का अर्थात क्या है ?

तौहीद उलूहियत का अर्थः बन्दा यह पुख्ता आस्था रखे कि अल्लाह ही तन्हा पुज्यनीय है और उसकी इबादत और पुजा में कोई भागीदार एवं साझीदार नहीं और प्रत्येक प्रकार की इबादत केवल अल्लाह के लिए विशेष कर दी जाए और किसी को भी उस में अल्लाह के साथ भागीदार न बनाया जाए चाहे वह इबादत जिभ से अदा की जाती हो या हृदय से या शरीर के अंगों से या धनदौलत खर्च कर के, चाहे वह इबादत प्रकटनीय हो या गुप्तनीय हो।

अल्लाह तआला ने इसी सन्देश के साथ सर्व नबियों तथा रसूलों को अपने अपने समुदाय में भेजा। ताकि वे महापुरुष लोगों को अल्लाह की इबादत की ओर निमंत्रण करें और लोगों को मख्लूक की इबादत से निकाल कर अल्लाह की इबादत के रास्ते पर लगा दे।

अल्लाह का फरमान है।

وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَّ‌سُولًا أَنِ اعْبُدُوا اللَّـهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوتَ- (سورة النحل: 36

” हमने हर समुदाय में कोई न कोई रसूल भेजा कि अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत से बचो।” (सूरह नहलः 36)

अल्लाह के प्रत्येक नबी ने लोगों को इसी तौहीदे उलूहियत की ओर निमंत्रण किया। जैसा कि अल्लाह का फरमान है।

لَقَدْ أَرْ‌سَلْنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوْمِهِ فَقَالَ يَا قَوْمِ اعْبُدُوا اللَّـهَ مَا لَكُم مِّنْ إِلَـٰهٍ غَيْرُ‌هُ إِنِّي أَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيمٍ -( سورة الأعراف: 59

हमने नूह को उसकी क़ौम के लोगों की ओर भेजा, तो उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो। उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। मैं तुम्हारे लिए एक बड़े दिन के यातना से डरता हूँ।”     (59सूरह अलआराफः)

बल्कि इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने मुर्तियों की खराबी भी बयान फरमाया और केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर निमंत्रण किया। जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमायाः

قَالَ أَفَتَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّـهِ مَا لَا يَنفَعُكُمْ شَيْئًا وَلَا يَضُرُّ‌كُمْ- أُفٍّ لَّكُمْ وَلِمَا تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّـهِ ۖ أَفَلَا تَعْقِلُونَ-(سورة الأنبياء: 67)

उसने कहा,”फिर क्या तुम अल्लाह के अलावा जिसे पूजते हो, जो न तुम्हें कुछ लाभ पहुँचा सकते और न तुम्हें कोई हानि पहुँचा सकते? -धिक्कार है तुम पर, और उन पर भी, जिनको तुम अल्लाह को छोड़ कर पूजते हो! तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते ?” (सूरह अल्अन्बियाः 66-67)

तौहीद उलूहियत को तौहीद इबादत भी कहते हैं।

सर्व प्रथम इबादत का अर्थ क्या है ?

इबादत का अर्थ शब्दकोश के अनुसार झुकना और खाकसारी है। परन्तु विद्वानों ने कई धार्मकि परिभाषा की हैं। उन परिभाषों में सब से अच्छा यह है। ” इबादत नाम है प्रत्येक प्रकार के क्रम और कथन का चाहे वे प्रकटनीय हो या गुप्तनीय जिनके करने को अल्लाह तआला पसंद करता हो और उससे राज़ी होता हो।”

इबादत केवल नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज्ज पर सिमित नहीं है। बल्कि प्रत्येक क्रम और कथन जिसे अल्लाह ने अपने लिए विशेष किया या उसके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अल्लाह तआला के लिए विशेष कर दिया हो, चाहे इबादत जिभ से अदा की जाए या कर्म के माध्यम से अदा की जाए या हृदय से अदा की जाए या धन के माध्यम से अदा की जाए। इन सर्व इबादतों में अल्लाह के साथ किसी को भागीदार और साझीदार न बनाया जाए क्योंकि अल्लाह भागीदार और साझीदार से पवित्र है।

तौहीद उलूहियत के प्रतिज्ञा के साथ अल्लाह के सिवा की इबादत का इनकार भी ज़रूरी है और अल्लाह के साथ किसी को शिर्क करने से बचना भी अनिवार्य है। क्योंकि अल्लाह तआला ने बेशुमार स्थानों पर तौहीद पर जमे रहने और शिर्क और कुफ्र के इनकार और उस से दूर रहने का आदेश दिया है। तौहीद पर जमे रहना यह सब से बड़ी इबादत है। तो अब हम कुछ इबादतों के प्रति ज्ञान प्राप्त करते हैं जिस में तौहीद को साबित करना बहुत ज़रूरी है।

निम्न में कुछ इबादतें बयान की जाती हैं जो तौहीदे उलूहियत से सम्बंधित हैं।

1-  रूकूअ और सज्दा और बहुत आदर व सम्मान से खड़ा होना इबादत में से है जो केवल अल्लाह के लिए करना चाहिये एवं अल्लाह के सिवा के लिए जाइज़ नहीं जैसा कि अल्लाह का फरमान है।

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا ارْ‌كَعُوا وَاسْجُدُوا وَاعْبُدُوا رَ‌بَّكُمْ وَافْعَلُوا الْخَيْرَ‌ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ- (سورة الحج: 77

ऐ ईमान लानेवालो! झुको और सज्दा करो और अपने रब की बन्दगी करो और भलाई करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो।    (77सूरह हज्जः)

जो लोग भी अल्लाह के अलावा के लिए झुकेंगे और रूकूअ एवं सज्दा करेंगे तो गोया कि वह अल्लाह के साथ शिर्क करेंगे। अल्लाह ने स्पष्ट रूप से इस से मना करते हुए अपनी इबादत की ओर प्रोत्साहित किया है। अल्लाह का इर्शाद है।

لَا تَسْجُدُوا لِلشَّمْسِ وَلَا لِلْقَمَرِ‌ وَاسْجُدُوا لِلَّـهِ الَّذِي خَلَقَهُنَّ إِن كُنتُمْ إِيَّاهُ تَعْبُدُونَ- (سورة فصلت: 37

तुम न तो सूर्य को सज्दा करो और न चन्द्रमा को, बल्कि अल्लाह को सज्दा करो जिसने उन्हें पैदा किया, यदि तुम उसी की बन्दगी करनेवाले हो।  (सूरहः फुस्सिलतः 37)

2-  अल्लाह के घर का तवाफ करना इबादत है, काबा के अलावा का तवाफ करना अवैध है। अल्लाह तआला ने फरमायाः

وَلْيَطَّوَّفُوا بِالْبَيْتِ الْعَتِيقِ – (سورة الحج: 29

और इस पुरातन घर का तवाफ़ (परिक्रमा) करें। (सूरहः अल-हज्जः 29)

इसी प्रकार इबादत की नियत से काबा के सिवा किसी भी घर, या मज़ार, या क़ब्र यार किसी नाम नहाद वली के आस्ताना का तवाफ करना शिर्क होगा।

3-  दुआ एक इबादत है जो केवल अल्लाह तआला से ही करना चाहिये, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः

الدُّعاءَ هوَ العِبادَةُ، ثمَّ قرأَ: وَقَالَ رَبُّكُمُ ادْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ إِنَّ الَّذِينَ يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبَادَتِي سَيَدْخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ- ) صحيح الترمذي – رقم الحديث:3372 )

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमायाः दुआ ही इबादत है और फिर यह आयत तिलावत कीः तुम्हारे रब ने कहा कि “तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी प्रार्थनाएँ स्वीकार करूँगा।” जो लोग मेरी बन्दगी के मामले में घमंड से काम लेते है, निश्चय ही वे शीघ्र ही अपमानित होकर जहन्नम में प्रवेश करेंगे।  (सूरह ग़ाफिरः 60-(सही तिर्मिज़ीः हदीस क्रमांकः 3372)

बल्कि अल्लाह ने अपने के अलावा से दुआ करने से मना किया है।  अल्लाह का फरमान है।

وَلَا تَدْعُ مِن دُونِ اللَّـهِ مَا لَا يَنفَعُكَ وَلَا يَضُرُّ‌كَ ۖ فَإِن فَعَلْتَ فَإِنَّكَ إِذًا مِّنَ الظَّالِمِينَ-  سورة يونس: 106

और अल्लाह के अलावा को न पुकारो जो न तुम्हें लाभ पहुँचाए और न तुम्हें हानि पहुँचा सके और न तुम्हारा बुरा कर सके, क्योंकि यदि तुमने ऐसा किया तो उस समय तुम अत्याचारी होगे।  (सूरह सुनूसः 106)

इसके अलावा भी बहुत से स्थानों पर अल्लाह ने गैरूल्लाह से दुआ करने से मना किया है। जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमायाः

وَأَنَّ الْمَسَاجِدَ لِلَّـهِ فَلَا تَدْعُوا مَعَ اللَّـهِ أَحَدًا. (سورة الجن: 18

और यह मस्जिदें अल्लाह के लिए है। अतः अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो।  (सूरह जिन्नः 18)

4– केवल अल्लाह से ही नज़र और मन्नत मानना चाहिये, क्योंकि नज़र एवं मन्नत एक इबादत है। जैसा कि क़ुरआन करीम में मर्यम (अलैहिस्सलाम) के किस्से में आता है कि मर्यम (अलैहिस्सलाम) ने कहाः

إِنِّي نَذَرْ‌تُ لِلرَّ‌حْمَـٰنِ صَوْمًا فَلَنْ أُكَلِّمَ الْيَوْمَ إِنسِيًّا (سورة مريم: 26

मैं ने तो रहमान के लिए रोज़े की मन्नत मानी है। इसलिए मैं आज किसी मनुष्य से न बोलूँगी।” (सूरह मर्यमः 26)

अल्लाह तआला ने अपने उस बन्दों की तारीफ और प्रशंसा की है जो केवल अल्लाह से मन्नत मान कर,  उसे पूराकरते हैं।

يُوفُونَ بِالنَّذْرِ‌ وَيَخَافُونَ يَوْمًا كَانَ شَرُّ‌هُ مُسْتَطِيرً‌ا  (سورة الدهر:77 :  7

वे नज़र (मन्नत) पूरी करते है और उस दिन से डरते है जिसकी आपदा व्यापक होगी। (77-सूरह अद्दहरः 7)

5– अल्लाह से मदद तथा सहायता मांगना इबादत है। इस लिए केवल अल्लाह से ही मदद और सहायता मांगना चाहिये। अल्लाह के अलावा से सहायता मांगना नहीं चाहिये। हमें प्रत्येक नमाज़ में केवल अल्लाह से ही मदद मांगने का शिक्षण मिलता है। जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।

إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ  (سورة الفاتحة: 5

हम तेरी बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं।    (सूरह फातिहाः 5)

रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी हमेशा अल्लाह ही से मदद मांगने पर प्रोत्साहित किया है। जैसा कि अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा)  से वर्णन है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुझ से फरमायाः जब तुम मदद मांगो तो केवल अल्लाह ही से मदद मांगो। (सुनन तिर्मज़ीः 2516)

अल्लाह के अलावा से मदद मांगना शिर्क के सूची में शुमार होगा।

6– अल्लाह पर भरोसा और तवक्कुल करना एक इबादत है। अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में बहुत से स्थान पर अल्लाह पर ही भरोसा करने पर उभारा है। जो लोग अल्लाह ही पर भरोसा करते हैं, तो ऐसे ही लोग वास्तविक मोमिन हैं। जैसा कि अल्लाह का इरशाद है।

وَعَلَى اللَّـهِ فَتَوَكَّلُوا إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ. (سورة المائدة: 23

” अल्लाह पर भरोसा रखो, यदि तुम ईमानवाले हो।”  (5-सूरह अल-माइदाः 23)

क्योंकि हृदय से पुख्ता भरोसा ही इबादत में शुमार होता है जो केवल अल्लाह से ही करना चाहिये। यदि यह भरोसा अल्लाह के अलावा से किया जाए तो शिर्क के लिस्ट में गिना जाएगा। जो व्यक्ति अल्लाह पर भरोसा करता है, तो अल्लाह ऐसे व्यक्ति के समस्याओं के समाधान के लिए काफी होगा। यह अल्लाह का वादा है। अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया हैः

وَمَن يَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّـهِ فَهُوَ حَسْبُهُ  (سورة الطلاق: 3

जो अल्लाह पर भरोसा करे तो वह उसके लिए काफ़ी है। (65-सूरह अत्तलाक़ः 3)

7-  अल्लाह से बहुत ज़्यादा मुहब्बत करना एक इबादत है, तो अल्लाह के अलावा से अल्लाह के जैसा मुहब्बत करना शिर्क है। मुमिन अल्लाह से अत्यन्त प्रेम करते हैं। जैसा कि अल्लाह ने क़ुरआन में बयान किया है।

وَمِنَ النَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ اللَّـهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللَّـهِ ۖ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَشَدُّ حُبًّا لِّلَّـهِ (سورة البقرة: 165

कुछ लोग ऐसे भी है जो अल्लाह से हटकर दूसरों को उसके समकक्ष ठहराते है, उनसे ऐसा प्रेम करते है जैसा अल्लाह से प्रेम करना चाहिए। और कुछ ईमानवाले हैं, उन्हें सबसे बढ़कर अल्लाह से प्रेम होता है। (सूरह अल-बक़राः 165)

प्रेम एक महान इबादत है जिस की विशेषता यह कि अल्लाह की ज़ात से मुहब्बत होना चाहिये और अल्लाह के अलावा से अल्लाह के खातिर मुहब्बत होना चाहिये। उदाहरण सवरूपः अल्लाह हमारा मालिक, खालिक और राज़िक है। इसलिए हम अल्लाह की ज़ात से मुहब्बत करते हैं और नबियों और रसूलों और नेक तथा परहेज़्गार लोगों से मुहब्बत अल्लाह की खुशी और अल्लाह के आदेश के कारण होता है। जैसा प्रेम अल्लाह से करना चाहिये, उस प्रकार का प्रेम अल्लाह के अलावा से नहीं होना चाहिये। क्योंकि ऐसा करना शिर्क में शुमार किया जाएगा।

8– अल्लाह के अज़ाब से भयभीत होना और उसके सवाब तथा उस से अच्छी आशा रखना भी एक इबादत है। परन्तु अल्लाह के अलावा से उसी प्रकार भयभीत होना शिर्क में से होगा और अल्लाह से सवाब की आशा रखना भी इबादत है। जैसा कि अल्लाह तआला ने अपने नेक बन्दों की इसी विशेषता पर प्रशंसा की है। अल्लाह का फरमान है।

تَتَجَافَىٰ جُنُوبُهُمْ عَنِ الْمَضَاجِعِ يَدْعُونَ رَ‌بَّهُمْ خَوْفًا وَطَمَعًا وَمِمَّا رَ‌زَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ (سورة السجدة: 16

उनके पहलू बिस्तरों से अलग रहते है कि वे अपने रब को भय और लालसा के साथ पुकारते है, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते है। (32- सूरह सज्दाः 16)

परन्तु किसी डरावनी वस्तुओं से डर प्राकृतिक भय माना जाएगा जिस का संबन्ध इबादत से नही होगा।

9–  अल्लाह के नाम से जानवर ज़बह करना या बकरे ईद के शुभ अवसर पर क़ुरबानी करना एक उत्तम इबादत है। जिसके करने का आदेश अल्लाह ने अपने सब से प्रतिष्टित भक्त नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को दिया है।

فَصَلِّ لِرَ‌بِّكَ وَانْحَرْ (سورة الكوثر: 2

अतः तुम अपने रब ही के लिए नमाज़ पढ़ो और (उसी के दिन) क़़ुरबानी करो। (108-सूरह अल-कौस़रः 2)

अल्लाह ने क़ुरबानी को खालिस अल्लाह के लिए करने का आदेश दिया है। जैसा कि अल्लाह का फरमान है।

قُلْ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّـهِ رَ‌بِّ الْعَالَمِينَ ﴿١٦٢﴾ لَا شَرِ‌يكَ لَهُ ۖ وَبِذَٰلِكَ أُمِرْ‌تُ وَأَنَا أَوَّلُ الْمُسْلِمِينَ (سورة آل عمران: 162

(ऐ नबी)  कहो, “मेरी नमाज़ और मेरी क़ुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सब अल्लाह के लिए है, जो सारे संसार का रब है (162) ” उसका कोई साझी नहीं है। मुझे तो इसी का आदेश मिला है और सबसे पहला मुस्लिम (आज्ञाकारी) मैं हूँ।”  (6- सूरह आले इमरानः 162)

रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी उन लोगों पर शाप दिया जो अल्लाह के अलावा के नाम से ज़बह करते हैं। जैसाकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है।

لعن اللهُ من ذبح لغيرِ اللهِ. ولعن اللهُ من آوى مُحدِثًا .ولعن اللهُ من لعن والديْهِ . ولعن اللهُ من غيَّرَ المنارَ. (صحيح مسلم: 1978)

रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः अल्लाह की लानत हो उस व्यक्ति पर जो अल्लाह के अलावा के लिए जबह करे और अल्लाह की लानत हो उस व्यक्ति पर जो किसी बिद्अती को शरण दे, अल्लाह की लानत हो उस व्यक्ति पर जो अपने माँ बाप पर लानत करे, और अल्लाह की लानत हो उस व्यक्ति पर जो धरती की निशानियों को बदल दे।  (सही मुस्लिमः 1978)

किसी मेहमान या घर पर आने वाले लोगों की मेहमान नवाजी के लिए जबह किया जाने वाला जानवर उस के नाम पर नही होता है, बल्कि वह उस की मेहमान नवाजी के लिए होता है जो कि अल्लाह के नाम से ही जबह किया जाता है। जिसका असल लक्ष्य अल्लाह को खुश करना होता है और उसके आदेश से होता है। परन्तु दरगाहों और कबरों और आस्तानों पर जबह करना शिर्क में से शुमार होगा।

अतः जितनी भी इबादतें हैं, सब को केवल अल्लाह की खुशी के लिए करना चाहिये जिस में अल्लाह के साथ किसी दुसरे को भागीदार न करना चाहिये और सम्पूर्ण इबादतों को नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) के तरीके के अनुसार करना चाहिये। तब किसी बन्दे की इबादत स्वीकारित होगी, क्योंकि इबादत के स्वीकार होने के लिए तौहीद और नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) के सुन्नत के अनुसार होना अनिवार्य है।

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