दीन के चार मूल आधार हैं जिनकी जानकारी हर मुसलमान के लिए अत्यंत आवश्यक है, वह चार मूल आधार हैं: ज्ञान, प्रक्रिया, निमंत्रण और धैर्य। दूसरे शब्दों में सत्य की जानकारी, सत्य पर अमल, सत्य की ओर निमंत्रण और सत्य की शिक्षा, सत्य पर अमल और सत्य की ओर निमंत्रण में आने वाली परेशानियों पर सब्र करना।
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ज्ञानः
सब से पहले ज्ञान या सत्य की जानकारी, और इस संदर्भ में तीन बातों का ज्ञान शामिल है। अल्लाह का ज्ञान, रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का ज्ञान और धर्म का ज्ञान। यही तीन चीजें हैं जिन से सम्बन्धित कब्र में हमसे प्रश्न होने वाला है, क़ब्र में हमसे हमारी डिग्रियों के सम्बन्ध में नहीं पूछा जाएगा, न हमारी योग्यता के बारे में पूछ गछ होने वाली है बल्कि हमसे पूछा जाएगा तो इन्हीं तीन सवालों का जवाब और बस। तेरा रब कौन है, तेरे नबी कौन हैं, और तेरा दीन क्या है। जिस व्यक्ति के पास इन तीन चीज़ों का सही ज्ञान नहीं इस्लाम की दृष्टि में वह ज्ञान रख कर भी अज्ञानी है, बल्कि ऐसे लोग पशुओं के समान हैं।
अल्लाह का ज्ञान
अल्लाह का ज्ञान यह है कि अल्लाह को उसकी रबूबियत में यकता माना जाए, कि वही पैदा करने वाला, संसार को चलाने वाला और संसार पर प्रभुत्व करने वाला है, फिर इबादत की सारी क़िस्मों को इसी के लिए विशेष किया जाए, और अल्लाह के अस्मा और सिफ़ात वैसे ही साबित किए जाएँ जैसे अल्लाह ने अपने लिए या उसके रसूल ने उसके लिए साबित की है, उनका उल्टा अर्थ न किया जाए, उनकी स्थिति बयान न की जाए और न उनका इनकार किया जाए। जब एक दास को अल्लाह की पहचान प्राप्त हो जाती है तो उसका संबंध डायरेक्ट अल्लाह से हो जाता है, अब उसे मेडिल-मैन की जरूरत नहीं रहती, अल्लाह से ही मांगता, उसी से सहायता तलब करता और केवल उसी को लाभ एवं हानि का मालिक समझता है।
रसूल का ज्ञान
रसूल का ज्ञान यह है कि यह जाना जाए कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का नाम मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुलमुत्तलिब है, आप क़ुरैश के बनू-हाशिम परिवार में पैदा हुए, जन्म से पहले पिता का निधन हो गया था, छह साल के हुए तो माँ आमना दुनिया से चली गईं, आठ साल के हुए तो दादा भी चल बसे, तब चाचा के प्रायोजन में रहने लगे, कुछ पैसों के बदले मक्का वालों की बकरियां चराईं, बुराइयों में ग्रस्त समाज में अति पवित्र बनकर जीवन बिताई, यहां तक कि लोगों ने आपको सादिक़ (सत्यवान) और अमीन (अमानतदार) की उपाधि दे रखी थी, चालीस वर्ष की उम्र में नबी बनाए गये, लोगों को एक अल्लाह की ओर बुलाया तो अपने पराए हो गए, मित्र शत्रु बन गए, दस साल आपने मक्का में गुज़ारा, इस बीच आपको पागल और दीवाना कहा गया, आपके रास्ते में कांटे बिछाए गए, सिर पर ऊंट की ओझड़ियाँ रखी गईं, तीन वर्ष तक सामाजिक बहिष्कार किया गया, जब मक्का की धरती बंजर साबित हुई तो ताइफ गए कि सम्भव है वहाँ के निवासी इस दीन को अपना लें लेकिन उनके गुंडों ने आप पर पत्थर बरसाया, 13 वर्ष के पश्चात जब मदीना हिजरत की तो वहाँ पर आपने इस्लामी राज्य की स्थापना की, लेकिन अभी भी दुश्मनों की दुश्मनी में कमी नहीं आई, हर साल युद्ध लड़ते रहे, अंततः हिजरत के दसवें वर्ष मक्का जहां से आपको निकाल दिया गया था उस पर विजय पा लिया, फिर आपकी दया देखिए कि 21 साल के दुश्मनों पर काबू पाते ही उनकी सार्वजनिक क्षमा का परवाना जारी कर दिया, दो साल के बाद आपने अंतिम हज किया, जिसमें एक लाख चवालीस हजार सहाबा उपस्थित थे, हज के कुछ महीनों बाद बीमार हुए और उम्र की 63 बहारें देखने के बाद प्रलोक सुधार गए। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जानने में यह बात भी आती है कि आपको अल्लाह का अन्तिम संदेष्टा और रसूल माना जाए, आपकी लाई हुई शिक्षाओं की पुष्टि की जाए, उन्हें अपने जीवन में लागू किया, आपने जिन कामों का आदेश दिया है उन्हें व्यवहार में लाया जाए और जिन कामों से रोका है उन से रुक जाया जाए और आपकी बात की तुलना किसी व्यक्ति विशेष की बात से न की जाए। और यह आस्था रखी जाए कि आप समस्त संसार के लिए संदेष्टा बनाकर भेजे गए हैं, आज मानवता का कल्यान केवल आपके संदेश को अपनाने में है।
धर्म का ज्ञान
धर्म के ज्ञान में मूल रूप में तीन चीजों की जानकारी आती हैं, ईमान का ज्ञान, इस्लाम का ज्ञान और एहसान का ज्ञान। ईमान दिल की पुष्टि, ज़बान की स्वीकृति और अंगों द्वारा प्रक्रिया का नाम है। इसके छह स्तम्भ हैं, अल्लाह पर ईमान लाना, फरिश्तों (स्वर्गदूतों) पर ईमान लाना, संदेष्टाओं पर ईमान लाना, पुस्तकों पर ईमान लाना, आख़िरत के दिन पर ईमान लाना, और भाग्य की अच्छाई और बुराई पर ईमान लाना। यह छह चीजें हैं जिन्हें ईमान के स्तम्भ कहते हैं। दूसरे नंबर पर इस्लाम का ज्ञान और इस्लाम का सम्बन्ध कुछ व्यवहारिक कामों से होता है, जिसके पांच स्तम्भ हैं, पहले नंबर पर कलमा शहादत इक़रार करना। और यह ऐसा शब्द है जो दुनिया के सारे शब्दों में सब से अधिक मज़लूम है। कि सारे मुसलमानों को याद है बल्कि अपने बच्चों को सबसे पहले यही कल्मा सिखाते हैं लेकिन इसके अर्थ, अभिप्राय तथा मांग से हमारे अधिकांश लोग कोसों दूर हैं। इस कल्मा में मुख्य रूप से दो बिंदु का वर्णन है: पूजा किसकी? और पूजा कैसे? अर्थात् पूजा अल्लाह की हो सकती है, अल्लाह के अलावा किसी अन्य की पूजा नहीं हो सकती और यह पूजा अंतिम रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बताई हुई विधि के अनुसार ही हो सकती है। पूजा अल्लाह के अलावा किसी और की नहीं और अनुसरण मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अलावा किसी अन्य का नहीं। यह कल्मा हमसे इस बात की मांग करता है कि एक मुसलमान अल्लाह और अपने बीच किसी मेडिल-मैन का सहारा न ले, किसी मुर्दे को वसीला न माने, लाभ एवं हानि का मालिक न समझे। बल्कि उसका संबंध सीधे अल्लाह से हो। दूसरे नंबर पर पाँच समय की नमाज़ें स्थापित करे, पवित्रता और उसके मसाइल सीखे, नमाज़ और उसके मसाइल को जाने। तीसरे नंबर पर अगर उसके माल में ज़कात आती है तो निसाब तक पहुंचने के बाद अपने मालों की ज़कात अदा करे। और ज़कात के मसाइल सीखे, चौथे नंबर पर साल में पूरे रमज़ान के रोज़े रखे, और रोज़े के मसाइल सीखे, और पांचवें नंबर पर अगर उसे सामर्थ प्राप्त है तो जीवन में एक बार हज करे, और हज के मसाइल सीखे। ये इस्लाम के पांच स्तम्भ हैं कलमा शहादत की गवाही, पांच समय की नमाज़ें, ज़कात, रमज़ान के रोज़े और हज।
ईमान और इस्लाम के बाद धर्म की जानकारी में तीसरा नंबर एहसान का आता है। जिसकी परिभाषा यह की जाती है कि अल्लाह की इबादत ऐसे करें मानो अल्लाह को आप देख रहे हैं, अगर यह भावना पैदा न हो सके तो कम से कम यह सोचें कि अल्लाह आपको देख रहा है। धर्म के इन तीन आधार का वर्णन हदीसे जिब्रील में आया है जिसके अंत में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं: यह जिब्रील थे जो तुम्हें तुम्हारा दीन सिखाने आए थे। इस से हमें यह भी पता चल गया कि दीन सीखने की तर्तीब क्या होनी चाहिए।
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प्रक्रिया
दीन के मरातिब में दीन सीखने के बाद दूसरा मर्तबा आता है प्रक्रिया का। और प्रक्रिया में सर्वप्रथम इबादत का दर्जा आता है, जिनमें चार इबादतें अनिवार्य हैं, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज, इसके अलावा भी इबादतें हैं जैसे दुआ, क़ुरबानी, नज़र व नियाज़, रुकूअ और सज्दा आदि यह सब इबादत हैं जिनका अल्लाह के लिए विशेष होना अनिवार्य है।
उसी तरह प्रक्रिया में नैतिकता का दर्जा आता है कि एक मुस्लिम अच्छे आचरण का पैकर बने और बुरे आचरण से दूर रहे। प्रक्रिया में मामलात भी आते हैं। जैसे जिहाद, व्यापार, लेनदेन, विवाह, तलाक और विरासत आदि। प्रक्रिया में राजनीति का दर्जा भी आता है जैसे शासन के नियम कैसे हों? कोर्ट प्रणाली कैसी हो, अंतरराष्ट्रीय संबंध के शिष्टाचार क्या हों? इस्लाम हमें इन सारे मामलों की विस्तृत जानकारी देता है।
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दावत
ज्ञान और प्रक्रिया के बाद दिन के मरातिब में तीसरी स्थान आता है सत्य की ओर निमंत्रण का, या धर्म की ओर लोगों को बुलाने का, यह काम हर मुसलमान के करने का है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: एक आयत भी तुम्हें पता है तो तुम्हारी जिम्मेदारी है कि उसे दूसरों तक पहुंचाओ।
एक अमेरिकी नागरिकता रखने वाले व्यक्ति ने मस्जिद में नमाज़ अदा की, जब नमाज़ समाप्त हुई तो माइक लेकर सूरतुल फातिहा पढ़ना शुरू कर दिया, जिसे मुश्किल से पढ़ सका, और ऐसी शैली में कि उसे वही समझ सकता था जिसे सूरतुल फातिहा याद हो, फिर वह रोया और मस्जिद से निकल गया, इमाम ने उसका पीछा किया और उससे पूछा: तुमने ऐसा क्यों किया? उसने कहा: मैं ने मात्र दो दिन पहले इस्लाम कुबूल किया है, मैं ने एक इस्लामी किताब में यह हदीस पढ़ी कि “بلغوا عنى ولو آية” कि मेरी ओर से पहुंचाओ, यधपि एक आयत ही क्यों न हो। और मैं सूरह फातिहा याद कर चुका था, इसलिए मैं ने उन्हें पहुंचा देना उचित समझा। (मासिक पत्रिका अल-बुश्रा से अनुवाद, लेख: जौदा खलफ़ अल्फ़ारिस)
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सब्र
और चौथे नंबर पर दीन सीखने में दीन का पालन करने में और दीन की ओर निमंत्रण देने में किसी प्रकार की परेशानी आती है तो सब्र करना।
ये दीन के चार मरातिब हैं जिन्हें अल्लाह पाक ने सूरः अल- अस्र में बयान कर दिया है: अल्लाह ने फरमायाः
وَالْعَصْرِ ﴿١﴾ إِنَّ الْإِنسَانَ لَفِي خُسْرٍ ﴿٢﴾ إِلَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ ﴿٣﴾
क़सम है ज़माने की, (1) कि वास्तव में मनुष्य घाटे में है,(2) सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और अच्छे कर्म किए और एक-दूसरे को हक़ की ताकीद की, और एक-दूसरे को धैर्य की ताकीद की (3)
अल्लाह ने ज़माने की क़सम खाते हुए कहा कि इनसान घाटे में था, घाटे में रहेगा, और आज भी मनुष्य घाटे में है, लाभ में कौन है? जो ईमान लाए, ईमान के अनुसार अमल किया, सत्य की ओर आमंत्रित किया और परेशानी आई तो धैर्य से काम लिया।