समाज व्यक्तियों से मिलकर बनता है, और कुछ व्यक्ति जब समाज में एक साथ निवास करते हों तो कभी कभार मतभेद हो जाना, दिल मैला हो जाना और एक को दूसरों से कष्ट पहुंच जाना स्वाभाविक है।
समाज व्यक्तियों से मिलकर बनता है, और कुछ व्यक्ति जब समाज में एक साथ निवास करते हों तो कभी कभार मतभेद हो जाना, दिल मैला हो जाना और एक को दूसरों से कष्ट पहुंच जाना स्वाभाविक है। क्यों कि जिस प्रकार अल्लाह ने मनुष्य की बनावट में अंतर रखा है उसी प्रकार मनुष्य के स्वभाव में अंतर रखा है, सब का स्वभाव एक प्रकार का नहीं होता,सब की तबीयत एक जैसी नहीं होती, जाहिर है कि जब स्वभाव में भिन्नता होगी और कुछ लोग एक साथ रहेंगे तो मतभेद होना निश्चित है . किसी का दिल दुख सकता है, किसी के दिल को चौट पहुंच सकती है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ब्रह्मांड के सबसे बेहतर इंसान हैं,इसके बावजूद आप को दूसरे तो दूर की बात है स्वयं पत्नियों से तकलीफ पहुंची है,मन के खिलाफ कुछ ऐसी बातें सुनीं जो आपको अप्रिय लगीं,यहां तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक बार एक महीने के लिए क़सम खाली थी कि अपनी पत्नियों के पास न जाएंगे . और वास्तव में एक महीने तक अपनी पत्नियों से दूर रहते हैं। ( सहीह बुख़ारी 5191, सहीह मुस्लिम 1479)
इससे भी आगे देखें तो आपको पता चलेगा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पत्नियां आप पर कभी कभी नाराज़ हो जाती थीं। एक बहुत सूक्ष्म घटना है कि एक बार अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा से निवेदन करते हैं कि हे आयशा! जब तुम मुझसे खुश होती हो तो मैं जान लेता हूं और जब तुम नाराज होती हो तब भी जान लेता हूँ। आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने पूछा : वह कैसे ? आपने फरमाया : जब तुम खुश होती हो तो कहती हो : नहीं… मुहम्मद के रब की कसम! और जब नाराज़ होती हो तो कहती हो : नहीं… इब्राहीम के रब की कसम! आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा मुस्कुराती हैं और कहती हैं : ऐ अल्लाह के रसूल! केवल मैं नाम ही ना भूलती हूं। (अन्यथा आप से प्रेम तो मन में बसा होता है)। (सहीह मुस्लिम 2439 )
तात्पर्य यह कि जब अलग अलग स्वभाव के लोग एक साथ रहते हों तो मतभेद होना निश्चित है. आप जैसा चाहते हैं कोई जरूरी नहीं कि सामने वाला आपके जैसे ही हो , अगर बाप यह चाहे कि मेरा बेटा 100 प्रतिशत मेरे जैसे हो जाए ऐसा नहीं हो सकता . पत्नी यह चाहे कि मेरा पति 100 प्रतिशत मेरे जैसे हो जाए ऐसा नहीं हो सकता , पति यह चाहे कि मेरी पत्नी 100 प्रतिशत मेरे जैसे हो जाए ऐसा नहीं हो सकता . बहू यह चाहे कि मेरी सास 100 प्रतिशत मेरे जैसे हो जाए ऐसा नहीं हो सकता . सास यह चाहे कि मेरी बहू 100 प्रतिशत मेरे जैसे हो जाए ऐसा नहीं हो सकता। क्यों कि सब का स्वभाव अलग अलग है। इसी लिए बेहतर इंसान वह समझा गया जो आक्रामक बातों को सहन करता है औरजिस में बर्दाश्त करने की भावना पाई जाती है। सुनन तिर्मिज़ी की रिवायत है, अल्लाह के रसूल सल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
المسلمُ الذي يخالط الناسَ ويصبرُ على أذاهم : أفضلُ من الذي لا يخالطُهم ولا يصبرُ على أذاهم .تخريج مشكاة المصابيح 5016
” वह मुस्लिम जो लोगों के साथ मिलजुल कर रहता है और उनकी पीड़ा को सहन करता है ऐसे मुस्लिम से अच्छा है जो लोगों के साथ मिलजुल कर नहीं रहता और उनकी पीड़ा को सहन नहीं करता ” .
आइए हम जानते हैं कि स्वभाव में अंतर पाए जाने के बावजूद आपसी प्रेम कैसे स्थापित किया जा सकता है और सामाजिक मतभेद पर कैसे क़ाबू पाया जा सकता है? तो इस संबंध में हम नीचे की पंक्तियों में कुछ रहनुमा सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके द्वारा हमें आपसी मतभेद को पाटने में सहायता मिलेगी।
( 1 ) खूबियों पर नजर रखें खामियों को नजरअंदाज करें :
सहीह मुस्लिम की रिवायत है अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
لا يفرَكْ مؤمنٌ مؤمنةً، إن كرِهَ منْها خُلقًا رضِيَ منْها آخر صحيح مسلم 1469
“कोई मोमिन अपनी मोमना पत्नी को नापसनद न करे कि अगर उसकी एक आदत नापसंद है तो दूसरी कई आदतें पसंद होंगी।”
इस हदीस में सामाजिक और पारिवारिक जीवन को बेहतर बनाने का सब से अच्छा तरीक़ा यह बताया कि हम अच्छाइयों पर ध्यान रखें बुराइयों को नज़रअंदाज़ करें, विशेष रूप में पत्नी के नकारात्मक पहलू पर नजर रखने के बजाय सकारात्मक पहलू पर नजर रखें क्योंकि यह संबंध कुछ ज्यादा ही नाजुक और संवेदनशील होता है और यहाँ मतभेद जन्म लेने की आशंका कुछ ज्यादा ही होती है. अन्यथा हम इस हदीस को अपने पूरे सामूहिक जीवन में बरत सकते हैं कि बुराई की उपेक्षा में अच्छाई पर नज़र रखें,अगर बुराई पर नजर जमाएंगे तो सारी अच्छाइयां ओझल हो जाएंगी,सामने वाले के अंदर बुराई ही बुराई दिखाई देगी, इसलिए निगाह अच्छाई पर रखनी है बुराई को नज़रअंदाज़ करना है।
फिर हमें यह भी तो सोचना चाहिए कि हम जिस काम को गलत समझ रहे हैं सम्भव है वह हमारे मन के अनुसार गलत हो लेकिन जिससे मामला हो रहा है उसके मन के अनुसार यह सही हो, क्योंकि स्वभाव में प्राकृतिक रूप में मतभेद पाया जाता है इस लिए हमें हर हालत में अच्छा ख़्याल रखना चाहिए और सोचना चाहिए कि संभव है हम ही गलती पर हों।
( 2 ) बुद्धि विवेक से काम लें और बेहतरीन तरीके से मामले का निपटारा करें:
अगर हमें किसी से तकलीफ़ पहुंचती है तो यहाँ दो ही रास्ता होगा,या तो हम तकलीफ पहुंचाने वाले से लड़ाई झगड़ा करेंया धैर्य से काम लें. अगर लड़ने झगड़े पर उतारू हो गए जैसा कि आम तौर पर लोग करते हैं तो कभी आराम नहीं मिलेगा,कभी चैन से नहीं रह सकेंगे,जरा उन लोगों से पूछिए जो लड़ाई झगड़ा के आदी हैं. उनकी शांति कैसे भंग हो चुकी है. उदाहरणस्वरूप आपने सुना कि किसी व्यक्ति ने आपके सम्बन्ध में कोई बुरी बात कही है,आप जज़बात में आएंगे तो उसे अपने सम्मान का मुद्दा बनाएंगे, और दस आदमी से अनुसंधान करने जाएंगे,फिर मतभेद होगा जो जड़ पकड़ता जाएगा,और आप टेंनशन के शिकार होते जाएंगे. यदि आपने इसे नजरअंदाज किया और यह समझा कि अगर किसी ने मेरे सम्बन्ध में कुछ कहा है तो इस से इस से हमारा नुकसान क्या होने वाला है उल्टे हमें नेकियाँ मिलने वाली हैं, इस प्रकार यदि आपकी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई तो बात आगे बढ़ने से रह जाएगा और किसी प्रकार का मतभेद जन्म नहीं लेगा. अल्लाह ने सूर:फुस्सिलत में इस विषय की व्याख्या फ़रमाई है, अल्लाह तआला ने फरमाया :
وَلَا تَسْتَوِي الْحَسَنَةُ وَلَا السَّيِّئَةُ ۚ ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي بَيْنَكَ وَبَيْنَهُ عَدَاوَةٌ كَأَنَّهُ وَلِيٌّ حَمِيمٌ سورة فصلت 34
” भलाई और बुराई समान नहीं है। तुम (बुरे आचरण की बुराई को) अच्छे से अच्छे आचरण के द्वारा दूर करो। फिर क्या देखोगे कि वही व्यक्ति तुम्हारे और जिसके बीच वैर पड़ा हुआ था, जैसे वह कोई घनिष्ठ मित्र है ” ( सूरः फुस्सिलत 34 )