इस्लाम में है अमेरिकी रंग-भेद की समस्या का समाधान: मेलकॉम एक्स

अल्लाह जिसे चाहता है, उसे सही मार्ग पर चलने की शक्ति प्रदान करता है।

अल्लाह जिसे चाहता है, उसे सही मार्ग पर चलने की शक्ति प्रदान करता है।

( स्रोतः  इस्लामिक वेब दुनिया )

इस्लाम एक प्राकृतिक धर्म है जो मानव बुद्धि के बिल्कुल अनुकूल है। यह हवा और पानी के समान दुनिया के हर व्यक्ति की अपनी सम्पत्ति है, यह जीवन के हर भाग में मानव का मार्गदर्शन करता है, इसकी शिक्षायें बिल्कुल माडर्न और अप टू डेट हैं, इसका अनुसरण लोक में सुख का कारण और प्रलोक में मुक्ति और सफलता का साधन है। इस्लाम ग्रहन करना धर्म परिवर्त नहीं अपितु अपनी धरोहर को पाना है जिसकी तुलना में यह दुनिया तो क्या ऐसी दसयों दुनिया नहीं आ सकती, यह कोई भावनात्मक कल्पना नहीं बल्कि 100 प्रतिशत सत्य है, इसके महत्व को वही भली-भांति जान सकते हैं जिन्हों ने वास्तव में इसका स्वाद चखा है। आज जब कि विश्व में इस्लाम को दोषित ठहरा कर दुनिया वालों के समक्ष पेश किया जाता है फिर भी यूरोप और अमेरिकी में दुनिया का सब से अधिक फ़ैलने वाला धर्म इस्लाम ही है, जिसके साया में बड़े बड़े वैज्ञानिकों, विद्वानों और धार्मिक गुरुओं ने शरण लिया है और आज तक ले रहे हैं, उन्हीं विद्वानों में से एक मेलकाँम एक्स भी हैं जिनकी कहानी हम निम्न में प्रस्तुत कर रहे हैं: ( सफात आलम तैमी ) 

 

 

यह एक अफ्रो-अमेरिकन  जाने-माने क्रांतिकारी मेलकॉम एक्स की इस्लाम का अध्ययन करने और फिर इसे अपनाने  की दास्तां है। मेलकॉम एक्स ने अमेरिका की रंग-भेद की समस्या का समाधान इस्लाम में पाया। मेलकॉम एक्स कहता था-मैं एक मुसलमान हूं  और सदा रहूंगा। मेरा धर्म इस्लाम है।

जाने-माने और क्रांतिकारी शख्स मेलकॉम एक्स का  जन्म 19 मई 1925 को नेबरास्का के ओहामा में हुआ था। उसके माता-पिता ने उसको मेलकॉम लिटिल नाम दिया था। उसकी मां लुई नॉर्टन घरेलू महिला थी और उसके आठ बच्चे थे। मेलकॉम के पिता अर्ल लिटिल स्पष्टवादी बेपटिस्ट पादरी थे। अर्ल काले लोगों के राष्ट्रवादी नेता मारकस गेर्वे के कट्टर समर्थक थे और उनके कार्यकर्ता के रूप में जुड़े थे। उनके समर्थक होने की वजह से अर्ल को गोरे लोगों की तरफ से धमकियां दी जाती थीं, इसी वजह से उन्हें दो बार परिवार सहित अपने रहने की जगह बदलनी पड़ी। मेलकॉम उस वक्त चार साल के थे। गोरे लोगों ने अर्ल के लॉन्सिग, मिशिगन स्थित घर को जलाकर राख कर दिया और इस हादसे के ठीक दो साल बाद अर्ल लिटिल का कटा-पिटा शव शहर के ट्रॉली-ट्रेक के पार पाया गाया। इस हादसे के बाद उनकी पत्नी और मेलकॉम की मां लुई का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और उसे मनोचिकित्सालय में भर्ती कराना पड़ा। मेलकॉम की उम्र उस वक्त छह साल थी। ऐसे हालात में लुई के इन आठ बच्चों को  अलग-अलग अनाथालय की  शरण लेनी पड़ी।

मेलकॉम बचपन से ही चतुर और होशियार विद्यार्थी था। वह हाई स्कूल में क्लॉस में टॉप रहा। लेकिन जब उसने अपने प्रिय अध्यापक से वकील बनने की अपनी मंशा जाहिर की तो वह टीचर बोला-तुम जैसे नीग्रो स्टूडेंट के लिए वकील बनने के सपने देखना सही नहीं है। इसी सोच के चलते मेलकॉम की पढ़ाई में रुचि कम हो गई  और पंद्रह साल की उम्र में मेलकॉम ने पढ़ाई छोड़ दी।इस बीच मेलकॉम गलत लोगों की संगत में फंस गया और मादक पदार्थों के कारोबारियो से जुड़ गया। गलत संगत के चलते ही बीस साल की उम्र में धोखाधड़ी और चोरी के एक मामले में उसे सात साल की सजा हुई। जेल से बाहर आने पर उसने नेशन ऑफ इस्लाम के बारे में जाना। नेशन ऑफ इस्लाम से जुड़कर उसने इसके संस्थापक अलीजाह मोहम्मद की शिक्षाओं का अध्ययन किया और इसी के चलते 1952 में उसमें काफी बदलाव आ गया।

द नेशन ऑफ इस्लामः

जेल से बाहर आने के बाद मेलकॉम डेटसेट में द नेशन ऑफ इस्लाम की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगा। अलीजाह मोहम्मद ने भी उसे बहुत कुछ सिखाया। मेलकॉम एक्स की कोशिशों की वजह से देश में इस संस्था का विस्तार हुआ। इसी के चलते मेलकॉम एक्स की छवि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बन गई। कई बड़े टीवी चैनल और पत्र-पत्रिकाओं में उनके इन्टरव्यू छपे और कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने लेक्चरदिए। मेलकॉम की आवाज में आकर्षण था, प्रभाव था। अपने प्रभावशाली भाषणों के जरिए उन्होंने काले लोगों पर हो रहे जुल्म को बयान किया और इसके लिए गोरे लोगों को जिम्मेदार ठहराया।

अमेरिका में कालों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ मेलकॉम के शब्द अक्सर डंक मारते लेकिन यह भी सच्चाई है कि नेशन ऑफ इस्लाम की विचारधारा और जातिवादी सोच के चलते किसी गोरे शख्स द्वारा की गई सच्ची और अच्छी कोशिश को भी वे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते थे।
मेलकॉम बारह साल तक अपने भाषणों में यही कहता रहा कि गोरा आदमी शैतान है और अलीजाह मोहम्मद ईश्वर का पैगम्बर है। दुख की बात यह है कि आज भी मेलकॉम एक्स की जिंदगी के इसी पार्ट को ज्यादा हाई लाइट किया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि इसके बाद मेलकॉम की छवि बिल्कुल ही इस सोच और विचारधारा से अलग हटकर बन गई थी। उसका नजरिया कुछ इस तरह बन गया था जिसमें अमेरिकी लोगों के लिए उसका महत्वपूर्ण संदेश था।

 इस्लाम की ओर कदमः

12 मार्च 1964 को मेलकॉम एक्स ने अनबन के चलते अलीजाह मोहम्मद की संस्था द नेशन ऑफ इस्लाम को छोड़ दिया। उस वक्त मेलकॉम की उम्र 38 साल थी। मेलकॉम कहते हैं-नेशन ऑफ इस्लाम में मैं उस शख्स की तरह महसूस करता था जो पूरी तरह किसी दूसरे के नियंत्रण में सोया हुआ था। अब मुझे एहसास हुआ है कि अब मैं जो  सोच रहा हूं , खुद सोच रहा हूं। पहले किसी और की देखरेख में बोलता था, अब अपने दिमाग से सोचता हूं।
मेलकॉम कहते हैं कि पहले जब मैं नेशन ऑफ इस्लाम से जुड़ा था, उस वक्त यूनिवर्सिटी-कॉलेज के मेरे भाषण के बाद कई लोग मुझसे मिलने आते थे। वे अपने आपको अरब, मध्य एशिया या उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान  बताते थे, जो यहां पढऩे या घूमने आए हुए थे। उनका यह यकीन था कि अगर मेरे सामने इस्लाम का सही रूप पेश किया गया तो मैं इसे अपना लूंगा। लेकिन अलीजाह मोहम्मद से जुड़े रहने की वजह से मैं उसी के विचारों को खुद पर हावी रखता था। लेकिन इस्लाम को सही रूप में समझने और इसे अपनाने के प्रस्ताव कई बार आने के बाद मैंने अपने आप से सवाल किया-अगर कोई शख्स अपने धर्म के मामले में खुद को सच्चा समझता है तो आखिर उस धर्म को अच्छे तरीके से समझने में उसे हिचकिचाहट क्यों होनी चाहिए? दरअसल कई मुसलमानों ने मुझसे कहा था कि मुझे डॉ. महमूद युसूफ शाहवर्बी से मुलाकात करनी चाहिए। और फिर एक दिन ऐसा ही हुआ। एक पत्रकार ने हम दोनों की मुलाकात कराई। शाहवर्बी ने मुझे बताया कि वे अखबारों में मेरे बारे में पढ़ते रहे हैं। हमारे बीच लगभग पन्द्रह-बीस मिनट ही बात हुई, दरअसल हम दोनों को ही अलग-अलग प्रोग्रामों में शरीक जो होना था। विदा होने से पहले महमूद यूसुफ ने जो एक बात बताई वह मेरे दिल और दिमाग में गहरी बैठ गई। उन्होंने कहा-कोई शख्स उस वक्त तक मोमिन (पूरा ईमान और आस्था वाला) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई के लिए भी वही कुछ पसंद करे जो अपने खुद के लिए पसंद करता है। (यह मुहम्मद सल्ल. का कथन है, बुखारी, मुस्लिम)

हज्ज का सफर जिसने उसकी जिंदगी बदल दीः

हज के सफर का मेलकॉम एक्स की जिंदगी पर बेहद असर पड़ा। वे अपनी हज यात्रा का उल्लेख करते हुए बताते हैं- ‘हवाई अड्डे पर हजारों लोग थे, जो जेद्दा जा रहे थे। उनमें से हर शख्स एक ही तरह के कपड़े  पहने हुए था, जिससे यह पहचाना ही नहीं जा सकता था कि इनमें से कौन अमीर है और कौन गरीब। मैं भी इसी परिधान में था। यह पोशाक पहनने के बाद हम सब लोग रुक-रुक कर-लब्बेक अल्लाह हुम्मा लब्बैक (ओ मेरे मालिक मैं हाजिर हूं) पुकारने लगे। जेद्दा जाने वाला हमारा यह हवाई जहाज काले, गोरे, भूरे, पीले लोगों से भरा था। ये सभी एक अल्लाह को मानने वाले और सभी बराबरी का सम्मान देने वाले लोग थे।
मेलकॉम कहते हैं- मेरी जिंदगी का यह वह पल था जब मैंने गोरे लोगों का नए सिरे से मूल्यांकन करना शुरू किया। यहां मैंने महसूस किया कि यहां गोरे आदमी का अर्थ सिर्फ उसका रंग गोरा होना है जबकि अमेरिका में गोरे के मायने है काले लोगों के प्रति गलत मानसिकता और भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाला शख्स। लेकिन मैंने महसूस किया मुस्लिम जगत में गोरे लोग इंसानी भाईचारे में ज्यादा विश्वास रखते थे। उसी दिन से गोरे लोगों के प्रति मेरे पूर्वाग्रह और मानसिकता बदलना शुरू हो गई है। हज के दौरान मैंने देखा कि वहां दसों हजारों लोग थे जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए हुए थे। यहां  सभी रंगों के लोग थे। गोरे भी और काली चमड़ी वाले अफ्रीकी भी। नीली आंखों वाले लोग भी। और यह सब हज के एक ही तरीके को अंजाम देने में जुटे थे। गोरे और काले लोगों की ऐसी एकता और ऐसा जुड़ाव अमेरिका में रहने के दौरान मेरी कल्पना में भी संभव नहीं था। मुझे महसूस हुआ कि अमेरिका के बाशिंदो को चाहिए कि वे इस्लाम का अध्ययन करें और इसे समझे क्योंकि सिर्फ यही एकमात्र धर्म है जो अमेरिकी समाज के नस्लीय और जातीय भेदभाव को मिटा सकता है। अमेरिका की इस बड़ी समस्या का समाधान इस्लाम में है।
मैं मुस्लिम दुनिया की अपनी यात्रा में ऐसे लोगों से मिला, उनके साथ बैठकर खाना खाया, उनसे मेल जोल रखा जो अमेरिका में गोरे गिने जाते हैं- लेकिन इस्लाम ने इनके  दिल से नस्लीय मानसिकता को हटा दिया था। मैंने इससे पहले विभिन्न रंगों के इंसानों के बीच ऐसा सच्चा और खरा भाईचारा नहीं देखा था।’

मेलकॉम का अमेरिका के लिए नया सपनाः

मेलकॉम कहते हैं- ‘हज के इस माहौल को देखकर हर घंटे अमेरिका में श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच होने वाली घटनाओं के मामले में मुझे एक नई आध्यात्मिक रोशनी नजर आने लगी। नस्लीय भेदभाव के खात्मे का समाधान नजर आने लगा। वैसे तो जातीय दुश्मनी के लिए अमेरिका के अश्वेत लोगों को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन ये अश्वेत तो लगभग चार सौ सालों से गोरे लोगों द्वारा किए जा रहे जुल्म का प्रतिकार ही तो कर रहे हैं। लेकिन यह जातीय द्वेष अमेरिका को खुदकुशी के रास्ते पर ले जा रहा है।
मुझे पूरा यकीन है कि यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढऩे वाली अमेरिका की नौजवान पीढ़ी इस आध्यात्मिक सच्चाई को स्वीकारेगी और सच्चाई की इस राह पर चलेगी।’
मेलकॉम कहते हैं-‘अमेरिका को विनाश के रास्ते पर ले जाने वाला जातीय द्वेष और नस्लीय सोच से बचने का मात्र एक ही रास्ता है और यह है इस्लाम। मेरा यह मानना है कि ईश्वर ने गोरे लोगों को अश्वेतों पर जुल्म करने के अपराध करने का पश्चाताप करने का आखिरी मौका दिया है। ठीक उसी तरह जिस तरह ईश्वर ने फिरऔन को आखरी मौका दिया था। लेकिन फिरऔन ने लोगों पर जुल्म करना चालू रखा और इनको इंसाफ देने से इंकार कर दिया। और हम जानते ही हैं कि फिरऔन का अंत विनाश के रूप में हुआ।’
अपने इस सफर के बारे में मेलकॉम आगे बताते हैं- ‘इस दौरान डॉ. आजम के साथ मेरी जो दावत का अनुभव रहा, वह भी यादगार रहा। इस मौके पर जो बातचीत हुई उसमें इस्लाम से जुड़ी कई बातें सीखने को मिली। डॉ. आजम ने मुझे पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के रिश्तेदार और उनके साथियों के बारे में बताया जिनमें गोरे और काले दोनों तरह के लोग शामिल थे।

 एकेश्वरवाद से ही इंसानी एकता और भाईचाराः

मेलकॉम एक्स ने हज के दौरान ही हरलेम में बनी नई मस्जिद के साथियों को पत्र लिखना शुरू कर दिया और पत्र में ही उनसे कहा कि उनके इन पत्रों की कॉपियां करके प्रेस में भी दी जाए। अपने पत्र में मेलकॉम एक्स ने लिखा- ‘मैंने इस पाक सरजमीं मक्का में जैसी सच्ची मेहमाननवाजी और भाईचारा देखा वैसा अन्य कहीं नहीं देखा। यह सरजमीं जहां पैगम्बर इब्राहीम अलै. ने काबा बनाया, मुहम्मद सल्ल. और अन्य  दूसरे पैगम्बरों पर ईश्वरीय आदेश अवतरित हुए। हर रंग और जाति के लोगों में अपनत्व और भाईचारे का भाव और व्यवहार देखकर मैं तो दंग रह गया हूं।

इस पवित्र सफर में जो कुछ मैंने देखा और महसूस किया, उसके बाद मैं अपनी पुरानी विचारधारा और मानसिकता में तब्दीली लाना चाहता हूं। यह मेरे लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि मैं अपने कुछ विचारों में दृढ होने के बावजूद सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार रहता हूं। मैं हठी और जिद्दी नहीं हूं बल्कि सच्चाई को स्वीकारने और इसे अपनाने का लचीलापन मेरे स्वभाव में शामिल है।
पिछले ग्यारह दिनों में मुस्लिम जगत के बीच रहने के दौरान साथी मुसलमानों जिनमें काले लोग, नीली आंखों वाले और गोरी चमड़ी वाले शमिल थे, सबने साथ बैठकर एक थाली में खाना खाया, एक गिलास में पानी पीया। एक कालीन पर सोए और उसी कालीन पर सबने साथ नमाज अदा की। मैंने गोरे मुसलमानों की बातों और व्यवहार में सच्चाई और अपनापन देखा, वही अपनत्व और सच्चाई मैंने नाइजीरिया, सूडान और घना के काले मुसलमानों में देखी। यह सब एक ही अल्लाह की इबादत करते थे और आपस में एक-दूसरे को भाई मानते थे। एक अल्लाह ही के सब बंदे हैं, इसी सोच ने इनके  बीच के फर्क और नस्लीय अभिमान को दूर कर दिया था।’
मेलकॉम आगे कहते हैं- ‘यहां का भाईचारा, समानता और एक दूसरे से जुड़ाव को देखकर मैंने महसूस किया कि अगर अमेरिका के गोरे एक अल्लाह पर यकीन कर लें और इसे मान लें तथा वे सच्ची इंसानी एकता के भाव को अपना लें तो मेरा मानना है कि वे अश्वेत लोगों के  अधिकारों का हनन करने और उन पर जुल्म करना बंद कर देंगे। अमेरिका इस समय नस्लीय और रंगभेद के कैंसर से पीडि़त है जो लाइलाज नजर आता है। अपने आपको ईसाई कहने वाले इन गोरे लोगों को इस नस्लीय बीमारी के इस व्यावहारिक और साबित हो चुके हल को  अपने दिल से अपना लेना चाहिए क्योंकि यही समय है अमेरिका को आने वाले विनाश से बचाने का। ऐसी ही नस्लीय समस्या तो जर्मनी के विनाश का कारण बन चुकी है।’
मेलकॉम कहते हैं- ‘वे मेरे से पूछते हैं कि हज के दौरान किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया? मैंने जवाब दिया-भाईचारा। सभी जगहों और सभी रंगों के लोग एक जगह एक हो गए। इसने मुझे सबूत दे दिया अल्लाह के एक होने का। हज से जुड़ा हर मामला इंसानी भाईचारा व एकता और एक ईश्वर पर जोर देता है।’
मेलकॉम एक्स हज से अलहाज मलिक अल शाहबाज बनकर लौटे। वे अब सच्चे मुसलमान बन गए थे। उनके अंदर एक नई आध्यात्मिक चेतना जागृत हो गई थी।

हज्ज से लौटने के बादः

मेलकॉम एक्स के अमेरिका लौटने पर मीडिया उनके इस बदलाव को जानने को लेकर बेहद उत्सुक था। अमेरिका मीडिया को यकीन नहीं हो रहा था कि जो शख्स लम्बे समय तक गोरे लोगों के खिलाफ अपने भाषण में जहर उगलता हो, आज वही उन गोरों को भाई कहकर पुकार रहा है। मीडिया के इस सवाल पर मेलकॉम एक्स  ने कहा- ‘ आप मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मैंने गोरे लोगों को भाई मान लिया है? मैंने कहा-जैसा कि मैंने हज के दौरान मुस्लिम जगत में देखा और महसूस किया उससे मेरी सोच का दायरा काफी बढ़ा है। वहां मुझे गोरे मुसलमानों का स्नेह, अपनत्व और भाईचारा मिला। उनकी नजर में रंग और नस्ल कोई मायने नहीं रखता।
मेरी इस हज यात्रा ने मेरे दिमाग के पट खोल दिए हैं। इससे मुझे एक नई दृष्टि मिली है। मैंने हज के दौरान जो देखा, ऐसा मैंने पिछले 39 सालों में अमेरिका में नहीं देखा। मैंने वहां सभी जातियों और रंगों वाले लोगों में चाहे वे नीली आंखों वाले हों या काली चमड़ी वाले अफ्रीकी, सभी में भाईचारा और अपनत्व का जज्बा देखा। आपस में जुड़ाव और एकता देखी। सब मिलकर एक जगह और एक साथ इबादत करते थे। पहले मैं सारा दोष गोरे लोगों के सिर मढ़ देता था लेकिन अब मैं भविष्य में इसका मुजरिम नहीं बनूंगा, क्योंकि अब मैं जान गया हूं कि कुछ गोरे खरे हैं और उनमें अश्वेतों के प्रति भाईचारा और अपनत्व का भाव है। सच्चे इस्लाम ने मुझे सिखाया है कि अश्वेतों के मामले में सभी गोरों को दोषी ठहराना गलत है, ठीक इसी तरह गोरों द्वारा सभी अश्वेतों को दोषी ठहराना गलत है।’
काले लोग मेलकॉम को अपना लीडर मानते थे, मेलकॉम ने अब जो नया संदेश दिया वह संदेश उस संदेश के विपरीत था जो वह नेशन ऑफ इस्लाम के प्रचारक के रूप में देता था।
मेलकॉम ने मीडिया से कहा-‘सच्चे इस्लाम से मैंने सीखा है कि इस्लाम के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक संदेश इंसान और समाज को पूर्णता प्रदान करते हैं। मैंने अपने हरलेम स्ट्रीट के बाशिंदों से कहा है कि पूरी मानव जाति जब इस दुनिया के अकेले पालनहार के सामने खुद को समर्पित कर देगी और उसी के बताए नियमों के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारने लगेगी तब ही यह इंसानियत शांति को पहुंचेगी। शांति की बातें तो बहुत की जाती हैं लेकिन इसके लिए कारगर कोशिशें नहीं की जाती।

और उसे मौत की नींद सुला दिया गयाः

मेलकॉम एक्स के इस नए विश्वव्यापी संदेश से अमरीकी प्रशासन में खलबली मच गई। मेलकॉम का यह संदेश ना केवल काले लोगों के लिए था बल्कि वह सभी जातियों और सभी रंगों के बुद्धिजीवियों से अपील कर रहा था और अपनी बात रख रहा था।
पूर्वाग्रह से ग्रसित अमेरिकी मीडिया ने मेलकॉम एक्स के खिलाफ एक मुहिम चलाई और मीडिया ने उसे एक राक्षस के रूप में पेश किया और प्रचारित किया कि वह तो हिंसा की पैरवी कर रहा है, वह जंगजू लड़ाका था।
मेलकॉम जानते थे कि वे कई गिरोहों के निशाने पर हैं। इस सबके बावजूद वे अपने मैसेज को फैलाते रहे और जो कुछ वे कहना चाहते उससे डरते नहीं थे। अपनी आत्मकथा के अंत में मेलकॉम एक्स लिखते हैं-‘ मैं जानता हूं कि कई समाजों ने अपने ही उन रहनुमाओं का कत्ल कर दिया जो उस समाज में अच्छा बदलाव लाना चाहते थे। यदि मेरी कोशिशों और सच्चाई की इस रोशनी से अमेरिका के शरीर पर बनी नस्लीय भेदभाव रूपी कैंसर की गांठ का इलाज होता है और यदि इस जद्दोजहद में मैं मारा भी जाऊं तो मैं इस अच्छाई का करेडिट उस सच्चे पालनहार को दूंगा और इस में रहीं कमियों के लिए जिम्मेदार मैं रहूंगा।’
मेलकॉम एक्स को अपनी हत्या का अंदेशा था,  इसके बावजूद उसने पुलिस सुरक्षा की मांग नहीं की। 21 फरवरी 1965 को जब मेलकॉम न्यू यॉर्क के एक होटल में अपनी एक स्पीच देने की तैयारी कर रहा था, तीन काले आदमियों ने उसकी हत्या कर दी। उस वक्त मेलकॉम एक्स की उम्र तकरीबन चालीस साल थी। माना जाता है कि उसकी हत्या में नेशन ऑफ इस्लाम का हाथ था। कुछ लोगों का मानना है कि उसकी हत्या में एक से ज्यादा गुट शामिल थे। ऐसा भी कहा जाता है कि अमेरिकी जांच एजेंसी एफ बी आई जो काले अमेरिकियों के खिलाफ अभियान की सोच रखती थी, वह भी इस हत्याकाण्ड में शरीक थी।
बावजूद इस सबके मेलकॉम की जिंदगी ने कई अमेरिकियों के तौर-तरीकों को प्रभावित किया। मेलकॉम की हत्या के बाद अफ्रीकन अमेरिकियों में इस्लाम में अपनी जड़ें टटोलने की दिलचस्पी बढ़ी। मेलकॉम की आत्मकथा लिखने वाले एलेक्स हेले ने बाद में ‘रुट्स’ नाम से पुस्तक लिखी। यह पुस्तक एक अफ्रीकन मुस्लिम परिवार के दासी जीवन की गाथा है। स्पाइक ली की फिल्म ‘एक्स’ ने भी मेलकॉम एक्स में लोगों की दिलचस्पी को बढ़ाया है। मेलकॉम एक्स का संदेश आसान और स्पष्ट है- मैं किसी भी तरह की जातिवादी सोच में भरोसा नहीं रखता। किसी भी तरह के नस्लभेद में मेरा यकीन नहीं है। किसी भी तरह के भेदभाव और इंसानियत को बांटने वाली सोच में मैं विश्वास नहीं करता। मेरा ईमान और यकीन इस्लाम में है और मैं मुसलमान हूं।

अंत में हम निम्न में एक ऐसी विडियो प्रस्तुत कर रहे हैं जिस में संसार के प्रसिद्ध विद्वानों के इस्लाम स्वीकार करने की एक सूची दी गई हैः

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