प्रेम एक विचित्र मनोभाव है। इसी मनोभाव के कारण मनुष्य मुश्किल से मुश्किल काम को सरलतापूर्वक कर ले जाता है। इसी अनुराग के प्रति उन्नति तथा प्रगति के कृत्तिका नक्षत्र को प्राप्त करता है, क्यों कि जिस चीज़ से मनुष्य प्रेम करता है उसे अपने प्राण से भी अधिक प्रेम करता है। अपने आप को उस के लिए बलिदान कर देता है। इसी कारण यदि प्रेम अल्लाह से हो तो पूजा बन जाती है, यदि प्रेम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से हो तो अनुसरण का प्रकाश बन जाता है। प्रेम माँ-बाप से हो तो अल्लाह की प्रसन्नता का कारण बन जाता है। अल्लाह तआला सर्व मानव से प्रेम करता है। इसी कारण उसने मानव को एक दुसरे से प्रेम करने की आज्ञा दिया है और तमाम मानव के बीच एक दुसरे पर कुछ ह़ुक़ूक़ एंव अधिकार को अनिवार्य किया है जिसे पूरा करना ज़रूरी है। इन हुकूक और वाजबात में सब से पहला और बड़ा हक़ अल्लाह का है और वह यह कि केवल अल्लाह की उपासना तथा उसी की पूजा की जाऐ और उसके साथ किसी को भागीदार न ठहराया जाए।
एक बार प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मआज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) से प्रश्न किया।
يا معاذ .قلت: لبيك رسول الله وسعديك، قال: هل تدري ما حق الله على عباده , قلت: الله ورسوله أعلم، قال: ( حق الله على عباده أن يعبدوه ولا يشركوا به شيئا) [ صحيح البخاري: رقم الحديث:113512 ]
अर्थ ,,ऐ मआज़ ! , मैं ने कहाः अल्लाह के रसूल हाज़िर हूँ , फरमाईये, आपने कहाः क्या तुम जानते हो कि अल्लाह का अपने दासों पर किया हक़ है ? मैं ने उत्तर दियाः अल्लाह और उस के रसूल अधिक जानते हैं। तो आप ने कहाः अल्लाह का दासों पर हक़ है कि वह केवल अल्लाह की पूजा करें और उस के साथ किसी को उस का साझीदार न बनाऐ ,, (सही बुखारीः 113512 )
यह सर्वप्रथम हक़ अल्लाह का उसके दासों पर है।
दुसरा हक प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का है जिन के शिक्षा के कारण हम ने अपने वास्तविक मालिक को पहचाना है और वह हक यह है कि हम अपने जीवन के हर मोड़ पर प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आज्ञा का पालन करें, जिन चीज़ों के करने का हुक्म दिया है वह करें और जिन चीज़ों से रोका है उस से रुक जाएं यही आदेश अल्लाह तआला ने हमें क़ुरआन में दिया है।
” و ما اتاكم الرسول فخذوه و ما نهاكم عنه فانتهوا ” [ سورة الحشر:7 ]
अर्थः और तुम्हें जो कुछ रसूल दें उसे ले लो और जिस से रोकें रूक जाओ – (सूरः हश्रः 7
तीसरे नम्बर पर हम पर हमारे माता पिता के अधिकार प्रचलित होते हैं। जिन के प्रेम तथा मोहब्बत, मेहनत और लगन , उनकी सेवा और स्वार्थ त्याग के कारण ही हमने अपने व्यक्तित्व को विकसित कर पाए हैं और अल्लाह तआला के बाद हमारे उत्पन्न का कारण भी वह दोनों हैं, इस लिए अल्लाह तथा उस के रसूल के बाद हम पर अपने माता पिता का बड़ा अधिकार और ह़क़ है। यही वजह है कि अल्लाह ने उन के पद को काफी ऊंचा और बुलंद किया है। अल्लाह तआला फरमाता हैः
” و اعبدوا الله و لاتشركوا به شيئا و بالوالدين إحسانا ” [النساء : 36 ]
अर्थः’ और अल्लाह की इबादत करो और उस के साथ किसी को शरीक़ न करो और माँ-बाप के साथ एहसान करो ‘ (सूरः निसाः 36)
इस आयत पर चिंतन मनन करें कि अल्लाह जल्ल शानहु ने अपनी पूजा और उपासना के साथ माता-पिता के साथ उपकार करने का आज्ञा देकर इनसानों को खबरदार किया कि उनके साथ हर प्रकार की भलाई, प्रेम, स्वार्थ त्याग, कृपा का व्यवहार करो।
अल्लाह तआला माता-पिता के पद, श्रेष्ठा, महानता और सम्मान को बढ़ाते हेतू विभिन्न शैली से मानव को संबोधित करता हैं जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है –
” وإذ أخذنا ميثقاق بني إسرآئيل لاتعبدون إلا الله و بالوالدين إحسانا ” [ البفرة:83 ]
अर्थः ” और जब हम ने इसराईल के पुत्रों से वचन लिया कि तुम अल्लाह के सेवाय किसी और की इबादत न करना और माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करना >>
पवित्र क़ुरआन में अन्य स्थान पर अल्लाह तआला फरमाता है –
” و قضى رّبك ألا تعبدوا إلا إيّاه و بالوالدين إحسانا” [ الإسراء :23]
अर्थः ” और तेरा रब खुला हुक्म दे चुका है कि तुम उसके सिवाय किसी दूसरे की अराधना (इबादत) न करना और माता-पिता के साथ अच्छा सुलूक करना
इसी तरह अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि वह माता-पिता के साथ उत्तम उपकार तथा भलाई का बरताव करें जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।
” ووصينا الإنسان بوالديه إحسانا ” [ الأحقاف : 15]
अर्थः और हमने मानव को ताकीद से आज्ञा दिया कि वह अपने माता-पिता के साथ उपकार करें
यदि कोई मनुष्य अल्लाह के वसिय्यत को याद कर के माँ-बाप का आदर और उन का सम्मान करते हुऐ उनकी अधीक सेवा करता है तो अल्लाह उन को अच्छा बदला देगा। परन्तु जो मनुष्य अल्लाह के वसिय्यत को भुला कर माँ-बाप के साथ अशुद्ध व्यवहार करेगा अल्लाह उस अभागी से सख्त प्रशन करेगा।
अल्लाह तआला के पास बन्दो के कर्मों में से प्रिय कर्म माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार है। अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया।
” أي العمل أحب إلى الله ؟ قال : الصلاة على وقتها, قلت ثم أي ؟ قال : بر الوالدين, قلت ثم أي ؟ قال : الجهاد في سبيل الله ” [ صحيح البخاري: رقم الحديث: 117454 ]
अर्थः कौन सा कर्तव्य अल्लाह के पक्षपात प्रिय है ? आप ने उत्तर दियाः नमाज़ के प्राथमिक समय में नमाज़ पढ़ना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः माता-पिता के साथ उत्तम व्यवहार करना , मैं ने कहाः फिर कौन सा ? आप ने उत्तर दियाः अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना (सही बुखारीः 117454-
इस्लाम धर्म ने माता-पिता को सर्वश्रेष्ट पद दिया है और उन को इतना ऊंचा और बुलंद वर्ग पर बैठाया है कि अन्य धर्मों में इसका उदाहरण और तुलना नहीं।
इस्लाम ने माँ-बाप के साथ उपकार और अच्छा स्वभाव को अल्लाह की पूजा और आराधना के बाद का दर्जा तथा पद दिया है।
माता-पिता के कुछ अनीवार्य हुक़ूक़
निःसंदेह माता-पिता का अपने सपूतों पर अन्गिनित हुक़ूक़ तथा उपकार है। कोई भी मानव अपने माँ-बाप का हक़ अदा नहीं कर सकता और नहीं उनके कृपा को गिन सकता है परन्तू उनके कुछ अनीवार्य हुक़ूक़ निम्न में बयान किया जा रहा है।
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माता-पिता के साथ हर हाल में उपकार एंव इहसान करना जैसा कि अल्लाह तआला का आदेश है।
” و وصينا الإنسان بوالديه حسنا ” [ سورة العنكبوت: 8 ]
अर्थः और हम ने हर इंसान को अपने माता-पिता से अच्छा सुलूक करने की शिक्षा दी है।
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माता-पिता के आज्ञा का पालन करना जब तक वह आज्ञा प्रमेशवर के आदेश के प्रतिपक्षी और उनके कथन के विरोधी न हो जैसा कि प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया है।
” لا طاعة لمخلوق في معصية الخالق ” [صحيح الجامع للشيخ الألباني: 7520]
अर्थः अल्लाह की नाफरमानी में किसी बन्दे की आज्ञाकारी उचित नहीं – (सहीहुल जामिअः शैख-अल्बानीः 7520)
उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के कि़स़्स़ा से माता-पिता की बात मान्ने की महत्वपु्र्णता स्पष्ट होती है। उमर फारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपने पुत्र अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) को कहा कि तुम अपनी स्त्री को तलाक़ दो प्रन्तु वह अपने स्त्री से अधिक प्रेम करते थे, उन्हों ने तलाक़ देने से इनकार किया फिर उमर फारूक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से शिकायत किया तो आप नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अपने पिता का कहना मान्ने और स्त्री को तलाक़ देने का आज्ञा दिया फिर अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपनी स्त्री को तलाक़ दे दिया।
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अगर माँ-बाप अल्लाह की नाफरमानी , अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा , उस के साथ किसी को भागीदार बनाने का आज्ञा दे तो उनके आज्ञा का पालन न करना ज़रूरी है किन्तु उनके साथ उत्तम व्यवहार के साथ जीवन बिताना चाहिये जैसा कि अल्लाह तआला का ह़ुक्म है।
” وإن جاهداك على أن تشرك بي ما ليس لك به علم فلا تطعهما و صاحبهما في الدنيا معروفا ” [سورة لقمان: 14 ]
अर्थः और अगर वह दोनों इस बात की अत्यन्त कोशिश करें के तुम मेरे साथ शिर्क करो जिस का तेरे पास ज्ञान नहीं है तो तुम उन दोनों की बात न मानो और संसार में उन के साथ भलाई करते हुऐ जीवन गुज़ारो – (सूरः लुक़मानः 14
इस आयत की स्पष्टिकरण में सा़द बिन अबुल वक्का़स (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इस्लाम लाने का क़िस्सा बहुत ही शिक्षा और नसीहत से भरा है। जब साद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस्लाम स्वीकार किया तो उनकी माँ ने कहाः मैं उस समय तक खाना नही खाऊंगी जब तक तुम इस्लाम छोड़ कर अपने पुर्वज धर्म में लौट न आऔ और उनकी माँ ने खाना-पीना त्याग दिया। साद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने माँ से कहाः ऐ माता , यदि तेरे पास एक सौ प्राण होती और वह एक एक कर के निकलती तब भी मैं इस्लाम नहीं छोड़ूंगा। दो दिन की भूक हडताल के बाद अन्त में उनकी माँ ने खाना-पीना आरंभ कर दिया।
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माँ-बाप की सेवा करना तथा उनका हर प्रकार से ध्यान रखना अल्लाह के मार्ग में जिहाद करने से उत्तम और सर्वश्रेष्ट है जैसा कि अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) बयान करते हैं।
جاء رجل إلى النبي صلى الله عليه وسلم يستأذنه في الجهاد . فقال ” أحي والداك ؟ ” قال : نعم . قال ” ففيهما فجاهد ” . (صحيح مسلم: رقم الحديث :175940)
अर्थः एक आदमी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास अल्लाह के पथ में जिहाद करने के लिए आज्ञा लेने के लिए आया तो आपने प्रश्न किया। क्या तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं ? उसने कहाः जी हाँ, आप ने कहाः तो तम उन दोनों की हृदय की प्रेम के साथ खूब सेवा करो। (सही मुस्लिमः 175940)
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माँ-बाप को बुरा-भला न कहना और नहीं डांटना-फटकारना बल्कि उनके किसी बात पर << हूँ >> तक न कहना जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है।
” إمّا يبلغنّ عندك الكبر أحدهما أو كلاهما فلا تقل لهما أف ولا تنهر هما” [ الإسراء: 23]
अर्थः अगर तुम्हारे पास इन में से एक या यह दोनों बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जायें तो उनको ऊफ तक न कहना और नहीं उन्हें डाँटना – (सूरः इस्राः 23)
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माता-पिता के साथ नीची आवाज़ और इज़्ज़तों एहतेराम से बातचीत करना चाहिये क्योंकि माँ-बाप आदर तथा सम्मान के अधीक हक़दार हैं।
अल्लाह तआला ने भी मानव को इसी की ह़ुक्म दिया है –
” و قل لهما قولا كريما ” [ الإسراء : 23]
अर्थः और उनके साथ आदर तथा सम्मान से बातचीत करो ” (सूरः इस्राः 23)
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उनके साथ हर प्रकार से नरमी करना और प्रेम का स्वभाव करना जैसा के अल्लाह तआला का आदेश है।
” واخفض لهما جناح الذل من الرحمة ” [ الإسراء : 23]
अर्थः << और नर्मी तथा मुहब्बत के साथ उन के सामने इन्केसारी के हाथ फैलाये रखो – (सूरः इस्राः 23
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माता-पिता के लिए अल्लाह से रहमतो-मग़फिरत की दुआ करना, अल्लाह तआ़ला सब लोगों से चाहता है कि लोग अपने लिए, माता-पिता के लिए, सर्व लोगों के लिए अल्लाह से ही दुआ करें और अपने माँ-बाप के लिए बहुत दुआ करें
अल्लाह तआ़ला के इस कथन पर ध्यान पूर्वक विचार करें।
” و قل ربّ ارحمهما كما ربّياني صغيرا ” [ الإسراء : 23]
अर्थः और कहोः ऐ मेरे रब, उन दोनों पर वैसे ही कृपा कर जैसा कि उनहों ने बच्पन में हम पर दया और हमारी पालन पोषन किया। – (सूरः इस्राः 23)
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माता-पिता पर पैसा खर्च करना और उनको जीवन व्यवस्था का सामग्री देना यदि वह मोहताज हों तो अपने पत्नी तथा सपूतों पर उनको तरजीह़ देना जैसा कि प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश से प्रमाणित है।
عن عبدالله بن عمرو بن العاص أن أعرابيا أتى النبي صلى الله عليه وسلم فقال إن لي مالا وولدا وإن والدي يريد أن يجتاح مالي قال: ” أنت ومالك لأبيك إن أولادكم من أطيب كسبكم فكلوا من كسب أولادكم” [ إرواء الغليل:رقم الحديث 148533 ]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आ़स (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से वर्णन है कि एक देहाती नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आया और कहाः बैशक मेरे पास धन-दौलत और बाल-बच्चे हैं। और मेरे पिता मेरा धन-दौलत ले लेते हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दिया << तुम और तुम्हारी धन-दौलत तुम्हारे पिता की चीज़ है। निःसंदेह संतान तेरी उत्तम कमाई है तो तुम अपने संतान की कमाई खाओ >> (इरवाउल-ग़लीलः 148533)
नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के इस कथन से माता-पिता की सेवा , उन पर अपनी संपती खर्च करने का उपदेश मिलता है और उन को हर प्रकार से प्रसन्न रखने का शिक्षण मिलता है।
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यदि माता-पिता पुकारे तो उनकी पुकार पर परस्तुत होना और उनकी जीवन सामग्रियों को पूरा करना यदि नफ्ली नमाज़ पढ़ रहा हो तो उसे छोड़ कर आना ज़रूरी होता है जैसा कि हमें जुरैज आ़बि़द के कि़स्से़ से शिक्षण मिलता है।
عن أبي هريرة أنه قال : كان جريج يتعبد في صومعة. فجاءت أمه فقالت: ياجريج! أنا أمك.كلمني -فصادفته يصلي . فقال: اللهم! أمي وصلاتي فاختار صلاته. فرجعت ثم عادت في الثانية. فقالت: ياجريج ! أنا أمك. فكلمني. قال: اللهم! أمي وصلاتي.فاختارصلاته. فقالت: اللهم! إن هذا جريج. وهو ابني. وإني كلمته فأبى أن يكلمني .اللهم! فلا تمته حتى تريه المومسات-قال:ولو دعت عليه أن يفتن لفتن. قال:وكان راعي ضأن يأوي إلى ديره قال فخرجت امرأة من القرية فوقع عليهاالراعي فحملت فولدت غلاما فقيل لها: ما هذا؟ قالت: من صاحب هذا الدير. قال فجاءوا بفؤسهم و مساحيهم فنادوه فصادفوه يصلي . فلم يكلمهم.قال فأخذوا يهدمون ديره. فلما رأى ذلك نزل إليهم. فقالوا له: سل هذه:قال فتبسم ثم مسح رأس الصبي فقال: من أبوك؟ قال: أبي راعي الضأن. فلما سمعوا ذلك منه قالوا: نبني ما هدمنا من ديرك بالذهب والفضة. قال: لا.ولكن أعيدوه ترابا كما كان.ثم علاه [صحيح مسلم : رقم الحديث:175942 ]
अर्थः अबू-होरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं << जुरैज अपने कुट्या में अराधना (इबादत) करता था तो उसकी माँ आई और कहाः ऐ जुरैज! मैं तुम्हारी माँ हूँ, तुम मुझ से बात करो परन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह ,मेरी माँ और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे और उसकी माता लौट आई फिर दुसरी बार आई और कहा, ऐ जुरैज ! मैं तुम्हारी माता हूँ , तुम मुझ से बात करो परन्तु वे नमाज़ पढ़ रहे थे तो हृदय में विचार किया, ऐ अल्लाह, मेरी माता और नमाज़ फिर वे नमाज़ पढ़ते रहे, तो उसकी माँ ने कहा, ऐ अल्लाह जुरैज मेरा पुत्र है और मैं उस से बात करना चाहती हूँ परन्तु वे बात करना नहीं चाहता, ऐ अल्लाह उसे संभोगिक स्त्री के समक्ष बिना मृत्यु न दे, (रावी कहते हैं) और यदि यौन सम्बंधित की शाप देती तो वे करता! और एक चड़वाहा उसके कुट्या में आता था। तो एक स्त्री ग्राम से निकली और उन दोनों ने यौन सम्बंध किया और औरत गर्भ से हो गई और एक पुत्र जन्म दिया। उस से कहा गया कि यह किस का है? औरत ने उत्तर दियाः यह इस कुटया वाले का है! लोग अपने कुल्हारी और हथौरों से उसके घर को मुन्हदिम करने लगे फिर वह नीचे उत्तरा तो लोगों ने कहा यह क्या है? जुरैज हंसा फिर बच्चे के सर पर हाथ फैरा और कहाः तुम्हारा बाप कौन है? बच्चे ने उत्तर दियाः मेरा बाप चड़वाहा है। तो जब लोगों ने (जन्म हेतू) बच्चे को बोलते हूऐ सूना तो कहा कि हम आप के घर को सोने-चाँदी से बना देंगे तो उसने उत्तर दियाः नहीं, परन्तु जैसा था वैसा ही बना दो।>> (सूरः 175942)
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माता-पिता का उपकार मान्ना और उनके प्रति कृतज्ञ दिखाना जैसा कि आकाश-पृथवी के मालिक का आदेश है।
” أن اشكر لي و لوالديك ” [ سورة لقمان : 14 ]
अर्थः तुम मेरे प्रति कृतज्ञता दिखाओ और माँ-बाप के प्रति कृतज्ञ दिखाओ – (सूरः लुक़्मानः 14)
अल्लाह तआला ने मानव को आज्ञा दिया कि तम मेरे उपकारों का शुक्रीया अदा करो और माता-पिता के इहसानों का शुक्रीया अदा करो क्योंकि वास्तव में तुम जितना भी मेरा फिर अपने माँ-बाप का कृतरज्ञता दिखाओगे तब भी वह कम है।
माता का हक़ पिता के हक से अधिक हैं।
इस्लाम ने माँ-बाप का पद बहुत ऊंचा किया है और उन दोनों के प्रति उत्तम सुलूक और उन दोनों का खूब आदर तथा सम्मान करने का आदेश दिया है। परन्तु उन दोनों में माता का ह़क़ और अधीकार पिता के समक्ष अधिक दिया है क्योंकि माँ ने बच्चे की देख-भाल में काफी कष्ट झेली है। माँ ने संतान के पालन पोषण में बहुत ज़ियादा तकलीफ बर्दाश्त की है। बाल-बच्चे को हर प्रकार के पीड़िता तथा व्याकुलियों से सुरक्षित किया है। माता ने संतान के पालन-पोषण में पिता से अधिक बलिदान प्रत्य्क्ष किया है और बच्चों के लिऐ हर प्रकार का स्वार्थ त्याग दिया है। इस लिऐ इस्लाम ने माँ को अच्छे व्यवहार का ज़ियादा मुस्तह़िक़ क़रार दिया है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथन से प्रमाणित है।
جاء رجل إلى رسول الله )صلى الله عليه وسلم( فقال: يا رسول الله، من أحق الناس بحسن صحابتي؟ قال : ( أمك ) قال: ثم من ؟ قال:) ثم أمك ) قال: ثم من ؟ قال: )ثم أمك ) قال: ثم من ؟ قال: ( ثم أبوك) [ صحيح البخاري : رقم الحديث : 113508]
अर्थः एक आदमी रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आया और कहाः ऐ अल्लाह के रसूल ! कौन ज़्यादा मेरे अच्छे व्यवहार तथा खूब सेवा का ह़क़दार है ? तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दियाः तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारी माँ, उस ने कहाः फिर कौन ? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उत्तर दियाः फिर तुम्हारा बाप।- (सही बुखारीः 113508)
माता-पिता के मृत्यु के पश्चात के अधीकार
श्रीमानः यह कुछ ह़ुक़ूक़ और अधीकार हैं जो माता-पिता के जीवन में ही बच्चों पर अनिवार्य होता है किन्तु कुछ वाजबात तथा अधीकार एंव ह़ुक़ूक़ ऐसे भी हैं जो माता-पिता के मृत्यु के पश्चात भी पूरा करना पड़ता है। जैसा कि प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आदेश से प्रमाणित है।
عن أبي أسيد الأنصاري رضي الله عنه قال: كنا عند النبي صلى الله عليه وسلم فقال رجل: يا رسول الله هل بقي من بر أبوي شيء بعد موتهما أبرهما قال: نعم ، خصال أربع: الدعاء لهما و الإستغفار لهما ، و إنفاذ عهدهما ، و إكرام صديقهما ، و صلة الرحم التي لا رحم لك إلا من قبلهما ” [الأدب المفرد للبخاري]
अर्थः अबू उसैद अन्सा़री (रज़ियल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं कि हम नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास थे कि एक आदमी ने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल! क्या मेरे माता-पिता के मृत्यु के पश्चात भी कुछ अच्छा आचार,व्यवहार है जो मैं उन के साथ करू?, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः << हाँ,चार चीज़ें हैं जो उन की मृत्यु के उपरांत भी किया जा सकता है >>………। (अदबुल मुफ्रदः अल्बुखारी), (जिसे निम्न में विस्तार बयान किया जाता है।)
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उन दोनों के लिए दुआ करना क्योंकि दुआ मरने के बाद भी लाभ पहुंचाती है जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के कथन में आया है
“إذا مات الإنسان انقطع عنه عمله إلا من ثلاثة: من صدقة جارية أوعلم ينتفع به أو ولد صالح يدعو له ” [صحيح مسلم: رقم الحديث: 89269]
अर्थः जब मानव मर जाता है तो उन के सारे कर्म ख़त्म हो जाते हैं सवाय तीन कर्म केः हमेशा रहने वाला दान, या, ज्ञान जिस से लाभ उठाया जाऐ , या, नेक पुत्र जो उन के लिए दुआ करे – (सही मुस्लिमः 89269
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इसी प्रकार माता-पिता के लिए अल्लाह से क्षमा और गुनाहु से माफी मांगना चाहिये जैसा कि अल्लाह के नबी नूह़ (अलैहिस्सलाम) अपने माँ-बाप के लिए अल्लाह से बख्शिश मांगते थे।
“رب اغفر لي و لوالديّ و لمن دخل بيتي مؤمنا و للمؤمنين و المؤمنات ” [ سورة نوح:28 ]
अर्थः ऐ मेरे मालिक , मुझे क्षिमा कर दे और मेरे माता-पिता और मोमिन पुरूषों तथा स्त्रीयों को क्षिमा कर दे- (सूरः नूहः 28)
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माता-पिता के वचन तथा प्ररिक्थ को उन के मृत्यु पश्चात पुरा करना यदि उन पर उधार या कर्ज़ हो तो उसे अदा करना होगा क्योंकि अल्लाह तआला अपने अधिकार और ह़ुक़ूक़ को माफ कर सकता है परन्तु मानव का अधीकार व ह़ुक़ूक़ केवल मानव ही माफ करेगा अल्लाह तआला क्षमा नहीं करेगा। इस लिए अन्य मानव के अधीकार एवं ह़ुक़ूक़ को माता-पिता के मृत्यु के बाद संतान पर वापस करना अनिवार्य है।
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माँ-बाप के मित्रों और साथियों का आदर – सम्मान करना , उन के संबंधियों और नातेदारों के साथ भी उत्तम सुलूक करना और इन सब को अपने शैली के अनुसार सौगात देना है। जैसा कि इस्लाम का आदेश है।
” أن رجلا من الأعراب لقيه بطريق مكة. فسلم عليه عبدالله. وحمله على حمار كان يركبه وأعطاه عمامة كانت على رأسه. فقال ابن دينار: فقلنا له: أصلحك الله! إنهم الأعراب وإنهم يرضون باليسير. فقال عبدالله: إن أبا هذا كان ودا لعمر بن الخطاب وإني سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول ” إن أبر البرصلة الولد أهل ود أبيه “[صحيح مسلم: رقم الحديث :175943]
अर्थः अब्दुल्लाह बिन दीनार कहते हैं कि एक ग्रामीण से भेंट हुई,तो अब्दुल्लाह ने उसे सलाम किया। और जिस गदहे पर बैठे थे वह उसे दे दिया और अपने सर से पगड़ी उतार कर उसे दे दिया। तो इब्ने दीनार ने कहाः अल्लाह आप का भला करे ! निःसंदेह ये ग्रामिक लोग हैं। और ये थोड़ा प्राप्त कर के परसन्न होते हैं। अब्दुल्लाह ने उत्तर दिया, बेशक इस व्यक्ति का पिता उमर बिन खत़्त़ाब का मित्र था और मैं ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को फरमाते हेतू सुना है। – निःसंदेह नेकियों में सब से बड़ी नेकी पुत्र का अपने पिता के प्रेमियों के परीवार वालो के साथ अच्छा व्यवहार करना है। – (सही मुस्लिमः 175943)
इस्लाम ही वह महान धर्म है जिस ने प्रति व्यक्ति को उस का उचित स्थान दिया है और इस्लाम ने माता-पिता का जो स्थान एंव पद दिया है अन्य धर्म इस के बहुत पीछे है।
लाभ जो माता-पिता की सेवा करने से प्राप्त होते हैं।
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यदि आप पितरौं के साथ भलाई तथा उपकार करते हैं तो मानो आप अल्लाह के आज्ञाकारी के पथ पर गमन करते हैं और जो अल्लाह के पथ पर चलेगा अल्लाह उसे महान पुरस्कार देगा।
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माता-पिता जिस व्यक्ति से प्रसन्न होंगे तो अल्लाह भी उस व्यक्ति से खूश होगा जैसा कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन हैं।
”رضى الله في رضى الوالدين ، وسخط الله في سخط الوالدين” [صحيح ابن حبان: 33459]
अर्थः अल्लाह की खूशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है।
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मितरौ के साथ सवच्छ व्यवहार और उनकी निःस्वार्थ सेवा तथा उनके साथ बेहतरीन सुलूक जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश का प्रमाण है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया है।
” الوالد أوسط أبواب الجنة، فإن شئت فأضع ذلك الباب أو احفظه” [سنن الترمذي: 9979]
अर्थः पिता जन्नत के द्वारों में से बीचवला द्वार है तो तुम इसे सुरक्षित करलो या इसे नष्ट कर दो ,,- (सुनन तिर्मिज़ीः 9979
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माता-पिता की खूब खिदमत करना औ हर प्रकार से उन को खूश रख कर उन की दुआ लेना और उन के शाप से संयम रहना, उनका आशीरवाद लेना क्योंकि माँ-बाप की शाप या दुआ संतान के हक़ में अल्लाह स्वीकार करता है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया है।
” ثلاث دعوات لا شك في إجابتهن دعوة المظلوم ودعوة المسافر ودعوة الوالد على ولده” [الترغيب و الترهيب: 198841]
अर्थः – निःसंदेह तीन दुआयें स्वीकार की जाती हैं, नृशंसित (अत्याचार से पीड़ित व्यक्ति) की दुआ और यात्री की दुआ और माँ-बाप की दुआ संतान के बारे में >> (तर्ग़ीब व तर्हीबः 198841)
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माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने पर अल्लाह तआला ऊम्र में ज़ियादती और जीवीका तथा रोज़ी में अधिकता विस्तार करता है। जैसा कि रसूलुल्लाह के फरमान में आता है।
” من سره أن يمد له في عمره ويزاد في رزقه فليبر والديه وليصل رحمه ” [الترغيب والترهيب: 3/293 و سنن الترمذي ]
अर्थः – जिस व्यक्ति को प्रसन्नता प्राप्त हो कि उसे लंबी ऊम्र मिले और उस के रोज़ी में ज़ियादती हो तो वह अपने माँ-बाप के साथ नेकी करे और अपने संबंधियों के साथ उपकार करे – (तर्ग़ीब व तर्हीबः 293/3 , (सुनन तिर्मिज़ी
हानि जो माँ-बाप के अवज्ञा एंव कृतनिंदा करने से प्राप्त होता है।
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माँ-बाप की अवज्ञा और उनकी नाफरमानी महा पापों में से है। जैसा कि रसुलूल्लाह ने फरमाया है।
ألا أنبئكم بأكبرالكبائر. ثلاثا، قالوا : بلى يا رسول الله، قال: الإشراك بالله، وعقوق الوالدين وجلس وكان متكئا، فقال- ألا وقول الزور, قال: فما زال يكررها حتى قلنا: ليته يسكت” [صحيح البخاري: 2654]
अर्थः किया तुम्हें पापों में बड़े पापों के बारे में ज्ञान न दूँ ,तीन बार कहा, आप के साथियों ने उत्तर दियाः क्यों नहीं, ऐ अल्लाह के रसूलः आप ने फरमायाः अल्लाह के साथ किसी दुसरे को साझीदार बनाना और वालिदैन की नाफरमानी करना, और आप टेक लगाऐ थे, बैठ गऐ, तो फरमाया, सुनो, झूटी गवाही देना, (रावी कहते हैं) आप इसे बार बार दोहरा रहे थे यहाँ तक कि हमने (दिल में) कहाः काश कि आप खामूश हो जाते >> (सही बुखारीः 2654)
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यदि माँ-बाप नाराज़,अप्रसन्न हो तो अल्लाह भी नाराज़ होगा।और वह बद बख्त होगा जिस से अल्लाह नाराज़ हो, इसी लिए माँ-बाप की खूब सेवा करके उनको खूश रखें। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया,
” رضى الله في رضى الوالدين، وسخط الله في سخط الوالدين ” [صحيح ابن حبان: 33459]
अर्थः अल्लाह की खुशी माता-पिता की प्रसन्नता में गुप्त है और अल्लाह की अप्रसन्नता माँ-बाप के क्रोध में है। (सही इब्ने हब्बानः 33459)
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जो लोग माता-पिता के साथ अप्रिय व्यवहार करते हैं। उनको कष्ट देते , उन पर अत्याचार करते, उनको सताते हैं। उनकी संतान भी उनके साथ अप्रिय व्यवहार करते, उनको कष्ट देते हैं। और यह बात अनुभव से साबित है। और आप लोग ने भी अन्गनित वाक़ियात देखे होंगे। बेशक जो जैसा बीज बोऐगा, वैसा फल काटेगा, और प्रिय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है।
” بروا آباءكم تبركم أبناءكم …………….” [ الترغيب والترهيب : 3/294 ]
अर्थः अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, तुमहारी संतान तुम्हारे साथ उत्तम व्यवहार करेगी……….. (तर्ग़ीब व तर्हीबः 294/3 )
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जो लोग माँ-बाप के साथ अनुचित व्यवहार और अशुद्ध सुलूक तथा अत्याचार करते हैं। अल्लाह तआला एसे व्यक्ति को संसार में ही अपमानित करता है। वह व्यक्ति लोगों की नज़र में नीच , कमीना और बेइज़्ज़त होता है और मृत्यु के पश्चात भी अल्लाह उसे सख्त दंडित करेगा।
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माता-पिता के अवज्ञा कारी को अल्लाह तआला क़ियामत के दिन कृपा की दृष्टि से नहीं देखेगा और जिस से अल्लाह नज़र मोड़ ले, वह बहुत बड़ा अभागी है। एसे बद नसीब शख्स के बारे में रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन पढ़ेः
” ثلاثة لا ينظر الله إليهم يوم القيامة : العاق لوالديه ، ومدمن خمر ، والمنان بما أعطى ” [كتاب التوحيد لإبن خزيمة: 2/859 ]
अर्थः << क़ियामत के दिन अल्लाह तआला तीन शख्सों की ओर दया की नज़र से नहीं देखेगाः अपने माता-पिता की नाफरमानी करने वाले , खूब दारू पीने वाले , भलाई करके उपकार जताने वाले >> (किताबुत्तौहीदः इब्ने ख़ुज़ैमाः 859/2)
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बरबादी और हलाकत है उस आदमी के लिए जो बूढ़े माता-पिता की सेवा और खिदमत करके जन्नत (स्वर्ग) में दाखिल न हो सका
” رغم أنف ، ثم رغم أنف ، ثم رغم أنف قيل : من ؟ يا رسول الله ! قال : من أدرك أبويه عند الكبر ، أحدهما أو كليهما فلم يدخل الجنة ” [الصحيح لمسلم : 1880 ]
अर्थः उस व्यक्ति का सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति का सत्यानाश हो , फिर उस व्यक्ति का सत्यानाश हो, कहा गया , कौन ? ऐ अल्लाह के रसूल ! आप ने फरमायाः जो अपने माता-पिता में से एक या दोनों को बूढ़ापे की उम्र में पाये और जन्नत में दाखिस न हो सका। (सही मुस्लिमः 1880)
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जिबरील (अलैहिस्सलाम) की धिक्कार और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की धिक्कार उस व्यक्ति पर हो जो बूढ़े माता-पिता को पाये और उनकी सेवा न किया, उनको खूश न कर सका जिस के कारण जहन्नम (नर्ग) में प्रवेश हो गया।
صعد رسول الله صلى الله عليه وسلم المنبر فلما رقي عتبة قال: آمين ثم رقي أخرى فقال: آمين ثم رقي عتبة ثالثة فقال: آمين ثم قال : ” أتاني جبريل عليه السلام فقال: يا محمد من أدرك رمضان فلم يغفر له فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن أدرك والديه أو أحدهما فدخل النار فأبعده الله , فقلت: آمين قال: ومن ذكرت عنده فلم يصل عليك فأبعده الله , قل : آمين فقلت: آمين” [الترغيب والترهيب: للمنذري : 2/406]
अर्थः रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मिंबर पर चढ़े तो जब पहला ज़ीना चढ़े , कहाः आमीन , फिर दुसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर तीसरा ज़ीना चढ़े तो कहाः आमीन , फिर फरमायाः मेरे पास जिबरील (अलैहिस्साम) आये और कहाः ऐ मुहम्मद जो रमज़ान पाये तो उसे माफ नहीं किया गया तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जो अपने माँ-बाप या उन दोनें में से एक को पाये तो जहन्नम (नर्ग) में दाखिल हूआ तो अल्लाह उसे दूर करे , मैं ने कहाः आमीन , जिबरील ने कहाः और जिस के समक्ष आप का नाम आये और आप पर दरूद न पढ़े तो अल्लाह उसे दूर करे , आमीन कहो , तो मैं ने कहाः आमीन। (तर्ग़ीब व तर्हीबः 406/2)
इस्लाम ही वह महान एंव सर्वश्रेष्ठ धर्म है जो हर मनुष्य को उसके उचित स्थान पर रखता है। जब संतान छोटा होता है तब माता-पिता को अल्लाह ने यह आज्ञा दिया कि तुम अपने संतान की अच्छी पालण पोशन करो, उसे उत्तम शिक्षा दिलाओ, उस पर हर प्रकार से ध्यान दो, फिर जब माता-पिता बुढ़ापे की उम्र को पहुंच जाऐ तो उन के साथ भी सर्वश्रेष्ट सुलूक किया जाऐ। उनको हर प्रकार से प्रसन्न रखा जाए। और उन पर अपनी संपती खर्च किया जाऐ । और अपने इस कर्तव्य का पुरूस्कार अल्लाह के पास प्राप्त करे …अच्छा …. या बुरा….