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أكاديمية سبيلي Sabeeli Academy

मैंने इस्लाम क्यों स्वीकार किया ? Why I Accept Islam

मैंने इस्लाम क्यों स्वीकार किया

पिछले दिनों हिंदुस्तान की यात्रा के दौरान अपने क्षेत्र के विभिन्न कस्बों और शहरों में दावती कार्यक्रम आयोजित करने का शुभ अवसर मिला, बिहार की राजधानी पटना में अल-सलाम एजूकेशनल ऐण्ड वेलफियर फाउंडेशन के बैनर तले यहाँ कई मस्जिदों में लेकचर देने का मौका मिला, एक दिन सुबह की नमाज़ के बाद कुरआन का दर्स दिया, दर्स खत्म हुआ तो एक चालीस वर्षीय व्यक्ति से मुलाकात हुई, दर्स सूरः अल-अस्र की व्याख्या पर था जिस में दावत पर ज़ोर दिया गया था, वह काफी प्रभावित थे, कहने लगे, क्या कारण है कि बातिल आज अपने संदेश को फैलाने मैं बहुत चुस्त देखाई दे रहा है लेकिन सच्चे धर्म के मानने वाले बिल्कुल सुस्त हो चुके हैं. हमने उनकी बात का समर्थन किया और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन से पूछा कि इस्लाम को आपके जैसे लोगों की ही जरूरत है जो सोने वालों को जागरूक करें.

कहने लगे: मौलाना! मेरे बारे में अल्लाह से विशेष दुआ करें कि घर में ईमान आ जाये। मैंने कहा: क्या मतलब! घर के सदस्य दीन से दूर हैं? कहने लगेः अभी दीन में तो आये ही नहीं हैं, अल्लाह का शुक्र है कि मैंने कुछ साल पहले इस्लाम स्वीकार किया, इस बीच परिवार और बच्चों के सामने इस्लाम पेश करने की पूरी कोशिश की लेकिन कुछ कारण थे कि वह अब तक इस्लाम के करीब नहीं आ सके थे, लेकिन अभी वह इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार हैं और एक मौलाना ने अगले सप्ताह हमारे घर आकर पत्नी को कल्मा पढ़ाने का वचन दिया है. मैंने उन्हें बधाई दी और पूछा कि क्या आपकी पत्नी इस्लाम से बिल्कुल संतुष्ट हैं, कहने लगे:हाँ! वह इस्लाम स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार हैं, मैंने कहा:तो फिर एक सप्ताह की मोहलत क्यों? यदि उचित समझें तो आज ही उनको कल्मा पढ़ा दिया जाए. वह मेरे परामर्श से सहमत हुये और तै पाया कि रात में ईशा की नमाज़ के बाद उनके घर जाकर पत्नी को कल्मा पढ़ा दिया जाए। प्रतिज्ञानुसार ईशा के बाद वह मिल गए, इस प्रकार हम भाई मुहम्मद इफ्तिख़ार सिद्दिक़ी और मौलाना हबीबुर्रहमान के साथ उनके घर गए, पत्नी ईसाई धर्म पर थीं, हमने सबसे पहले उनकी बातें सुनीं जिन से अनुभव हुआ कि वे इस्लाम को पसंद करती हैं। पति के इस्लाम स्वीकार करने के बाद इस्लाम का अध्ययन किया लेकिन कुछ मुसलमानों के ग़लत व्यवहार से अब तक इस्लाम स्वीकार न कर सकी थीं, उन का कहना था: “मैंने इस्लाम की सच्चाई को उसी समय जान लिया था जबकि मेरे पति ने इस्लाम स्वीकार किया कि मैं उनके अंदर बहुत बड़ा परिवर्तन देख रही थी, पहले बहुत गुस्सा करते थे इस्लाम स्वीकार करने के बाद उनमें बहुत विनम्रता आ गई, उनका व्यवहार बड़ा अच्छा हो गया, हमारे बीच आदर्श व्यक्ति के समान जीवन बिताने लगे लेकिन इसके बावजूद मैं अभी तक इस्लाम से मात्र इसलिए दूर थी कि मेरे पिता की भूमि पर एक मुस्लिम पड़ोसी ने क़ब्ज़ा कर लिया था और अपने नाम सरकारी पेपर बना ली थी, मैं अज्ञानता के कारण समझती थी कि सारे मुसलमान धोखे बाज होते हैं, कभी कभी तो मुझे अपने पति पर भी दया आती थी. “

मैं उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा था, मेरी भावनाओं में हलचल मच रही थी, और इस बात पर रोना आ रहा था कि आज हमारे कुछ मुस्लिम भाई कैसे इस्लाम के रास्ते में बाधा बने हुए हैं. मैं ने कई उदाहरणों द्वारा उन्हें समझाने की कोशिश की कि इस्लाम के महान गुणों और मुसलमानों के आचरण के बीच अंतर को समझें, उसके बाद इस्लाम का परिचय कराते हुए इस्लाम और ईसाइयत का तुलनात्मक अध्ययन पेश किया, फिर उनके कुछ प्रश्न थे जिनके संतोषजनक उत्तर दिए गए तो वह इस्लाम स्वीकार करने के लिए संतुष्ट हो गईं, अंततः उसी समय उन्हें कल्मा शहादत पढ़ा दिया गया.

इस्लाम स्वीकार करने के बाद हमनें उन्हें बधाई दी, और कुछ आदेश बताते हुए कहा कि अब आपको पांच समय की नमाज़ें पढ़नी है, कहने लगीःहाँ बिल्कुल इसके लिए हम तैयार हैं, लेकिन सुबह की नमाज़ के लिए जगना मुश्किल है, हमने पूछा कि आप कितने बजे जगती हैं, कहने लगीं: 6 बजे, हमने कहा उसी समय सुबह की नमाज़ आदा कर लें, (क्यों कि नव-मुस्लिमों के सामने इस्लामी आदेश पेश करने में प्राथमिकता को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।)

इस सभा में हमने अब तक नव-मुस्लिमः से मौखिक अपने पति की बहुत सारी खूबियां सुनीं थीं, इस से पहले हमने स्वयं इस्माइल भाई की भावनायें सुनी थी, इसलिए उचित समझा कि उन से भी वार्ता कर ली जाए, इसलिए हमने उनके इस्लाम स्वीकार करने की कहीनी सुनी, उससे संबंधित बातें कीं, निम्न में हम उन से हुई लंबी बातचीत का सार प्रस्तुत कर रहे हैं:

प्रश्न: सबसे पहले अपना परिचय कराएं?

जवाब: मेरा पैदाइशी नाम जूलियन फ्रांसिस दास है, लेकिन इस्लाम स्वीकार करने के बाद मैंने ‘इस्माइल’ नाम अपनाया है, दक्षणी भारत बेंगलूर के एक रोमन कैथोलिक ईसाई परिवार में पैदा हुआ, उसी धर्म पर रहा, यहां तक ​​कि शिक्षा पूरी करने के बाद व्यवसाय से जुड़ा तो बंगलौर चर्च ऑफ क्राइस्ट जो बंगलौर में ईसाइयों की अति सक्रिय संगठन है, ने मुझे आमंत्रित किया, उनके पास जाने लगा, पादरी अपनी निगरानी में मेरी प्रशिक्षित करने लगा यहाँ तक कि एक दिन मैं उनके धर्म में प्रवेश कर गया और उनकी दावत को बढ़ावा देने में पूरी लगन से लग गया.

प्रश्न: आप किस व्यवसाय से जुड़े हैं ?

उत्तर: पेशे के  हिसाब से मैं दर्जी हूँ, वर्तमान में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में सिलाई की निगरानी में लगा हैं. कंपनी द्वारा विभिन्न देशों और शहरों का दौरा करने का मौका मिला, इन दिनों पटना में रहना हो रहा है.

 प्रश्न: आपके इस्लाम स्वीकार करने की यात्रा कैसे शुरू हुई ?

उत्तर: यह कोई 1992 की बात है, जिस दुकान में काम करता था वह एक मुसलमान की दुकान थी, उसने एक दिन मुझे अहमद दीदात साहब की किताब लाकर दी, जिस में ईसाइयत और इस्लाम की तुलना करके इस्लाम की सत्यता सिद्ध की हुई थी , मैंने पुस्तक पढ़ी तो यह पहला अवसर था जब मैं इस्लाम से प्रभावित हुआ और अपने धर्म के बारे में संदेह में पड़ गया, पुस्तक के पीछे प्रकाशन सूची देखी जिसमें दक्षिण अफ्रीका में अहमद दीदात जी के निमंत्रण केंद्र का पता दिया गया था, मैंने उन्हें पत्र लिखा कि मुझे इस्लाम से सम्बन्धिक कुछ पुस्तकें चाहिएं, अल्लाह तआला उन्हें अच्छा बदला दे कि तुरंत उन्होंने मुझे आवश्यक किताबें भेज दीं, मैं इस्लाम का अध्ययन शुरू कर दिया, अब मैं चर्च जाता तो पासटर से विभिन्न प्रकार के प्रश्न करता, शायद वह मुझे भांप गया था कि मैं उनकी आस्था को चोट पहुंचा रहा हूँ, वह मुझे संदेह की दृष्टि से देखने लगा, अंततः कुछ दिनों के बाद मुझे चर्च से स्थगित कर दिया गया.

1995  में मेरी कंपनी ने मुझे दिल्ली स्थानांतरित किया, एक दिन जामे मस्जिद जाने की सहमति बनी तो वहां से नमाज़ की एक पुस्तक खरीदी और नमाज़ आदि सीखना शुरू कर दिया, अब तक मैं इस्लाम स्वीकार नहीं किया था, लेकिन नमाज़ में मुझे अजीब तरह का सुकून मिलता था इसलिए नमाज़ शुरू कर दी, रमज़ान आया तो रोज़े भी रखे.

इस बीच कंपनी ने मुझे इंडोनेशिया स्थानांतरित कर दिया, मैं अहमद दीदात जी का श्रद्धालु बन गया था, इंटरनेट पर उनका कार्यक्रम नियमित रूप से देखता. इसी तरह कुरआन की तिलावत बहुत शौक से सुनता था, एक दिन अनुवाद सहित कुरआन की तिलाबत सुन रहा था, तिलावत सूरः अर्रहमान की थी, सूर: का संदेश मेरे दिल को छू गया, मुझे सूरः बहुत पसंद आई, और उसे मैंने याद करना शुरू कर दिया, दैनिक दो आयतें याद करता, अंततः कुछ सप्ताहों में पूरी सूरः याद कर ली।

प्रश्न: कुरआन से आपकी रुचि का कारण ?

उत्तर: कुरआन से मेरी रुचि का वास्तव में महत्वपूर्ण कारण है, मुझे गुस्सा बहुत आता था, यहां तक ​​कि अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा करता था, लेकिन एक दिन कुरआन का अध्ययन करते हुए जब इस आयत तक पहुंचा कि स्वर्ग के हकदार वह लोग बनेंगे जो कुछ विशेषताओं से परिपूर्ण होंगे उन में से एक विशेषता हैः وَالْكَاظِمِينَ الْغَيْظَ (सूरः आले इमरान 134) और क्रोध को रोकते है  और गुस्सा को पी जाते हैं। यह आयत मेरे लिए नेक-फाल साबित हुई, मैं उसके बाद स्वयं को प्रशिक्षण देने लगा कि गुस्सा नहीं करूंगा, इस प्रकार मैं अपने आप पर नियंत्रण कर लिया, (पत्नी जो बातचीत में शरीक थी समर्थन करते हुए कहती है कि इस्लाम स्वीकार करने के बाद मैं ने इनके अंदर सब से बड़ा बदलाव यही देखा कि उनका स्वभाव बिल्कुल नरम हो गाया था, अब इनको कुछ भी बोल दो गुस्सा नहीं आता)

 प्रश्न: अभी आप अपने इस्लाम स्वीकार करने से पहले की कहानी सुना रहे थे कि आपने सूरः रहमान को इस्लाम स्वीकार करने से पहले ही याद कर लिया था. फिर इस्लाम स्वीकार करने की सआदत कैसे नसीब हुई ?

उत्तर: एक दिन की बात है, मेरे एक इंडोनेशियन मित्र ने मुझ से कहा कि मैं तुझे इस्लाम से बहुत क़रीब देखता हूँ, तो फिर इस्लाम स्वीकार क्यों नहीं कर लेते, मैंने उस से सारा माजरा सुना दिया और कहा कि वास्तव में मुझे इस्लाम पसंद है लेकिन एक बड़ी बाधा मेरे सामने यह है कि मुसलमानों को इस्लाम से बहुत दूर देखता हूँ, मेरा जन्म कलकत्ता में हुआ, जिस क्षेत्र में रहता था वहाँ अधिकतर मुसलमान थे, उनका सारा काम इस्लाम के खिलाफ था, कुरआन में कुछ पढ़ता हूँ और मुसलमानों को कुछ और देखता हूं, आख़िर मैं वैसा मुसलमान क्यों बनूं ?

इंडोनेशिया का मेरा दोस्त धार्मिक व्यक्ति था, वह मुझ से बहुत करीब हो, अपने घर ले जाता और इस्लाम की बहुत सारी जानकारी देता, उसने मुझे एक दिन समझाया कि तुम मुसलमानों के धर्म को स्वीकार नहीं ना कर रहे हो, अपने पैदा करने वाले अल्लाह के धर्म को अपना रहे हो….जिसने सम्पूर्ण संसार हेतु जीवन बिताने का नियम अवतरित किया है। फिर सारे मुसलमान वैसे नहीं होते, तुम्हें चाहिए कि अगर इस्लाम समझ में आ गया है तो कलमा शहादत की गवाही देकर मुसलमान बन जाओ, अंततः उसकी प्रेरणा पर इस्लाम स्वीकार कर लिया. अल्लाह उसे जज़ाए खैर अता फ़रमाए कि उसने मेरी आंखें खोल दीं. वरना मैं कुछ मुसलमानों के कुकर्मों को देख कर इस्लाम की महान सम्पत्ति से वंचित रह जाता।

प्रश्न: इस्लाम स्वीकार किय हुए कितने साल हो गए?

उत्तर: पूरे चार वर्ष हो गए.

प्रश्न: इस्लाम में आपको सबसे अधिक कौन सी चीज़ पंसद है ?

उत्तर: इस्लाम में सब से अधिक मुझे कुरआन पसंद है, मैं सम्पूर्ण कुरआन को अनुवाद सहित एक बार समाप्त कर चुका हूँ, और दूसरी बात जो मुझे बहुत अधिक पसंद है वह है इस्लाम में इबादत का तरीक़ा, हर मुसलमान के लिए पाँच समय की नमाज़ों पाबंदी अनिवार्य है जिसकी अदायेगी का तरीक़ा भी तार्किक है. जबकि ईसाई धर्म में सप्ताह में एक दिन चर्च जाना होता है और वह भी अल्लाह के साथ शिर्क करने के लिए.

 प्रश्न: आपने अपने परिवार को इस्लाम की ओर दावत देने में क्या भूमिका निभाई है ?

उत्तर: शुरू से मेरी पूरी कोशिश रही कि परिवार वाले इस्लाम स्वीकार कर लें, लेकिन हिकमत के मद्देनजर मैं ने शुरू में अपनी पत्नी को इस सम्बन्ध बताना उचित नहीं समझा, जब बाद में उन्हें सूचना मिल गई तो उन्हें निमंत्रण देना शुरू कर दिया, परन्तु उनके मन में मुसलमानों के प्रति बहुत सारे संदेह थे जिसके कारण वह टाल-मटोल करती रहीं, लेकिन मैं निराश नहीं था, तहज्जुद की नमाज़ में अल्लाह तआला से उनकी हिदायत के लिए दुआ करता था. अल्लाह का शुक्र है कि आज उन्हें हिदायत मिल गई।

पश्नः आपने कहा कि तहज्जुद की नमाज़ में अपनी पत्नी की हिदायत के लिए दुआ किया तो क्या आप तहज्जुद की नमाज़ भी पढ़ते हैं ?

उत्तर: अल्लाह का शुक्र है कि जब से मैंने इस्लाम स्वीकार किया है मुझे नमाज़े तहज्जुद की तौफ़ीक़ मिली रही है. अज़ान से पहले जागना मेरी आदत बन चुकी है. अल-हम्दुलिल्लाह

प्रश्न: आपके बच्चे कितने हैं ?

उत्तर: एक बेटा और एक बेटी है, बेटा 11 वर्ष का और बेटी 9वर्ष की है. दोनों बंगलौर में पढ़ते हैं.

प्रश्न: क्या आप दावत के लिए भी कुछ समय निकालते हैं ?

उत्तर: हर दिन सुबह की नमाज़ के बाद कुरआन की तिलावत करता हूँ, ईमेल द्वारा मुझे दैनिक सही बुखारी से चयनित हदीसें प्राप्त होती हैं, कुरआन की तिलावत के तुरंत बाद उन्हें पढ़ता हूँ, इस तरह अब तक मैं ने चार सौ हदीसें याद कर ली हैं, इसके बाद स्थायी रूप में आधा घंटा ईसाई दोस्तों को इस्लाम परिचय पर आधारित सामग्री भेजने और उनके प्रश्नों के उत्तर देने में लगाता हूं।

प्रश्न: आप सालों से मुस्लिम हैं, जबकि आपकी पत्नी आज इस्लाम स्वीकार की हैं, और दोनों एक साथ रह रहे हैं, इस अवधि में आपकी पत्नी कभी आपके स्वभाव और आपके कामों से नाराज़ नहीं हुईं ?

जवाब: जैसा कि मैंने कहा कि शुरू में मैं ने अपनी पत्नी को इस्लाम स्वीकार करने की सूचना नहीं दी थी, जब उनको मेरे इस्लाम का पता चला तो उनकी प्रतिक्रिया कोई नकारात्मक नहीं रही कि मेरे अंदर असाधारण नरमी आई थी, मैं उनके साथ मामले में पहले से अच्छा बन गया था.

प्रश्न: (इस्माइल भाई की पत्नी जो चर्चा में शरीक थीं, से सवाल) आप बताएं कि जब आपको इस्माइल भाई के इस्लाम स्वीकार करने की सूचना मिली तो आपको कैसा लगा ?

उत्तर: मुझे खेद इस बात से नहीं हुआ कि उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया है लेकिन दुख इस बात पर अवश्य हुआ कि उन्होंने मुझे बताए बिना निर्णय ले लिया. जब कभी उनके साथ कहीं जाना होता, हमारे बीच से निकल जाते और कुछ देर के बाद लौटते, जब तक हम उनके लिए परेशान हो जाते थे, पूछने पर संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता, इसी विधि मुझे बहुत बुरी लगती थी, बाद में पता चला कि उनका हमारे बीच से निकलना नमाज़ के लिए होता था।

उसी प्रकार इस्लाम स्वीकार करने के बाद सोने से पहले कुरआन सुनने की उनकी आदत बन गई थी, कंप्यूटर में डाउनलोड तिलावत खोल देते और सुनते रहते, यहाँ तक कि नींद की आगोश में चले जाते, मुझे इस से परेशान होती थी, कभी आवाज़ के कारण नींद न आती तो रूम से निकल जाती थी, अब तक उनका यही नियम है, लेकिन अब मैं स्वयं इस से मानूस हो चुकी हूं, अब मुझे भी कुरआन सुनना अच्छा लगने लगा है।

 प्रश्न: इस्माइल भाई! मुसलमान भाइयों को क्या संदेश देना चाहेंगे ?

उत्तर: सबसे पहले तो हम यह निवेदन करेंगे कि सही इस्लाम से जुड़ें, अपना ईमान ठीक करें, उसके बाद इबादत से सम्बन्धित गुज़ारिश है, मुझे बहुत दुख होता है कि मस्जिद करीब होने के बावजूद लोग नमाज़ के लिए नहीं आते और अपने घरों में बैठे टीवी के स्क्रीन पर फिल्में देख रहे होते हैं।.

 हमें चाहिए कि आदर्श मुसलमान बनें, जैसा कि सहाबा का आदर्श जीवन इतिहास की पुस्तकों में पढ़ने को मिलती है. जिस तरह उन्होंने इस्लाम के रास्ते में हर प्रकार का बलिदान दिया उसी तरह हमें भी इस्लाम के विकास के लिए बलिदान देना चाहिए. ईसाइयों को देखें कि दावत के क्षेत्र में कितने चुस्त हैं, ड्यूटी खत्म होने के बाद बाईबल हाथ में दबाए सार्वजनिक स्थानों पर पहुंच जाते हैं और जब अवसर मिलता है, बाइबल पढ़कर ईसाइयत का प्रचार शुरू कर देते हैं. दावत के काम में योजना हमें उन से सीखने की जरूरत है।

प्रिय पाठकगण!

आपने इस्माईल भाई और उनकी पत्नी के इस्लाम स्वीकार करने की कहानी पढ़ा और उनकी भावनाओं से परिचित हुए, इस में हम सब के लिए शिक्षा है, सलाह है और प्रेड़णा है कि हम स्वयं को इस्लाम का नमूना बनाएँ और गैर-मुस्लिमों के लिए नमूना बनें, क्या पता कि शायद हम किसी के इस्लाम स्वीकार करने के रास्ते में बाधा बने हुए हों।.

 

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