शान्ति यदि कहीं मिल सकती है तो अल्लाह से सम्पर्क में ही मिल सकती है।
मैं कभी मूर्ति पूजक था, मूर्ति पूजा में इतना आगे बढ़ा हुआ था कि मूर्तियों की प्रशंसा में हमेशा लगा रहता था और दूसरों को भी मूर्ति पूजा की ओर आकर्षित करता था। सुबह सवेरे जागता, मूर्ति की पूजा करता फिर सूर्योदय का इंतजार करता, जब सूर्य निकल जाता तो उसकी भी पूजा करने के बाद ही अपनी ड्यूटी पर जाता था, यही मेरा दैनिक कर्तव्य बन गया था।
जब मैं कुवैत आया तो हिंदू मित्रों के साथ रहता था उन लोगों ने अपने आवास में मूर्तियाँ स्थापित कर रखा था, मैं भी उनके साथ उनकी पूजा करता और सूर्य की पूजा भी करता था. एक दिन की बात है हैदराबाद के एक मुस्लिम दोस्त ने मुझे सूरज की पूजा करते देखा तो आश्चर्य से पूछा:
“क्या कर रहे हो हीरा ?…
मैंने उसकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, वह ज़िद करता रहा और पूछता रहा कि तुम यह क्या कर रहे हो ?
मैं ने कहा: सूर्य की पूजा कर रहा हूं ?
उसने बिना किसी संकोच के मुझ से बोल दिया: सूर्य और चंद्रमा की पूजा मत करो, उस अल्लाह की पूजा करो जिसने सूर्य, चंद्रमा, आकाश, धरती और आसमान बनाया है।
मैंने कहा: मैं भी भगवान की पूजा करता हूँ. उसके विभिन्न नाम हैं जिस नाम से चाहो उसकी पूजा करो, हम हिंदू उसे भगवान कहते हैं और आप लोग उसे अल्लाह कहते हैं, अन्तर सिर्फ नाम का है….सब का उद्देश्य एक ही है ….
मेरे दोस्त ने कहा:अच्छा बताओ! आप किस भगवान की पूजा करते हो ?
मैं ने कहा: कृष्ण जी, शिव जी, शंकर जी, और राम जी की ….!
मेरे दोस्त ने कहा: वह सब तो इंसान थे ना ?
मैं ने कहा: हाँ! इंसान तो थे ….पर…. भगवान उनका रूप धारण करके ज़मीन पर उतरे थे, इसलिए उनकी पूजा ईश्वर की पूजा है।
मेरे दोस्त ने कहा:
हीरा ….यह कैसे होगा कि ईश्वर जो सारी दुनिया का पैदा करने वाला है, जब मानव के मार्गदर्शन का इरादा करे तो स्वयं ही पैदा किए हुए किसी आदमी का वीर्य बन जाए, अपनी ही बनाई हुई किसी महिला के गर्भ के अंधेरी कोठरी में प्रवेश करे, नौ महीने तक वहां कैद रहे, निर्माण के विभिन्न चरणों से गज़रता रहे, खून और मांस में मिलकर पलता बढ़ता रहे, फिर अत्यंत तंग जगह से निकले, दूध पीने की आयु पूर्ण करे, बाल्यावस्था से गुजरते हुए जवान हो, फिर वह भगवान बन जाए? …. फिर क्या ऐसा नहीं कि इंसान के रूप में पैदा होने के कारण लोग उसे इंसान ही मानेंगे? उसके साथ लोग वैसा ही व्यवहार करेंगे जो दूसरों के साथ करते हैं. उसको गालियां सुनना पड़ सकती हैं, झूठे आरोपों में फँसाया जा सकता है. सारांश यह कि इंसान के रूप में आने की वजह से उसको भी वही पापड़ बेलने पड़ेंगे जो किसी मनुष्य को बेलने पड़ते हैं …. क्या इस से उसके ईश्वरत्व में बट्टा न लगेगा? …. साफ बात है कि अल्लाह यकता और बे मिस्ल है, उसके पास माता पिता नहीं, उसके पास औलाद नहीं, उसे किसी की जरूरत नहीं पड़ती और उसका कोई साथी नहीं….. तुम उसी अल्लाह पूजा करो जो सारी दुनिया का निर्माता है।
बात उसी पर समाप्त हो गई, उसके बाद जब भी मेरा वह हैदराबादी मित्र मुझसे मिलता मुझे इस्लाम के बारे में कुछ न कुछ ज़रूर बताता. यहाँ तक कि वह शुभ अवसर और सुनहरा दिन भी आया कि मेरे दोस्त ने मुझे ipc के दाई शैख़ सफात आलम के पास लाकर बैठा दिया था, मेरे दिल में मूर्तियों के प्रति स्नेह और प्यार बहुत था लेकिन अपने अंदर एक खालीपन का अनुभव कर रहा था, मैं तौहीद, रिसालत और आखिरत के दिन के सम्बन्ध में उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनता रहा, यहाँ तक कि मेरे सामने यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि इस्लाम ही हमारा धर्म है और हर युग में संदेष्टाओं ने इसी धर्म का प्रचार किया, अल्लाह तआला ने इस संदेश को अंतिम रूप में अल्लाह के रसूल सल्ल.पर उतारा जिनका संदेश सारी मानवता के लिए था।
उन्हों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आगमन से संबंधित हिंदू धार्मिक ग्रंथों का संदर्भ देते हुए कहा कि आज हिन्दु धर्म में जिस नराशंस और कल्कि अवतार की प्रतिक्षा हो रही है और हिन्दु धर्म के अनुसार जिनको माने बिना मुक्ति न मिलेगी वही मुहम्मद सल्लल्लाहु अवैहि व सल्लम हैं जैसा कि हिन्दु धर्म के बड़े बड़े विद्वानों ने स्पष्ट किया है। इस लिए इस्लाम स्वीकार करना कोई धर्म परिवर्तन नहीं अपितु अपने धरोहर को पाना है। उन्हों ने यह भी कहा कि इस्लाम मानव के पैदा करने वाले का उतारा हुआ अंतिम प्रणाली है, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सारी दुनिया के लिये भेजे गये हैं। यह सुनने के बाद अल्लाह ने मेरा दिल खोल दिया. मैं ने उसी समय कलिमाए शहादत की गवाही दी और इस्लाम स्वीकार कर लिया।
माननीय पाठको! राजिस्थान के निवासी हमारे भाई हीरा लाल (अब्दुर्रहीम) जिनके इस्लाम स्वीकार करने की यह हल्की सी कहानी थी, आज वह हमारे बीच पक्के मुसलमान की हैसियत से जाने जाते हैं, घर के अधिकतर लोग इस्लाम में आ चुके हैं, उन्हें देख कर आपका ईमान ताजा हो जाएगा, मैंने कई बार एकांत में उन्हें अपनी नमाज़ों में रोते हुए देखा है, उनकी नमाज़ें विनम्रता और इतमिनान से परिपूर्ण होती हैं। जब मैं ने एक दिन उन से रोने का कारण पूछा तो उन्होंने मुझे अपने दिल की स्थिति यूं सुनाई थीः
“जब मुझे नमाज़ में रोना नहीं आता तो मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मेरी नमाज़ में कुछ कमी आ गई है।“