हज्ज और क़ुर्बानी के नायक

अभी हज्ज और क़ुर्बानी का त्योहार आ रहा है। हज्ज और क़ुर्बानी का इतिहास क्या है?मुसलमान हज़्ज और क़ुर्बानी क्यों करते हैं। और हज्ज और क़ुर्बानी का वास्तविक अभिप्राय क्या है? इन सब को समझने के लिए सब से पहले हमें हज्ज और कुर्बानी के नायक को समझना होगा तो आइए! सब से पहले हम हज्ज और कुर्बानी के नायक को जानते हैं?


हज्ज इब्राहीम कौन थे ?

इब्राहीम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) आज से अनुमानतः साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व इब्राहीम अलैहिस्सलाम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) इराक़ के शहर “बाबुल” के एक सम्मानित परिवार में पैदा हुए। आप संदेष्टा “नूह” के बेटे “साम” की संतान में से थे। अतिथिगन थे इसी लिए उनकी उपाधि “अबू-ज़ैफान” (अतिथियों वाला) पड़ गई थी।

समाज की धार्मिक स्थितिः

जिस वातावरण में पैदा हुए क़ुरआन ने उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की ओर संकेत किया है जिस से ज्ञात होता है कि उस समय लोग तीन भागों में बटे हुए थे। (1) कुछ लोग चंद्रमा एंव सूर्य की पूजा करते थे। (2) कुछ लोग पत्थर और कंकड़ी से बनाई गई मुर्तियों के सामने झुकते थे। (3) जबकि कुछ लोग उस समय के शासक “नमरूद” की पूजा करते थे।
ऐसे ही अंधकार वातावरण में एक प्रोहित “आज़र” के घर ईब्राहीम अलै0 की पैदाईश हुई। उनके पिता “आज़र” लोहार थे, वह लकड़ी की मूर्ति बनाते, उन्हें बेचते और लोगों को उनकी पूजा की ओर आमंत्रित किया करते थे।

 मूर्तियों की आलोचनाः

समय गुज़रता रहा। इब्राहीम अलै0 बाल्यावस्था ही से मूर्तियों को अप्रिय दृष्टि से देखते, उनकी आलोचना करते और सोचते रहते कि यह मूर्तियाँ न खा सकती हैं, न पी सकती हैं, न बोल सकती हैं, न सुन सकती हैं तो आखिर लोग इनकी पूजा क्यों करते हैं? इन से लाभ की आशा एवं हानि का भय क्यों रखते हैं? यह कैसे लोग हैं जो अपने हाथों से मूर्ति बनाते हैं और फिर कहते हैं कि यह हमारे पूज्य हैं।


पिता जी को दावतः

जब ईश्वर ने इब्राहीम अलै0 को अपने समुदाय की ओर संदेष्टा बनाकर भेजा तो सब से पहले आपने अपने पिता को समझाया कि “पिता जी! आप क्यों उन चीज़ों की उपासना करते हैं, जो न सुनती हैं, न देखती हैं, और न आपका कोई काम बना सकती हैं? पिता जी! मेरे पास एक ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया, आप मेरी बात मानें मैं आपको सीधा मार्ग दिखाऊंगा। पिता जी! आप शैतान की पूजा न करें शैतान तो करुणामय ईश्वर का अवज्ञाकारी है। पिता जी! मुझे डर है कि कहीं आप करुणामय ईश्वर के प्रकोप में ग्रस्त न हो जाएं।” (सूरः19 आयत 42-45)
परन्तु पिता ने एक न सुनी और झटकते हुए कहा “हे इब्राहीम! यदि तू अपने इस काम से न रुका तो मैं तुझे पत्थर से मार मार कर बर्बाद कर दूंगा…..बस यही कहता हूं कि तू हमेशा के लिए मुझ से अलग हो जा”।

चंद्रमा और सूर्य के पुजारियों को दावतः

जब आपको अपने पिता से निराशाजनक उत्तर मिला तो अपने समुदाय के चंद्रमा और सूर्य की पूजा करने वालों को अति तत्वदर्शिता से समझाया, जब रात का अंधकार छा गया तो आपने सब के समक्ष एक सेतारा को देखकर कहा कि यह मेरा भगवान है। परन्तु जब वह डूब गया तो सुबह होते ही कहने लगेः “मैं डूबने वाले की पूजा नहीं कर सकता”। दूसरी रात जब चंद्रमा को देखा तो समुदाय के लोगों से कहने लगेः “यह मेरा भगवान है”। जब वह भी डूब गया तो कहने लगेः “यदि मेरे रब ने मेरा मार्गदर्शन न किया तो मैं पथभ्रष्ट लोगों में से हो जाऊंगा”।
ऐसी शैली मात्र इसलिए अपनाई ताकि समुदाय के लोगों को विश्वास दिला सकें कि आख़िर ऐसी चीज़ों की पूजा से क्या लाभ जो छुपती हों, विदित होती हों, निकलती हों, डूबती हों। पहली रात न समझ सके तो दूसरी रात चंद्रमा को देख कर समझाना चाहा लेकिन फिर भी न समझे तो सुबह में जब सूर्य को निकलते देखा तो कहाः “यह मेरा रब है….यह महान भी है”। फिर जब वह भी डूब गया तो आपने वार्ता समाप्त करते हुए कहाः “हे मेरे समुदाय के लोगो! निःसंदेह मैं तेरे बहुदेववाद से बेज़ार हूं जिन्हें तुम ईश्वर का साझीदार ठहराते हो। मैंने तो एकाग्र हो कर अपना रुख उस सत्ता की ओर कर लिया जिसने आकाश एवं पृथ्वी की रचना की है और मैं कदापि बहुदेववादियों में से नहीं हूं”। (सूरः6 आयत 79-80)


मुर्तिपूजकों को दावतः

फिर आपने मुर्तिपूजकों को समझाते हुए कहाः”यह मात्र लकड़ी और पत्थर की मूर्तियाँ हैं, यह लाभ अथवा हानि की मालिक नहीं, यह तुमको रोज़ी देने का अधिकार नहीं रखते, केवल तुम अल्लाह से ही रोज़ी माँगो, उसी की उपासना करो,और उसी का शुक्रिया अदा करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानते और मुझे झुटलाते हो तो तुम से पहले भी लोग अपने संदेष्टाओं को झुटला चुके हैं। उन्हों ने भी इब्राहीम अलै0 की एक न मानी और बस… यही रट लगाते रहे कि “आखिर हम इनकी पूजा कैसे छोंड़ दें जबकि हमने अपने पूर्वजों को उनकी पूजा करते हुए पाया है?….”
आज भी कुछ लोगों को सत्य संदेश बताया जाता है तो तुरंत यही कहते हैं कि हम ऐसी प्रथा का त्याग कैसे कर सकते हैं जो हमारे पितामह से चली आ रही है। इस लिए आपने उनको संतोष-जनक उत्तर देते हुए कहाः “तुम भी अंधकार में हो और तुम्हारे पितामह भी खुले अंधकार में पड़े थे”। अर्थात हमारी आपत्ति जो तुम पर है वही तुम्हारे पूर्वजों पर है, यदि एक गुमराही में तुम्हारे पूर्वज ग्रस्त हों और तुम भी उसमें ग्रस्त हो जाओ तो वह भलाई बनने से रही। मैं कहता हूं कि तुम और तुम्हारे पूर्वज सत्य मार्ग से भटक गए हो।

अब तो उनके कान खड़े हो गए क्यों कि उन्हों ने अपने बुद्धिमानों का अपमान होते देखा औऱ अपने पूर्वजों के प्रति अप्रिय शब्द सुने तो घबरा गए और कहने लगेः “इब्राहीम! क्या वास्तव में तुम ठीक कह रहे हो या मज़ाक कर रहे हो, हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी”?। अब आपको ईश्वर के परिचय का शुभ अवसर मिलाः आपने कहाः “ईश्वर तो केवल आकाश एवं धरती का सृष्टिकर्ता ही है, प्रत्येक चीज़ों का स्वामी वही है, तुम्हारे यह पूज्य किसी तुच्छ चीज़ के न निर्माता हैं, न मालिक। फिर पूज्य कैसे हो गए? मैं साक्षी हूं कि ईश्वर ही उपासना योग्य है, उसके सिवा न कोई प्रभू है औऱ न पूज्य। उसके बावजूद समुदाय के लोगों पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।

मुर्तियों का इलाजः 

अब ईब्राहीम अलै0 ने अपने दिल में यह ठान ली कि उनकी मुर्तियों का कुछ न कुछ अवश्य इलाज किया जाए। आपने सोचा कि उनके त्योहार का दिन निर्धारित है, उसी दिन यह काम भलि-भांति पूर्ण रूप में सम्पन्न हो सकता है। त्योहार के दिन जब उन से त्योहार में भाग लेने का अनुरोध किया गया तो उन्हों ने कहा कि “मैं बिमार हूं”। जब सब लोग त्योहार मनाने के लिए निकल गए तो एक तेज़ कुल्हारी लिए देवता-वास में प्रवेश किया और प्रत्येक मूर्तियों को टूकड़े टूकड़े कर दी, मात्र बड़ी मूर्ति को रहने दिया ताकि उनके मन मस्तिष्क में यह ख्याल पैदा हो कि शायद बड़ी मूर्ति ने छोटी मूर्तियों को नष्ट कर दिया है।


किसने
हमारी मूर्तियों का अपमान किया?

जब लोग त्योहार से लोट कर आए तो यह देख कर आश्चर्यचकित हो गए कि सारी छोटी मूर्तियां मुंह के बल गिरी हुई हैं। बल्कि उनके पैरों से ज़मीन खिसक गई और कहने लगे कि यह कौन ज़ालिम था जिसने हमारी मूर्तियों का अपमान किया? कुछ लोगों ने कहा कि हमने इब्राहीम को इन पूज्यों के प्रति अपशब्द बोलते सुना है। समुदाय के लोगों ने पारस्परिक परामर्श के बाद यह निर्णय लिया कि सब लोगों के समक्ष इब्राहीम को बुला कर उसे सज़ा दी जाए। अतः जब सब लोग आ गए तो इब्राहीम अलै0 – जो अपराधी के रूप में वहाँ उपस्थित थे – से पूछा गयाः हमारे पूज्यों के साथ यह अपमानजनक कर्म किसने किया है ? उस पर इब्राहीम अलै0 ने कहाः “बल्कि यह काम इस बड़ी मूर्ति ने किया है, तुम अपने इन पूज्यों से ही पूछ लो, यदि यह बोलते हों”। अभिप्राय यह था कि लोग स्वयं समझ लें कि यह पत्थर क्या बोलेंगे, और जब वह इतने विवश हैं तो वह पूज्यनीय कैसे हो सकते हैं?। इस ठोस उत्तर ने उन्हें थोड़ी देर के लिए हिला कर रख दिया, निराशाजनक शैली में कहने लगे कि हमने स्वयं ग़लती की, अपने पूज्यों के पास सुरक्षा-दल रखे बिना त्योहार मानाने चले गए। फिर चिंतन मनन के पश्चात यह बात बनाई कि “तुम जो यह कहते हो कि हम उन से पूछ लें…. तो क्या तुम्हें पता नहीं कि वह बोलते नहीं हैं?….”


धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे उन देवताओं परः

अब इब्राहीम अलै0 को अपने संदेश के परिचय का शुभ अवसर मिल गया, अति दयालू होने के बावजूद तनिक ठोस स्वर में उनको सम्बोधित कियाः “खेद है कि तुम उनकी पूजा करते हो जो न तुम्हें कुछ भी लाभ पहुंचा सकें, न हानि। धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे उन देवताओं पर जिनकी तुम ईश्वर को छोड़ कर पूजा करते हो, यह तो गूंगे और बहरे हैं, बोलने तक की क्षमता से वंचित हैं तो तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे, क्या तुम कुछ भी बुद्धि नहीं रखते?”


आग में जला डालने की योजनाः

नियम यह है कि जब एक व्यक्ति प्रमाण से निरुत्तर हो जाता है तो भलाई उसे घसेट लती है अथवा बुराई उसपर अधिकार प्राप्त कर लेती है। यहाँ उन लोगों को उन के दुर्भाग्य ने घेर लिया और अपने दबाव का प्रद्रशन करने के लिए ईब्राहीम अलै0 को आग में जलाने का लिर्णय ले बैठे। लकड़ियाँ एकत्र की गईं, पृथ्वी में एक गहरा कुवां खोदा गया, लकड़ियों से उसे भर दिया गया। फिर उसमें आग लगा दी गई। आसमान से बातें कर रही अग्नि में ईब्राहीम अलै0 को डाल दिया गया। जिस समय आपको अग्नि में डाला गया आपने मात्र यह शब्द बोला कि “अल्लाह हमारे लिए काफी है और वह उत्तम सहायक है”। उसी समय ईश्वर की ओर से अग्नि को आदेश मिला कि “हे आग! ठण्डी हो जा और सलामती बन जा इब्राहीम पर” हर ओर से अग्निशिखा निकल रही थी परन्तु आग ने आपको छुआ तक नहीं और वह अहानिकारक बन कर रह गया।

सम्राट को दावतः

अग्नि से सुरक्षित निकलने के बाद आपका प्रचा हर ओर हो चुका था। ईश्वरीय संदेश भी सारे कानों तक पहुंच गया था। केवल वहाँ के सम्राट तक न पहुंच सका था। अतः आप इसी उद्देश्य से वहां के शासक “नमरूद” के पास आए जो स्वयं को परमेश्वर सिद्ध करता था। उसके मन मस्तिष्क में अहंकार और घमण्ड कूट कूट कर भरा हुआ था। उसने जब ईब्राहीम अलै0 से ईश्वर के अस्तित्व पर प्रमाण मांगा तो आपने कहाः “मेरा प्रभू वह है जिसके अधिकार में जीवन और मृत्यु है”। उसने कहाः ज़िन्दगी और मौत मेरे अधिकार में हैं फिर उसने दो व्यक्तियों को बोलाया जिसमें से एक का खून वैध था उसे मार दिया और दूसरे को छोड़ दिया फिर कहाः“देखा! मैं जीवन औऱ मृत्यु पर अधिकार रखता हूं ना?” जब इब्राहीम अलै0 ने उसकी बुद्धि की यह दुर्बलता देखी तो उसके समक्ष ऐसा प्रमाण पेश कर दिया कि शक्ल में भी उसके समान कुछ न कर सके। आपने कहाः अच्छा! ईश्वर सूर्य को पूर्व से निकालता है तू तनिक उसे पश्चिम से निकाल ला” इसका कोई ज़ाहिरी टूटा फूटा उत्तर भी उस से न बन सका और वह चुप साधे बगलें झांकने लगा।

देश-त्याग का निर्णयः

अब इब्राहीम अलै0 का चर्चा पूरे देश में हो चुका था, लोग उनके चमत्कार और अग्नि से सुरक्षित निकलने के प्रति बातें करने लगे थे, सम्राट के साथ उनका व्यवहार और उसे विवश करने का मआमला प्रचलित होने लगा था। इधर इब्राहीम अलै0 ईश्वरीय संदेश को फैलाने में प्रयत्नशील थे। प्रतिदिन विरोध में वृद्धि हो रही थी। मात्र एक महिला और एक पुरुष ने उनके संदेश को स्वीकार किया था। महिला का नाम सारा था जो बाद में उनकी पत्नी बनीं और पुरुष लूत अलै0 थे जो बाद में ईश्वरीय संदेष्टा नियुक्त किए गए। जब इब्राहीम अलै0 के समक्ष यह विदित हो गया कि ईश्वरीय संदेश को कोई अपनाने वाला नहीं रहा तो देश-त्याग का निर्णय कर लिया। परन्तु देश-त्याग से पूर्व अपने पिता को इस्लाम का संदेश पहुंचाया पर पिता तो कट्टर बहुदेववाद था, वह कब बेटे की बात मानता। इस प्रकार आप उन से प्यार भरे शैली में बात करने के बाद लूत और अपनी पत्नी सारा को साथ लिए वहाँ से निकल गए। शाम, हारान से होते हुए फलस्तिन पहुंचे, फिर मिस्र गए।

मिस्र में चमत्कारिक घटनाः

मिस्र में पहुंचने के पश्चात एक चमत्कारिक घटना पेश आई, जिसका संक्षिप्त यह है कि जब आप मिस्र पहुंचे तो वहाँ का सम्राट बड़ा अत्याचारी था। किसी ने मस्राट को सूचना दी कि एक यात्री के साथ बड़ी सुन्दर महिला है और वह इस समय हमारे देश में है। सम्राट ने तुरन्त सेनिक भेजा कि वह हज़रत सारा को उसके पास उपस्थित करे। हज़रत सारा वहाँ से चलीं, और इधर इब्राहीम अलै0 नमाज़ में खड़े हो गए। जब हज़रत सारा को अत्याचारी महाराजा ने देखा और उनकी ओर लपका तो तुरन्त ईश्वरीय प्रकोप में ग्रस्त हो गया। हाथ, पैर ऐंठ गए। भयभित होकर विन्ती करने लगाः हे पवित्र महिला! ईश्वर से प्रार्थना कर कि वह मुझे क्षमा कर दे, मैं वचन देता हूं कि फिर तुझे हाथ न लगाऊंगा। आपने प्रार्थना की, उसी समय वह अच्छा हो गया।परन्तु अच्छा होते ही उसने फिर उनकी ओर हाथ बढ़ायाः वही प्रकोप फिर आ पहुंचा, और यह पहली बार से अधिक कठोर था। फिर उसने विन्ती की और हाजरा की प्रार्थना से ठीक हो गया। तात्पर्य यह कि तीन बार ऐसा ही हुआ। तीसरी बार छूटते ही अपने सैनिक को आदेश दिया कि तू इसे यहाँ से निकाल और हाजरा (जो सम्राट की सेविका थी) को इसकी सेवा के लिए इसके साथ कर दे, यह कोई इनसान नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा है। उसी समय सारा वहाँ से निकाल दी गईं और हाजरा उनके समर्पित की गईं। ईधर हज़रत इब्राहीम अलै0 उनकी आहट पाते ही नमाज़ से छूटे और पूछा कि कहोः क्या गुज़री? कहा कि अल्लाह ने उस अत्याचारी के प्रतारण को उसी पर लौटा दिया और हाजरा मेरी सेवा के लिए आ गईं।

इस्माईल की पैदाइशः

इस प्रकार उत्तरोत्तर संकटों और परीक्षाओं में इब्राहीम अलै0 की आयु 80 वर्ष की हो गई। अब तक इब्राहीम अलै0 को कोई संतान न हुई थी, हृदय में संतान की इच्छा हचकोले खा रही थीं। अतः हज़रत सारा के अनुरोध पर आपने हाजरा से विवाह कर लिया। फिर ईश्वर से प्रार्थाना की कि ” हे प्रभू!तू मुझे एक बेटा प्रदान कर जो नेकों में से हो”।

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़ति-परवाज़ मगर रखती है

अतः प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और हज़रत हाजरा अलै0 के गर्भ से इस्माइल अलै0 पैदा हुए।

हाजरा और इस्माईल मक्काम में:

बुढ़ापे में शिशु पा कर इब्राहीम अलै0 का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा परन्तु दूसरी ओर अल्लाह की ओर से परिक्षाओं का क्रम शुरू हो गया। इब्राहीम अलै0 को आदेश मिला कि अपनी पत्नी हाजरा और अपने प्यारे बेटे इस्माईल को मक्का के मरुस्थल पर रख आइए। आदेशानुसार बिना किसी संकोच के अपने पुत्र इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को लिए मक्का के रेगिस्तान में पहुंच गए। खानपान के लिए कुछ खुजूर और जल वहाँ रख दिया और लौटने के लिए मुड़े। पत्नी तेज़ी से उनके पीछे लगी और बोलीः इब्राहीम! आप इस रेगिस्तान में हमें छोड़ कर कहाँ जा रहे हैं? कोई उत्तर नहीं मिल रहा है, बिल्कुल छुप हैं, चलते जा रहे हैं और यह पूछती जा रही हैं। अंततः ध्यान आता है कि शायद ईश्वर का आदेश है। पूछती हैं “क्या आपको अल्लाह का आदेश मिला है?” उत्तर मिलता हैः हाँ। विश्वसनीय पत्नी यह सुनते ही बोल उठती हैं “जब अल्लाह का आदेश है तो वह अवश्य हमारी सुरक्षा करेगा” इब्राहीम अलै0 चले यहाँ तक कि एक पहाड़ की ओट में आ कर खड़े हुए, अपना दोनों हाथ आसमान की ओर उठाया और ईश्वर से प्रार्थना कीः “हे मेरे प्रभू! मेंने एक निर्जल और ऊसर घाटा में अपनी सन्तान के एक भाग को तेरे प्रतिष्ठित घर के पास बसाया है। प्रभू! यह मैंने इस लिए किया है कि यह लोग यहाँ नमाज़ स्थापित करें, अतः तू लोगों के दिलों को इनका इच्छुक बना,औऱ इन्हें खाने को फल दे,शायह कि यह कृतज्ञ बनें” (इब्राहीम सूरः 14 आयत 37)

ज़मज़म का जारी हो गयाः

तात्पर्य यह कि इब्राहीम अलै0 लौट चुके हैं। हाजरा अलै0 अपने दूध पीते शिशु के साथ निर्जल स्थान पर निवास की हुई हैं। दो दिन के पश्चान खान-पान की सामग्री समप्त हो जाती है। माँ का स्तन भी सूखा जा रहा है। हाजरा और इस्माइल प्यास से विकल हैं, अति कठोर और गंभीर परिस्थिति है। प्यास से इस्माइल तड़प रहे हैं, माता जल की खोज में इधर उधर दौड़ लगा रही है। कभी तेज़ी से सफ़ा पर्वत पर चढ़ती हैं कि शायद कोई कुवाँ, मानव, अथवा यात्रीदल देखाई दे परन्तु कुछ नहीं देखती हैं। सफ़ा से उतर कर मर्वा तक दौड़ती हुई जाती हैं, मर्वा पर चढ़ती हैं कि शायद कोई दिखाई दे पर दूर दूर तक किसी का पता नही हैं….थक हार कर शिशु के पास आती हैं, बच्चा प्यास की सख्ती से तड़प रहा है। व्याकुलता की स्थिति में तेज़ी से सफ़ा की ओर आती हैं. फिर मर्वा की ओर दौड़ती हैं, इस प्रकार जाते और लौटते हुए सात चक्कर काट लेती हैं। हाजरा की इसी स्मृतिचिन्ह को हज तथा उमरा में सफ़ा और मर्वा का सात चक्कर लगा कर ताज़ा किया जाता है। तात्पर्य यह कि सातवीं बार हाजरा अलै0 व्यकुल, थकी हारी और निराशाजनक शिशु के पास बैठ जाती हैं। रोते रोते और प्यास की कठोरता से आवाज़ बैठी जा रही थी। इसी स्थिति में ईश्वरीय दया उमडती है, इस्माइल रोते हुए पृथ्वी पर पैर पटखते हैं तो पैर के नीचे से ज़मज़म स्रोत जारी हो जाता है। इस प्रकार माँ और बेटा दोनों मृत्यु के मुंह से निकल आते हैं।

इस्माईल की बलिः

फिर क़ुरआन के बयान के अनुसार जब इस्लामाइल अलै0 चलना फिरना सीख गए और “फर्रा” के कथनानुसार जब 13 वर्ष के हो गए तो इब्राहीम अलै0 का परीक्षा आरम्भ हुआ। स्वप्न में आदेश दिया गया कि अपने प्यारे बच्चे इस्माइल को अल्लाह के नाम पर बलि दे दो। प्रिय मित्रो! तनिक चिन्ता मनन से काम लीजिए और देखिए कि कितनी इच्छाओं के बाद बच्चा पैदा हुआ था, मानो आँखों की ठण्डक, जिगर का टुकड़ा और बढ़ापे की लाठी है। परन्तु इधर ईश्वर का आदेश था… अपने बच्चे के पास आते हैं और कहते हैं “बेटा मैं सवप्न में दखता हूं कि मैं तुझे ज़बह कर रहा हूं? अब तू बता तेरा क्या विचार है….? आदेशापालक बेटा तुरन्त उत्तर देता हैः “पिता जी! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है उसे कर डालिए, आप यदि अल्लाह ने चाहा तो हमें सब्र करने वालों में से पाएंगे”। फिर वह समय आता है कि मेना कि ऐतिहासिक रेगिस्तानी धरती पर इब्राहीम अलै0 अपने पुत्र इस्माइल मुख के बल लिटा चुके हैं। इब्राहीम अलै0 का चाकू इस्माइल की गर्दन पर बराबर चल रहा है लेकिन चाकू काट नही रहा है क्योंकि एक ओर यदि इब्राहीम को आदेश मिला था कि अपने पुत्र को ज़बह करो तो दूसरी ओर चाकू को आदेश मिला था कि तुम कदापि न काटना…चाकू भी तो ईश्वरीय आदेश के अधीन है….वह अपना प्रभाव देखाए तो कैसे…? ईश्वरीय तत्वदर्शीता को समझना सरल नहीं, अतः ईश्वर ने अपनी तत्वदर्शीता का रहस्य खोलते हुए आकाशीय दूत जिब्रील अलै0 के माध्यम से एक मेंढ़ा भेज दिया और इस्माईल के बदले उस मेंढ़ा को ज़बह करा कर फरमायाः हे इब्राहीम!तूने स्वप्न सच कर दिखाया, हम सत्कर्मियों को ऐसा ही बदला देते हैं”।

क़ुरबानी की यादगारः

यही वह इब्राहीमी यादगार है जिसको सम्पूर्ण संसार के मुसलमान हर वर्ष ईदे-क़ुर्बाँ के अवसर पर जानवर की क़ुर्बानी की शक्ल में ताज़ा करते हैं। अभी कुछ देर पहले हमने बताया है कि जिस समय ईब्राहीम ने अपने बच्चे इस्माइल और अपनी पत्नी हाजरा को मक्का में बसाया था उस समय वह स्थान सर्वथा रेगिस्तान और निर्जल था। कुछ अवधि के पश्चात बनू-जुर्हुम का एक यात्रीदल वहाँ से गुज़रा। पानी देखा तो वहीं ठहर गए। इस प्रकार वहाँ कई घर आबाद हो गए। इब्राहीम अलै0 अपनी पत्नी और अपने प्यारे बच्चे से भेंट करने के लिए मक्का आया करते थे।

काबा का निर्माणः

एक बार उन्होंने अपने बेटे से कहा कि मुझे अल्लाह ने अपना घर बनाने का आदेश दिया है। इस प्रकार इब्राहीम और इस्माइल ने मिल कर काबा का निर्माण किया। इब्राहीम अलै0 निर्माता थे और इस्माइल अलै0 उनकी सहायता करते थे। निर्माण के बीच जिब्रील स्वर्ग से हज्रे-अस्वद ले कर आए। इब्राहीम अलै0 ने उसे उसकी मौजूदा जगह पर रख दिया। फिर आपने ईश्वरीय आदेशानुसार हज्ज की घोषणा की…. वह स्वर जो मरुस्थल में इब्राहीम अलै0 के मुख से निकला था, हर ईश्-भक्तों के कानों तक पहुंचा…और आज तक उसी का प्रभाव है कि संसार के कोने कोने से लोग आकर्शित उसकी ओर आ रहे हैं।

यही वह हज है जो इस्लाम के पाँच मूल स्तंभों में से एक है। जो हर आर्थिक सामर्थ्य रखने वाले मुसलमान पर जीवन में एक बार अनिवार्य है।

 

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