क़ुरबानी करने का महत्व और उसके शिष्टाचार

क़ुरबानी के जानवरक़ुरबानी करना अधिक तर विद्वानों के पास सुन्नते मुअक्किदा है।

अल्लाह तआला ने प्रिय नबी (सल्ल) को क़ुरबानी करने का आदेश दिया है और क़ुरबानी करने पर उत्साहित किया है। जैसा कि अल्लाह का फरमान हैः

فَصَلِّ لِرَ‌بِّكَ وَانْحَرْ‌

अतः तुम अपने रब्ब ही के लिए नमाज़ पढ़ो और (उसी के लिए) क़़ुरबानी करो। (सूरह कौसरः 2)

रसूल (सल्ल) मदीना मुनव्वरा में दस सालों तक निवास किया और प्रत्येक वर्ष आप (सल्ल) ने क़ुरबानी किया और जो लोग आर्थिक क्षमता प्राप्त होने के बावजूद क़ुरबानी नहीं करते, ऐसे लोगों को सजा देते हुए फरमाया कि वह ईदुल्-अज़्हा की नमाज़ पढ़ने के लिए हमारी ईदगाह में न आए। रसूल (सल्ल) का फरमान हैः

مَنْ وجدَ سَعَةً لأنْ يُضَحِّيَ فلمْ يُضَحِّ، فلا يَحْضُرْ مُصَلانا. (صحيح الترغيب: الألباني: 1087

जो व्यक्ति आर्थिक क्षमता होने के बावजूद क़ुरबानी नहीं करता, ऐसे लोग हमारी ईदगाह में न आए। (सही अत्तरगीबः 1087, इमाम अलबानी ने सही कहा है।)

क़ुरबानी का दिन अल्लाह के पास सब से महान और प्रिय दिन है। जैसा कि नबी (सल्ल) ने खबर दिया है।

إنَّ أعظمَ الأيَّامِ عندَ اللَّهِ تبارَكَ وتعالَى يومُ النَّحرِ ثمَّ يومُ القُرّ. (صحيح أبي داؤد: 1765

नबी (सल्ल) ने फरमायाः अल्लाह तबारक व तआला के पास सब से महान दिन क़ुरबानी का दिन है फिर मिना में ठहरने का दिन है। (सही सुनन अबी दाऊदः 1765)

ईद की नमाज़ अदा करने के बाद सब से उत्तम और बेहतरीन कार्य अल्लाह की खुशी के लिए क़ुरबानी करना है। क़ुरबानी करने में एक मुस्लिम निःस्वार्थ हो और अल्लाह की खुशी प्राप्त करने का इच्छुक हो, दिख्लावा और घमंड और मश्हूर होने का ख्याल दिल तथा दिमाग में तनिक भी न लाए। क्योंकि इस से मानव का नेक कर्म विनाश और अकारथ हो जाता है।

अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है मानव जिस हृदय और प्रेम और अल्लाह के आज्ञानुसार क़ुरबानी करता है, वही चीज़ अल्लाह को पहुंचती है। अल्लाह का फरमान हैः

لَن يَنَالَ اللَّـهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَاؤُهَا وَلَـٰكِن يَنَالُهُ التَّقْوَىٰ مِنكُمْ ۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرَ‌هَا لَكُمْ لِتُكَبِّرُ‌وا اللَّـهَ عَلَىٰ مَا هَدَاكُمْ ۗ وَبَشِّرِ‌ الْمُحْسِنِينَ. (سورة الحج: 37

” न उनके माँस अल्लाह को पहुँचते है और न उनके रक्त।किन्तु उसे तुम्हारा तक़वा (धर्मपरायणता) पहुँचता है। इस प्रकार उसने उन्हें तुम्हारे लिए वशीभूत किया है, ताकि तुम अल्लाह की बड़ाई बयान करो, इस पर कि उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया और सुकर्मियों को शुभ सूचना दे दो।” (सूरः अल-हजः 36)

इस लिए अल्लाह तआला की खुशी के लिए क़ुरबानी करना चाहिये। दिख्लावा और नाम पर्वरी से दूर रहना ही कामयाबी की गारेन्टी है।

निम्न में क़ुरबानी के कुछ शिष्टाचार बयान किया जाता है।

1- क़ुरबानी का एक जानवर या एक हिस्सा अपने और अपने परिवार वालों की ओर से किया जा सकता है और उसी में जीवित लोगों के साथ मृतकों को भी शामिल किया जा सकता है। (सुनन तिर्मज़ी)

2- यदि कोइ अपनी मृत्यु से पहले क़ुरबानी करने का किसी को आदेश देता है, तो उसे पूरा किया जाएगा।

3- जिस व्यक्ति को क़ुरबानी करने का इरादा हो, उस के लिए श्रेष्ठ है कि ज़िल्हिज्जा का चांद देखने के बाद क़ुरबानी करने तक अपना बाल और नाख़ुन न काटे।

4- सुन्नत है कि आदमी अपना जानवर स्वयं करे, यदि किसी कारण स्वयं क़ुरबानी न कर सके, तो ज़बह के समय वहाँ अवश्य उपस्थित रहे।। महिला भी अपने हाथ से क़ुरबानी कर सकती है। (सही बुखारीः 5502)

5- ईद की नमाज़ के बाद ही क़ुरबानी का पशू ज़बह किया जाएगा। यदि कोइ ईद की नमाज़ के पहले ही जानवर ज़बह कर दिया, तो वह क़ुरबानी शुमार नहीं होगा, बल्कि उसकी जगह दुसरा जानवर ज़बह करे, प्रथम जानवर का गोश्त साधारण गोश्त कहलाएगा, क़ुरबानी का नहीं। (सही बुखारीः 5545)

6- क़ुरबानी का पशू किसी भी प्रकार के बड़ी कमी और नक्स से पवित्र हो। जैसा कि हदीस में वर्णन हैः नबी (सल्ल) ने फ़रमायाः “ क़ुरबानी में चार प्रकार के पशु जाइज़ नहीं। काना जानवर जिसका कानापन ज़ाहिर हो, बीमार जिसकी बीमारी ज़ाहिर हो, लंगड़ा जिसका लंगड़ापन ज़ाहिर हो और अति पतला दुबला जिसके शरीर में गोश्त न हो।” (सुनन अबी दाऊदः 2802)

7- एक व्यक्ति और उस के परिवार की ओर से क़ुरबानी में एक बकरा या दुन्बा और एक गाए और ऊंट में सात लोगों की ओर किया जा सकता है। दुसरी रिवायत में एक ऊंट में दस लोग भी शरीक हों सकते हैं।

8- ईदगाह से वापस आने के बाद नबी (सल्ल) क़ुरबानी करते थे और उस का गोश्त खाते थे। (सही बुखारीः 985)

9- क़ुरबानी का पशू ज़बह करने से पहले चाकू और छुरी खूब अच्छी तरह से तेज कर लेना चाहिये और पशू के सामने चाकू तेज़ करना मना है। (सही मुस्लिमः 1955)

10– क़ुरबानी करने की दुआः क़रबानी करने की जो दुआ ज़्यादा तर लोगों में प्रचलित है, उस के नबी (सल्ल) से प्रमाणित होने में बहुत मतभेद है और अधिक तर हदीस शास्त्र ने उसे जईफ करार दिया है। बल्कि नबी (सल्ल) से यह प्रमाणित है कि आप (सल्ल) ने दो दुंबा अपने मुबारक हाथों से ज़बह किया और बिस्मिल्लाह और अल्लाहु अक्बर फरमाया और जबह करते समय अपने एक पाँव को दुंबे के गर्दन और सीने के बीच के हिस्से पर रखा। ज़बह करने के बाद यह दुआ पढ़ाः

باسمِ الله، اللهم تقبل من محمدٍ وآلِ محمدٍ، ومن أُمَّةِ محمد. (صحيح مسلم: 1967

बिस्मिल्लाह और अल्लाहु अक्बर, अल्लाहुम्मा तकब्बल मिन मुहम्मदिंव व आले मुहम्मद, व मिन उम्मति मुहम्मद।

अल्लाह के नाम से ज़बह किया हूँ। ऐ अल्लाह! तू इसे मुहम्मद और मुहम्मद के परिवार और मुहम्मद की उम्मत की ओर से स्वीकार कर। (सही मुस्लिमः 1967)

अतः जानवर ज़बह करने वाले जिन की ओर से क़ुरबानी कर रहा है, बिस्मिल्लाह और अल्लाहु अक्बर, अल्लाहुम्मा तकब्बल मिन……. के बाद उनका नाम लेगा और यदि एक से ज़्यादा से लोगों की ओर से ज़बह कर रहा है, सब का नाम ले और उनके परिवार वाले को भी शामिल कर ले।

11- क़ुरबानी करने वाले के लिए उत्तम है कि उस का गोश्त स्वंय खाये, अपने रिश्तेदारों को खिलाये और निर्धनों में बांट दे। यदि कोई गोश्त को तीन भागों में विभाजित कर के उसका एक भाग अपने पास रखता, एक भाग पड़ोसियों और रिश्तेदारों में बांटता और एक भाग निर्धनों को देता है, तो ऐसा करना बिहतर हैः

وَالْبُدْنَ جَعَلْنَاهَا لَكُم مِّن شَعَائِرِ‌ اللَّـهِ لَكُمْ فِيهَا خَيْرٌ‌ ۖ فَاذْكُرُ‌وا اسْمَ اللَّـهِ عَلَيْهَا صَوَافَّ ۖ فَإِذَا وَجَبَتْ جُنُوبُهَا فَكُلُوا مِنْهَا وَأَطْعِمُوا الْقَانِعَ وَالْمُعْتَرَّ‌ ۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرْ‌نَاهَا لَكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُ‌ونَ . (سورة الحج: 36

“ और (क़ुरबानी के) ऊँटों को हम ने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों में से बनाया है। तुम्हारे लिए उन में भलाई है। अतः खड़ा कर के उन पर अल्लाह का नाम लो। फिर जब उन के पहलू भूमि से आ लगें तो उन में से स्वयं भी खाओ और संतोष से बैठने वालों को भी खिलाओ और माँगने वालों को भी। ऐसा ही करो। हम ने उन को तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ।” (सूरः अल-हजः 36)

क़ुरबानी करने वाला क़ुरबानी का चमड़ा दान कर सकता है और स्वयं प्रयोग भी कर सकता है। परन्तु उसके लिए जाइज़ नहीं कि वह उसे बेच दे या क़स्साब को मजदूरी के तौर पर दे दे, क्योंकि नबी ﷐ ने क़ुरबानी का चमड़ा बेचने से मना किया हैः“जिसने क़ुरबानी का चमड़ा बेचा, उसकी क़ुरबानी नहीं हुई।” (अल-बैहक़ीः 294/9, सहीहुत्तरग़ीबः लिल- अलबानी 1088)

12- क़ुरबानी ईदुल-अज़्हा के दिन और तश्रीक के दिनों तक कर सकते हैं, अर्थातः चार दिनों तक कर सकते हैं। (ज़ादुल-मआदः 319/2, फतावा अल्लजना अद्दाइमाः 406/8)

13- तश्रीक के दिनों में रोज़ा रखना मना है। (सही अल जामिअः 6965)

Related Post