विज्ञान के इस आधुनिक युग में इस्लामी उपवास के विभिन्न आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक लाभ सिद्ध किए गए हैं। जिन्हें संक्षिप्त में बयान किया जा रहा है।
आध्यात्मिक लाभः
(1) इस्लाम में रोजा का मूल उद्देश्य ईश्वरीय आज्ञापालन और ईश-भय है, इसके द्वारा एक व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाता है कि उसका समस्त जीवन अल्लाह की इच्छानुसार व्यतीत हो। एक व्यक्ति सख्त भूक और प्यास की स्थिति में होता है, खाने पीने की प्रत्येक वस्तुयें उसके समक्ष होती हैं, एकांत में कुछ खा पी लेना अत्यंत सम्भव होता है, पर वह नहीं खाता पीता। क्यों ? इस लिए कि उसे अल्लाह की निगरानी पर दृढ़ विश्वास है। वह जानता है कि लोग तो नहीं देख रहे हैं पर अल्लाह तो देख रहा है। इस प्रकार एक महीने में वह यह शिक्षा ग्रहण करता है कि सदैव ईश्वरीय आदेश का पालन करेगा और कदापि उसकी अवज्ञा न करेगा।
(2) रोज़ा ईश्वरीय उपकारों को याद दिलाता औऱ अल्लाह कि कृतज्ञता सिखाता है क्योंकि एक व्यक्ति जब निर्धारित समय तक खान-पान तथा पत्नी के साथ सम्बन्ध से रोक दिया जाता है जो उसकी सब से बड़ी इच्छा होती है फिर वही कुछ समय बाद मिलता है तो उसे पा कर वह अल्लाह ती प्रशंसा बजा लाता है।
(3) रोज़ा से कामवासना में भी कमी आती है। क्योंकि जब पेट भर जाता है तो कामवासना जाग उठता है परन्तु जब पेट खाली रहता है तो कामवासना कमज़ोर पड़ जाता है। इसका स्पष्टिकरण मुहम्मद सल्ल0 के उस प्रबोधन से होता है जिसमें आया है कि “हे नव-युवकों के समूह ! तुम में से जो कोई विवाह करने की शक्ति रखता हो उसे विवाह कर लेना चाहिए क्योंकि इसके द्वारा आँखें नीची रहती हैं और गुप्तांग की सुरक्षा होती है। और जो कोई विवाह की ताक़त न रखता हो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे क्यों कि यह सहवास को दबाता है।” (बुख़ारी, मुस्लिम)
(4) रोज़े से शैतान भी निदित और अपमानित होता है क्योंकि पेट भरने पर ही कामवासना उत्तेजित होता है फिर शैतान को पथभ्रष्ट करने का अवसर मिलता है। इसी लिए मुहम्मद सल्ल0 के एक प्रवचन में आया है “शैतान मनुष्य के शरीर में रक्त की भांति दौड़ता है।” इस हदीस की कुछ रिवायतों में यह वृद्धि है कि “भूक (रोज़ा) के द्वारा उसकी दौड़ को तंग कर दो।” लेकिन यह रिवायत प्रमाणिक नहीं।
शारीरिक लाभ
(1) मनुष्य के शरीर में मेदा एक ऐसा कोमल अंग है जिसकी सुरक्षा न की जाए तो उस से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार रोज़ा मेदा के लिए उत्तम औषधि है क्योंकि एक मशीन यदि सदैव चलती रहे और कभी उसे बंद न किया जाए तो स्वभावतः किसी समय वह खराब हो जाएगी। उसी प्रकार मेदे को यदि खान-पान से विश्राम न दिया जाए तो उसका कार्यक्रम बिगड़ जाएगा।
(2) डाक्टरों का मत है कि रोज़ा रखने से आंतें दुरुस्त एंव मेदा साफ और शुद्ध हो जाता है। पेट जब खाली होता है तो उसमें पाए जाने वाले ज़हरीले किटानू स्वंय मर जाते हैं और पेट कीड़े तथा बेकार पदार्थ से शुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार रोज़ा वज़न की अधिकता, पेट में चर्बी की ज्यादती, हाज़मे की खराबी(अपच), चीनी का रोग(DIABATES) बलड प्रेशर,गुर्दे का दर्द, जोड़ों का दर्द, बाझपन, हृदय रोग, स्मरण-शक्ति की कमी आदि के लिए अचूक वीण है। डा0 एयह सेन का कहना हैः “फाक़ा का उत्तम रूप रोज़ा है जो इस्लामी ढ़ंग से मुसलमानों में रखा जाता है।मैं सुझाव दूंगा कि जब खाना छोड़ना हो तो लोग रोज़ा रख लिया करें।” इसी प्रकार एक इसाई चिकित्सक रिचार्ड कहता हैः “जिस व्यक्ति को फाक़ा करने की आवश्यकता हो वह अधिक से अधिक रोज़ा रखे। मैं अपने इसाई भाइयों से कहूंगा कि इस सम्बन्ध में वह मुसलमानों का अनुसरण करें। उनके रोज़ा रखने का नियम अति उत्तम है।” (इस्लाम और मेडिकल साइंस 7)
नर्विज की एक कमिटि नें एक खोज द्वारा स्पष्ट किया कि रोज़ा जोड़ों के दर्द और सूजन के लिए सब से उत्तम औषधि है शर्त यह है कि निरंतर चार सप्ताह ( और यही इस्लामी रोज़े की अवधि है) तक रखा जाए।
आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर डा. मोर पाल्ड कहते हैंः
” मैंने इस्लामी शिक्षाओं का अध्ययन किया और जब रोज़े के विषय पर पहुंचा तो चौंक पड़ा कि इस्लाम ने अपने अनुयाइयों को इतना महान फारमूला दिया है, यदि इस्लाम अपने अनुयाइयों को और कुछ न देता तो केवल यही रोज़ा का फारमूला उसके लिए काफ़ी था।” ( सुन्नते नबवी और आधुनिक विज्ञान 1/165)
तात्पर्य यह कि उपवास एक महत्वपूर्ण इबादत होने के साथ साथ शारीरिक व्यायाम भी है।
नैतिक लाभ
रोज़ा एक व्यक्ति में उत्तम आचरण, अच्छा व्यवहार, तथा स्वच्छ गुण पैदा करता है, कंजूसी, घमंड, क्रोध जैसी बुरी आदतों से मुक्ति दिलाता है। इनसान में धैर्य, सहनशीलता और निःस्वार्थ भाव को जन्म देता है। जब वह भूक की पीड़न का अनुभव करता है तो उसके हृदय में उन लोगों के प्रति दया-भाव उभरने लगता है जो प्रतिदिन अथवा सप्ताह या महीने में इस प्रकार की पीड़नाओं में ग्रस्त होते हैं। इस प्रकार उसमें बिना किसी स्वार्थ और भौतिक लाभ के निर्थनों तथा ज़रूरतमंदों के प्रति सहानुभूति की भावना जन्म लेती है, और उसे पूर्ण रूप में निर्धनों की आवश्यकताओं का अनुभव हो जाता है।
सामाजिक लाभ
रोज़ा का सामाजिक जीवन पर भी बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
(1) वर्ष के विशेष महीने में प्रत्येक मुसलमानों का निर्धारित समय तक रोज़ा रखना, फिर निर्धारित समय तक खाते पीते रहना, चाहे धनवान हों या निर्धन समाज को समानता एवं बंधुत्व के सुत्र में बाँधता है।
(2) धनवान जब भूख एवं प्यास का अनुभव करके निर्धनों की सहायता करते हैं तो उन दोंनों में परस्पर प्रेम एवं मुहब्बत की भावनायें जन्म लेती हैं और समाज शत्रुता, घृणा और स्वार्थ आदि रोगों से पवित्र हो जाता है, क्योंकि सामान्यतः निर्धनों की सहायता न होने के कारण ही चोरी एवं डकैती जैसी घटनाएं होती हैं। सारांश यह कि रोज़ा से समानता, भाईचारा तथा प्रेम का वातावरण बनता है। समुदाय में अनुशासन और एकता पैदा होता है। लोगों में दानशीलता, सहानुभूति और एक दूसरों पर उपकार करने की भावनायें उत्पन्न होती हैं।
मानसिक लाभ
रोज़ा में एक व्यक्ति को शुद्ध एवं शान्ति-पूर्ण जीवन मिलता है। उसका मस्तिष्क सुस्पष्ट हो जाता है। उसके हृदय में विशालता आ जाती है। फिर शरीर के हल्का होने से बुद्धि विवेक जागृत होती है। स्मरण-शक्ति तेज़ होती है। फलस्वरूप एक व्यक्ति के लिए कठिन से कठिन कामों को भलि-भांति कर लेना अत्यंत सरल होता है।
डा. उमय्या लहूद कहती हैंः
कुछ शिष्यों पर रोज़े का तजरबा किया गया तो यह सिद्ध हुआ कि कुछ देर के लिए रोज़ा रखना शिष्यों की स्मरण शक्ति में वृद्धि लाती है। और उनका ऐसे शिष्य बनाता है जो अपने पाठ को समझने और याद करने की अधिक शक्ति रखते हैं। इसका कारण यह है कि रोज़ा शरीर के जमे हुए किटानुओं को समाप्त करता है, तब रक्त शुद्ध हो जाता है और अच्छे तरीक़े से दिमाग़ शक्ति पाता है। ( अरबी लेख से लिया गया)
इस्लामी रोज़े तथा अन्य धर्मों के रोज़े मे अन्तर:
यू तो इस्लाम के अतिरिक्त प्रत्येक धर्मों में रोज़ा का प्रचलन है परन्तु इस्लामी रोज़े तथा अन्य धर्मों के रोज़े में बहुत अन्तर पाया जाता है उदाहरणस्वरुप
1. इस्लामी रोज़े में हर प्रकार के खान-पान से रोक दिया जाता है जबकि अन्य धर्मों के कुछ उपवास में साधारण खाने से रोक दिया जाता है। प्रत्येक खानों से नहीं अर्थात अन्न छोड़ कर फल सबज़ी आदि खा सकते हैं।
2. इस्लामी रोज़ा बालिग़ तथा बुद्धि विवेक रखने वाले हर एक मुस्लिम पुरुष एवं स्त्री पर अनिवार्य है जबकि दूसरे धर्मों में रोज़ा गुरुओं तथा पंडितो पर अनिवार्य होता है, सामान्य लोगों पर नही।
3. इस्लामी रोज़ा में अनुमानत: 14 घंटा भूखा रहना पड़ता है। यह अवधि न इतनी कम होती है कि रोज़े का अनुभव ही न हो सके, न इतनी लम्बी कि एक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को छोड़ कर जीवन को जटिलताओं में डाल दे, जबकि अन्य धर्मों में कुछ रोज़ों के अन्दर जल एवं दूध का प्रयोग वैध होने के कारण उपवास का अनुभव भी नही होता और कुछ उपवास का समय इतना लम्बा होता है कि सांसारिक कर्तव्यों को त्याग कर स्वयं को कठोर जटिलताओं के हवाले करना पड़ता है। सन 1964 मे Drenik और उसके सहायकों ने निरंतर 31 और 40 दिन से अधिक रोज़ा रखने वालों के अन्दर विभिन्न रोगों का पता लगाया।
4. इस्लामी रोज़े का सब से मूल गुण यह है कि वह केवल एक अल्लाह के लिए रोज़ा रखने का आदेश देता है, यदि किसी ने ज्ञान रखते हुए अल्लाह के अतिरिक्त किसी देवी देवता के नाम रोज़ा रखा वह इस्लाम की सीमा से निकल जाएगा।