रोज़ा कैसे रखा जाए, किन लोगों पर रोज़ा अनिवार्य है, किन पर नहीं, रोज़ा के आदाब क्या हैं, किन चीज़ों से रोज़ा टूट जाता और किन चीज़ों से नहीं टूटता, सहरी और इफ़तार के आदाब क्या हैं जैसे विषयों पर ٖइस लेख में चर्चा की गई है।
रोज़ा कब से रखा जाये?
यदि रमज़ान का चाँद देख लें या कोई आदिल (सच्चा) मुसलमान चाँद देखने की गवाही दे तो उसकी बात पर विसश्वास करते हुए रोज़ा रखने की घोषणा कर दी जायेगी। हाँ अगर आसमान में बदली छाई हो तो शाबान के तीस दिन पूरे होने पर रमज़ान के रोज़े रखे जायें। हदीस में हैः
صوموا لرؤيته وأفطروا لرؤيته، فإن غُبِّيَ عليكم فأكملوا عدّة شعبان ثلاثين يوما متفق عليه
चाँद देख कर रोज़ा रखो और चाँद देख कर इफ्तार करो यदि तुहारे ऊपर बादल छा जाये तो शाबान के दिनों की मात्रा तीस पूरी करो। (बुख़ारी, मुस्लिम)
लेकिन संदेह के कारण या एहतियाती तौर पर रमज़ान से एक दो दिन पहले ही रोज़ा शुरु करना सही नहीं है। हज़रत अम्मार बिन यासिर रज़ि. से रिवायत है उन्हों ने फ़रमायाः
من صام اليوم الذي يشك فيه فقد عصى أبا القاسم صلى الله عليه وسلم رواه النسائي في الصيام باب صيام يوم الشك برقم 2188.
रोज़ा की नीयत
एक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह फर्ज़ रोज़े की नीयत फज्र (उदय) से पहले कर ले हदीस में हैः
من لم يبيت نية الصيام من الليل فلا صيام له رواه الإمام احمد
जो व्यक्ति फज्र (उदय) से पहले रोज़ा नीयत न करे उसका रोज़ा नहीं होगा (मुस्नद अहमद)
हाँ नफ्ली रोज़े की नीयत फज्र (उदय) के बाद जुहृ से पहले भी की जा सकती है शर्त यह है कि फज्र (उदय) होने के बाद कुछ खाया पिया न हो। सही मुस्लिम की रिवायत है हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि एक दिन रसूल सल्ल. हमारे पास आये और कहाः क्या खाने के लिए आप के पास कोई चीज़ है। हमने कहाः कुछ भी नहीं है, तब आपने फ़रमायाः तो फिर मैं रोज़े से हूं। इस प्रकार आपने दिन के एक भाग में रोज़े की नीयत कर ली।
और नीयत का सम्बन्ध हृदय से है क्योंकि यह अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है “संकल्प” इस लिए नीयत दिल में की जाए ज़बान से बोलना कि “मैं कल रोज़ा रखने की नीयत करता हूँ” किसी हदीस से प्रमाणित नहीं है।
रोज़ा किन पर अनिवार्य है?
इस्लाम एक प्रकृतिक धर्म है इसलिए उसने रोज़े में भी मानव जाति की स्थिति का लिहाज़ किया है अत: एक व्यक्ति पर रोज़ा उसी समय अनिवार्य होता है जब वह मुसलमान हो, बालिग़ हो, बुद्धि विवेक रखता हो, अर्थात् पागल और बेहोश न हो, उसे रोज़ा रखने का सामर्थ्य प्राप्त हो, तथा महिलाएं मासिक चक्र और निफ़ास के ख़ून से पवित्र हों। इस प्रकार कुछ लोग ऐसे हैं जिन पर रोज़ा अनिवार्य नहीं या अनिवार्य तो है परन्तु उनसे उस स्थिति में रोज़े का मुतालबना नहीं, उनका वर्णन निम्न में किया जा रहा हैः
गैर मुस्लिमः गैर मुस्लिम पर रोज़ा अनिवार्य नहीं और न ही उस से इसका मुतालबा है, यदि वह रोज़ा रखे तो उस से स्वीकार भी न किया जाएगा क्यों कि उस से पहले वह ईमान लाने का मुकल्लफ़ है, वीदित है कि जब वह अपने पैदा करने वाले का ज्ञान ही नहीं रखता तो उसके लिए रोज़ा कैसे रख सकेगा। हां यदि कोई गैर-मुस्लिम रोज़ा रखता है तो उसको रोज़ा रखने से मना नहीं किया जाएगा कि सम्भव है कि इसी तरीक़े से उसे इस्लाम का ज्ञान प्राप्त हो जाए।
नाबालिग़ (कम उम्र)बच्चे : बालिग़ होने के बाद ही रोज़ा अनिवार्य होता है इसलिए बच्चों पर रोज़ा रखना फर्ज़ नही है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
رفع القلم عن ثلاثة: الصبي حتى يحتلم والنائم حتى يستيقظ والمجنون حتى يفيق. أخرجه أحمد وأبو داود،
“तीन प्रकार के लोगों से क़लम उठा लिया गया है, बच्चा से यहां तक कि वह बालिग़ हो जाए, सोने वाले से यहां तक कि वह जग जाए, और पागल से यहां तक कि वह होश में आ जाये। (अहमद, अबूदाऊद) लेकिन उन्हें रोज़ा की आदत डालने के लिए सात आठ वर्ष से ही रोज़ा रखने पर उभारना चाहिए। और यदि दस वर्ष के हो जाएं तो रोज़ा न रखने पर नमाज़ के जैसे उनकी पिटाई करनी चाहिए ताकि बालिग़ होने के बाद रोज़ा रखने की आदत बन जाएं।
मासिक चक्र तथा निफ़ास की स्थिति में होने वाली महिलायेः महिलायें मासिक चक्र तथा निफ़ास की स्थिति में हों उनके लिए रोज़ा रखना और नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं परन्तु रमज़ान के बाद छूटी हुई नमाज़े तो नही पढ़ेंगी लेकिन छूटे हुए रोज़ों को अदाएगी ज़रूरी है। हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में मासिक चक्र की स्थिति में होते तो हमें रोज़ा की अदाइगी का आदेश दिया जाता लेकिन नमाज़ की अदाएगी का आदेश नहीं दिया जाता था।
गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली महिलायें : गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली महिलाओं को अपने ऊपर अथवा बच्चे पर किसी प्रकार का भय हो तो उन्के लिए रोज़ा तोड़ने की अनुमति है परन्तु बाद में उन्हें छूटे हुए रोज़ों को अदा करना होगा।
यात्री : जिसकी यात्रा का अभिप्राय वैध हो उसे भी इस्लाम ने रोज़ा तोड़ने की अनुमति दी है लेकिन रमज़ान के बाद उसे पूरा करना ज़रुरी होगा, हाँ यदि कोई यात्री रोज़ा रखना चाहता हो तो वह रोज़ा रख सकता है। परन्तु पश्न यह है कि यात्री के लिए रोज़ा रखना श्रेष्ठ है अथवा रोज़ा न रखना तो इस सिलसिले में संक्षिप्त बयान यह है कि यदि यात्री को रोज़ा रखने में कोई परेशानी न हो रही हो, अर्थात् उसके लिए रोज़ा रखना न रखना दोनों बराबर हो तो ऐसी स्थिति में रोज़ा रख लेना श्रेष्ठ होगा और यदि उसे रोज़ा रखने में परेशानी हो रही हो तो उसके लिए रोज़ा न रखना ही श्रेष्ठ होगा।
रोगी : ऐसा रोगी जो निरोग होने से निराश हो चुका हो और रोज़ा में सख्त कठिनाई हो रही हो उसी प्रकार वह बुढ़े मुरुष एवं बुढ़ी महिलाएं जिनको रोज़ा रखने में बुढ़ापे के कारण परेशानी होती हो ऐसे व्यक्तियों से रोज़ा तो माफ़ है परन्तु उन पर अनिवार्य है कि उसके बदले प्रतिदिन किसी निर्धन को एक समय का भर पेट खाना खिलायें। या निस्फ़ साअ (अनुमानतः डेढ़ किलो) अनाज दे दें।
हाँ अगर किसी रोगी को निरोग होने की आशा हो लेकिन रोज़ा रखने में सख्त कठिनाई हो रही हो तो वह रोज़ा न रखेगा लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि निरोग होने के बाद उसकी अदाएगी करे।
नोट : जिस व्यक्ति को किसी कारणवश रमज़ान के रोज़ा की छूट दी गई हो यदि दिन के किसी भाग में कारण जाता रहे जैसे यत्री अपनी यात्रा से लौट आए या मासिक चक्र तथा निफ़ास वाली महिलायें पवित्रता प्राप्त कर लें, ग़ैर-मुस्लिम इस्लाम स्वीकार कर ले, बेहोश को होश आ जाए और ना बालिग़ बच्चा बालिग़ हो जाए ऐसे प्रत्येक लोगों के लिए अनिवार्य है कि दिन के शेष भाग में कुछ न खायें पियें और बाद में उस दिन के रोज़ा की अदाएगी करें। (अल-मुलख्ख़स अल-फ़िक़्ही डा. सालिह अल-फौज़ान 1/ 377)
वह चीज़े जिन से रोज़ा नहीं टूटता
1. दिन के प्रथम भाग अथवा अन्तिम भाग में दतौन करना।
2. सुर्मा लगाना।
3. कुल्ली करते या नाक में पानी डालते समय बिना इरादा पानी का हल्क़ में उतर आना।
4. सख्त गर्मी में सर पर पानी डालना।
5. थूक और रेंठ को निगलना।
6. सुगंध लगाना।
7. आँख में दवा डालना।
8. आवश्यकतानुसार हाँडी का स्वाद चखना और छोटे बच्चों को कोई चीज़ चबा कर देना शर्त यह है कि तुरन्त थूक दिया जाये।
9. अशौच (जनाबत) की स्थिति में फज्र का समय हो जाना।
10. न चाहने के बावजूद क़ै या उलटी हो जाना।
11. रोज़ा की स्थिति में स्वप्न-दोष हो जाना।
12. ग़लती से या भूल कर खान-पान कर लेना।
13. मसूढ़ों से निकलने वाले खून और दाँतों में अटके हुए खाने का हल्क़ में उतर आना।
14. दाँत आदि का निकलवाना या आवश्यकतानुसार किसी रोगी को ख़ून देना।
15. मासिक चक्र और निफ़ास के ख़ून के अतिरिक्त किसी रोग के कारण किसी महिला को ख़ून आना।
16. एलाज के लिए पछने लगवाना।
17. कुछ इस्लामी विद्धानों के नज़दीक दमा के रोगियों के लिए स्प्रे (Spray) का प्रयोग करना।
वह चीज़ें जिन से रोज़ा टूट जाता है:
1. रोज़ा की स्थिति में पत्नी से सम्भोग कर लेना, और ऐसी स्थिति में रोज़े की अदाएगी के साथ साथ कफ़्फ़ारा भी आवश्यक है, कफ़्फ़ारा यह है कि एक गुलाम स्वतंत्र किया जाए, यदि गुलाम न पाए (और वीदित है कि आज ग़ुलाम का वजूद नहीं पाया जाता) तो दो महीना तक निरंतर रोज़ा रखे, अगर दो नहीना निरंतर रोज़ा रखने की ताक़त न हो तो साठ निर्धनों को खाना खिलाए।
2. जान बूझ कर खाना पीना या क़ै करना।
3. मासिक चक्र या निफ़ास का ख़ून आना।
4. वीर्य का निकालना चाहे हाथ से हो या किसी भी रुप में।
5. रोज़ा तोड़ लेने की नीयत कर लेना चाहे कोई चीज़ न खाये न पिये।
6. किसी चीज़ का निगल लेना चाहे वह खाने पीने की चीज़ों में से हो या न हो।
7. हर प्रकार के तम्बाकू का प्रयोग।
8. ताक़त के टीके या सूइयाँ लेना।
वह चीज़ें जो रोज़ा में अप्रिय हैं:
कूछ चीज़े ऐसी हैं जिन से रोज़ा तो नही टूटता परन्तु वह रोज़ा के लिए अप्रिय हैं जैसे:
1. वुज़ू के समय कुल्ली करने और नाक में पानी डालने में अत्योक्ती (मुबालग़ा) करना।
2. पत्नी की ओर सहवास की नीयत से देखते रहना।
3. कोई चीज़ मुंह में डाल कर चबाना क्योंकि सम्भव है कि उसके कुछ हिस्से हल्क़ से नीचे चले जायें।
4. जिसको अपने आप पर क़ाबू न हो उस का अपनी पत्नी को बोसा लेना क्योंकि यदि वीर्य निकल जाये तो रोज़ा टूट जाएगा।
सहरी खाना:
इस्लाम का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह जीवन के सारे भागों में संतुलन का आदेश देता है अत:
इस्लाम ने एक निर्धारित समय से निर्धारित समय तक रोज़ा रखने का आदेश दिया उसके साथ सहरी खाने पर भी उभारा है। रात के अन्तिम भाग में सुबह सादिक से निकट सहरी खाना मस्नून है। हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
تسحّروا؛ فإن في السحور بركة متفق عليه
“सहरी खाया करो क्योंकि सहरी खाने से बरकत है”। (बुख़ारी, मुस्लिम)
एक दूसरे स्थान पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
فَصْلُ ما بين صيامنا وصيام أهل الكتاب أكلة السَّحَر رواه مسلم
“इस्लामी उपवास तथा अन्य धर्मों के उपवास में फर्क़ करने वाली चीज़ सहरी का खाना है” (मुस्लिम)
सहरी का समय आधी रात से सुबह सादिक़ तक है परन्तु उस में देर करना श्रेष्ठ है। सहरी और नमाज़ के बीच इतनी अवधि होनी चाहिए जिस में आदमी पचास आयतें पढ़ सके। जैसा कि ज़ैद बिन साबित बयान करते हैं कि हमने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सेहरी की फ़िर नमाज़ के लिए खड़े हुए, किसी ने पूछाः सहरी और इफ़तार में कितना फ़ासला था ? उन्हों ने कहाः इतना कि जिसमें पचास आयतें पढ़ी जा सकें। (बुख़ारी)
यदि खाने की इच्छा न हो तो कम से कम पानी का एक घोंट भी पी लेना चाहिए। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
السَّحور بركة؛ فلا تدعوه ولو أن يجرع أحدكم ماء رواه أحمد
“सहरी खानें में बरकत है इसलिए तुम उसे न छोड़ो चाहे तुम में से एक व्यक्ति पानी का एक घोंट ही क्यों न पीले”
और इस लिए भी कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते सहरी खाने वालों पर सलामती भेजते हैं, अल्लाह के रसूल सल्ल. ने फ़रमायाः
إن الله وملائكتة يصلون على المتسحّرين رواه أحمد
“निःसंदेह अल्लाह और उसके फ़रिशते सहरी करने वालों पर सलामती भेजते हैं।” (मुस्नद अहमद)
यदि कोई सहरी के समय नही जग सकता तो उसके लिए भी रोज़ा रखना आवश्यक है क्योंकि सहरी खाना सुन्नत है रोज़ा के लिए शर्त या अनिवार्य नहीं।
इफ्तार करना:
सूर्य डूबते ही इफ्तार करना सुन्नत है अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:
لا يزال الناس بخير ما عجلوا الفطر رواه الترمذي
” लोग उस समय तक अच्छाई में रहेंगे जब कर इफ़्तार में जल्दी करते रहेंगे ” (तिर्मिज़ी)
खुजूर से इफ्तार करना श्रेष्ठ है यदि ताज़ा खुजूर न मिल सके तो सुखे खुजूर से वर न पानी से, अगर पानी भी न मिल सके तो किसी हलाल खाने से, और अगर कोई हलाल खाना भी न मिल सके तो दिल में इफ़्तार की नीयत कर ले यहाँ तक कि कोई खाना पाले।
खुजूर से इफ़्तार करने की हिकमत यह है कि इस के अन्दर मधुरता और मिठास होती है और मीठी चीज़ नज़र को शक्ति प्रदान करती है जो रोज़ा के कारण कमज़ोर हो जाती है, सह भी बताया गया है कि मधुरता ईमान के अनुकूल होती है और हृदय को नर्म बनाती है। (नैलुल अवतार 4/ 223)
इफ़्तार करने से कुछ देर पहले ख़ूब प्रार्थनायें करें क्योंकि वह समय दुआ की कुबूलियत का होता है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रवचनों में आता है:
” तीन व्यक्तियों की प्रार्थनायें रद्द नहीं होती हैं रोज़ेदार की प्रार्थना यहाँ तक कि इफ़्तार कर ले, न्यायवान शासक और मज़लूम की प्रार्थना ” (अहमद)
इसलिए इस शुभ अवसर को इफ़्तार के सामान की व्यवस्था और पारस्परिक बात चीत में नष्ट नहीं करना चाहिए बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा दुआ करने में व्यस्त रहना चाहिए। इफ़्तार के समय
यह दुआ पढ़ना मस्नून है ( अल्लाहुम्म ल,क सुमतु व अला रिज़क़िक अफ़तरतु)
اللهم لك صمت وعلى رزقك افطرت .
” हे अल्लाह मैंने तेरी आज्ञाकारी के लिए रोज़ा रखा और तेरी प्रदान की हुई रोज़ी से इफ़्तार
किया ” ।
और इफ़्तार के बाद यह दुआ पढ़ें:
” ذهب الظمأ وابتلت العروق، وثبت الأجر إن شاء الله “
ज़,ह,बज़्ज़,म,ओ वब्तल्लतिल ओरुक़ु व स,ब,तल अज़्रु इंशाअल्लाह
” प्यास बुझ गई, रगें तर हो गई और अल्लाह ने चाहा तो पुण्य भी साबित हो गया।”
यदि किसी दूसरे के यहाँ इफ़्तार करें तो दुआ पढ़ेः
” أفطر عندكم الصائمون، وأكل طعامكم الأبرار، وصلت عليكم الملائكة “
अफ़्तर,र इन्दकुम अस्साएमून व अ,क,ल तआमकुम अल अबरारो व सल्लत अलैकुमुल मलाईक:
“तुम्हारे पास रोज़ेदार इफ़्तार करें और तुम्हारा खाना नेक लोग खायें और फ़रिश्ते तुम्हारे ऊपर रहमत की दुआ करें।”