नमाज़

स़लात (98333664नमाज़) का शब्दकोश के अनुसार अर्थ दुआ है।

स़लात (नमाज़) की परिभाषाः कुछ विशेष शलोकें और विशेष हरकतें हैं जिसे विशेष ढ़ंग से अदा किया जाता है और अल्लाहु अक्बर से आरंभ होता है और “ अस्सलामु अलैकुम व रह्मतुल्लाहि व बरकातुह ” पर स्माप्त होता है। इसे नमाज़ कहते हैं क्योंकि अधिकतम इस में दुआ की जाती है,

नमाज़ के पढ़ने का कारणः

मानव अपने पापों और अप्राधों पर अल्लाह से क्षमा मांगे और अल्लाह को याद रखें जिस कारण उसे पुण्य प्राप्त हो।

जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से वर्णन है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः “ पांच नमाज़ों की उदाहरण ऐसे है जैसे तुम में से किसी के द्वार पर बहता नहर हो जिस में वह प्रति दिन पांच बार ग़ुस्ल (स्नान) करता है। ह़सन कहते हैं क्या उस के बदन पर मेल बाकी रहेगा ? (मुस्लिमः 668) और दुसरी रिवायत में हैः “ इसी प्रकार पांच समय की नमाज़ें के माध्यम से अल्लाह पापों को मिटाता है।”  (सही मुस्लिमः 667)

मानव के हृदय में अल्लाह पर आस्था और विश्वास कठोर से कठोरतम होता रहे। जब जब मुस्लिम नमाज़ पर पाबन्दी करता रहेगा और उसे उस के समय में अदा करता रहेगा तो दुनिया की एशो इश्रत तथा मोज मस्ती उसे अल्लाह से ग़ाफ़िल नहीं होने देगी और उस के ईमान और आस्था को कम्ज़ोर नहीं होने देगी।

नमाज़ पढ़ने का आदेशः

नमाज़ पुर्वज समुदायों पर भी अनिवार्य किया गया था जैसा कि अल्लाह तआला ने इस्माईल (अलैहिस्सलाम) के प्रति फ़रमायाः   “ और वह अपने घरवालों को नमाज़ और ज़कात का हुक्म देता था और अपने रब की दृष्टि में एक पसंदीदा इनसान था।”   (सूरः मरयमः 55)

जब अल्लाह तआला ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को नबी बना कर भेजा तो मक्का के आरंभिक समय और इसरा तथा मेअराज से पूर्व दिन और रात में केवल सुबह में दो रकअत और शाम में दो रकअत नमाज़ पढ़ते थे।

कहा जाता है कि अल्लाह के निम्न प्रवचन से यही अर्थात हैः  “ अपने क़ुसूर की माफ़ी चाहो और सुबह और शाम को अपने रब की प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।”    (सूरः मोमिनः 55)

फ़र्ज़ (अनिवार्य) नमाज़ें

नमाज़ के अनिवार्य होने की तिथिः

यह नमाज़ अल्लाह ने इसरा और मेअराज के शुभ अवसर पर आकाश में अनिवार्य किया था जब रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बैतुल-मक्दिस तक ले जाया गया फिर बैतुल-मक्दिस से आकाश पर ले जाया गया था।

नमाज़ के अनिवार्य होने की दलीलेः

क़ुरआन करीम और ह़दीस़ शरीफ़ की बहुत सी दलीलें नमाज़ के अनिवार्य होने पर प्रमाण है। जैसा कि अल्लाह का कथन हैः  “ अल्लाह की अतः तसबीह (गुणगान) करो जब तुम शाम करते हो और सुबह करते हो, आसमानों और ज़मीन में उसी के लिए प्रशंसा है और (तसबीह करो उसकी) तीसरे पहर और जबकि तुम पर ज़ुहर का समय आता है।”  (सूरः अर्-रूमः 19)

रसूल ने ग्रामीण से फ़रमाया था जिसने प्रश्न किया कि हमारे ऊपर कितनी नमाज़ें अनिवार्य हैं। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उत्तर दियाः दिन और रात में पांच बार नमाज़ें, तो ग्रामीण ने कहा, इसके अतिरिक्त भी कुछ नमाज़ है ? तो आप ने कहा कि नहीं, मगर नफ़ली नमाज़ें पढ़ो, (सही बुखारीः 46, सही मुस्लिमः 11)

नमाज़  की महत्व और उस के छोड़ने पर प्रकोपः

नमाज़ इस्लाम का दुसरा स्तम्भ है जिस पर अमल से ही किसी भी व्यक्ति का इस्लाम सही माना जाएगा। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने प्रवचनों में नमाज़ पढ़ने पर बहुत उत्साहित किया है। नमाज़ को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने आंखों की ठंडक कहा है। क़ियामत के दिन बन्दों से सर्वप्रथम नमाज़ के प्रति प्रश्न किया जाएगा। यदि नमाज़ सही तो सारा मुआमला आसान हो जाएगा।

यदि नमाज़ सुस्ती और आलस के कारण छोड़ता है और नमाज़ की फ़र्ज़ियत (अनिवार्यिता) का आस्था रखता है तो शासक उसे नमाज़ों की क़ज़ा करवाएगा और उस से तौबा कराएगा। अगर वह नमाज़ों की क़ज़ा करने के लिए तैयार न हुआ तो ह़द के तौर पर उसे क़त्ल करना वाजिब होगा (जिस का आदेश शासक देगा) और उसे क़त्ल की सज़ा एक अनिवार्य कर्म और दीन के स्तम्भ के छोड़ने के कारण दी गई और उस के क़त्ल के बाद भी उसे मुस्लिम माना जाएगा और उसे मुस्लिम की तरह ग़ुस्ल कराया जाएगा और उसे मुस्लिम की तरह दफ़न किया जाएगा और उसे मुस्लिम की तरह मिरास़ और अन्य चीज़ों में मुआमला किया जाएगा।

यदि वह नमाज़ की फ़र्ज़ीयत का इन्कार करते हुए नमाज़ छोड़ता है या नमाज़ को कमतर समझते हुए छोड़ता है। तो वह अपने इस कार्य के कारण काफ़िर हो गया और धर्म-भ्रष्ट हो गया तो शासक उस से तौबा कराएगा और तौबा कर लिया और नमाज़ों की क़ज़ा कर लिया तो वह मुस्लिम है वर्ना मुर्तद के कारण उसे क़त्ल करना वाजिब होगा (जिस का आदेश शासक देगा) और न ही उसे मुस्लिम की तरह ग़ुस्ल कराया जाएगा और न ही उसे मुस्लिम की तरह दफ़न किया जाएगा और न ही उसे मुस्लिम की तरह मिरास़ और अन्य चीज़ों में मुआमला किया जाएगा।

जैसाकि जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से वर्णन है कि मैं ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को फ़रमाते हुए सुनाः “ आदमी और शिर्क और कुफ्र के बीच अन्तर करने वाली चीज़ नमाज़ है।”   (सही मुस्लिमः 82)

जो व्यक्ति नमाज़ की फ़र्ज़ीयत का इन्कार करते हुए या नमाज़ को कमतर समझते हुए छोड़ता है। तो गोयाकि उस ने अपने इस्लाम की सीमा से गुज़र गया और कुफ्र और शिर्क की सीमा में प्रवेश कर गया।

 

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