बिदअत से दूरी ही कामयाबी है।

البدعة 2

बिदअत का क्या अर्थ है और उसका मतलब क्या है। उसका हुक्म क्या है ?

अरबी भाषा के अनुसार बिदअत का अर्थ होता है किसी वस्तु का सर्व प्रथम अविष्कार करना है, प्रथम बार किसी नई वस्तु का बनाना है। जैसा कि अल्लाह का कथन है।

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْ‌ضِ ۖ وَإِذَا قَضَىٰ أَمْرً‌ا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُن فَيَكُونُ

वह आकाशों और धरती का प्रथमतः पैदा करनेवाला है। वह तो जब किसी काम का निर्णय करता है, तो उसके लिए बस कह देता है कि “हो जा” और वह हो जाता है। (सूरह अल्बकराः 117)

बिदअत दो प्रकार के होते हैं।

(1)  बिदअत दुनिया की वस्तुओं में और रीति रेवाज और रहन सहन में: इस में कोई बात नहीं है। जब तक कि वह इस्लाम के किसी बेसिक आस्था से टकराव न हो तो ऐसे नई वस्तु का प्रचलन जाइज़ है जैसे कि आज के युग में दुनिया ने नई नई चीज़ें अविष्कार की हैं और नेट की प्रगति तथा  मोबाइल का अधिक प्रयोग इत्यादि।

(2)  दीन और धर्म के सम्बन्ध में नई इबादत और त्योहार का आयोजन करनाः यह इस्लाम में सख्ती के साथ अवैध है। महा पापों में से है जिस के करने वालों को जहन्नम की चेतावनी दे दी गई है।

बिदअत की परिभाषाः  प्रत्येक वह नया कर्म जिस के करने पर अल्लाह से सवाब (पुण्य) की आशा रखा जाए और वह कर्म नबी(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)   ने नहीं किया और न ही सहाबा (रज़ि0) ने किया हो तो वह बिदअत में शुमार होगा।

इबादत तौक़ीफी है। मतलब कि जिन इबादतों के करने का आदेश अल्लाह ने दिया हो या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)  ने किया हो या करने का आदेश दिया हो और वह इबादत सही तरीके से प्रमाणित हो। तो उन्हीं इबादतों को किया जाएगा। अपनी इच्छा या विद्वानों के इच्छानुसार इबादतें अल्लाह के पास अस्वीकारित है और इन्हीं इबादतों को बिदअत और मुहदेसात और पदभ्रष्टता में शुमार किया जाता है।

रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दीन में नई चीज़ों के प्रति फरमायाः

من أحدث في أمرِنا هذا ما ليس فيه فهو ردٌ. (صحيح البخاري: 2697 وصحيح مسلم: 1718)

जिस ने हमारे इस दीन में कोइ नई चीज़ अविष्कार किया जो उस में से न था तो वह कार्य अस्वीकारित है। (सही बुखारीः 2697, व सही मुस्लिमः 1718)

दुसरी हदीस में रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान इस प्रकार प्रमाणित है।

من عمل عملًا ليس عليه أمرُنا فهو رَدٌّ.  (صحيح الجامع: 6398)

जिस ने ऐसा कर्म किया जिसे हमने नहीं किया तो उसका वह कर्म अस्वीकारित है। (सही अल्जामिअः 6398)

बिदअत से बचाव और सुन्नत पर निर्भर ही सफलता की गारेन्टी है। रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बहुत से अवसर पर विभिन्न प्रकार से बिदआतों से दूर रहने पर उभारा है। बिदअत से दूरी और दीन में नई वस्तु से अलग थलग रहने पर प्रोत्साहित किया है। इस हदीस पर विचार करें, क्योंकि हम मेहनत और परेशानी उठा कर अल्लाह की इबादत और नेक कार्य करते हैं और अल्लाह से पूण्य की आशा भी रखते हैं किन्तु वह कार्य अल्लाह के पास अस्वीकारित हो जाता, वह कार्य बेकार हो जाता है और उलटा सवाब की जगह अज़ाब में ग्रस्त होने का कारण बन जाता है, पुण्य की जगह पाप मिलने का सबब बन जाता है और अल्लाह की खुशी के बजाए अल्लाह की नाराजगी प्राप्त होने का कारण हो जाता है। इस हदीस पर ध्यान पुर्वक विचार करें।

فقال العرباضُ: صلى بنا رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ ذاتَ يومٍ، ثم أقبل علينا، فوعظنا موعظةً بليغةً، ذرفت منها العيون، ووجِلت منها القلوبُ . فقال قائلٌ : يا رسولَ اللهِ! كأن هذه موعظةُ مُودِّعٍ، فماذا تعهد إلينا؟ فقال: أوصيكم بتقوى اللهِ والسمعِ والطاعةِ  وإن عبدًا حبشيًّا، فإنه من يعِشْ منكم بعدي فسيرى اختلافًا كثيرًا، فعليكم بسنتي وسنةِ الخلفاءِ المهديّين الراشدين تمسّكوا بها، وعَضّوا عليها بالنواجذِ، وإياكم ومحدثاتِ الأمورِ فإنَّ كلَّ محدثةٍ بدعةٌ، وكلَّ بدعةٍ ضلالةٌ.  (صحيح أبي داؤد: 4607 و تخريج مشكاة المصابيح: 165)

इर्बाज़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक दिन हमें नमाज़ पढ़ाया फिर हमारी ओर मुड़े और हमें बहुत ही अच्छी नसीहत किया, जिस कारण लोग रोने लगे और अल्लाह के डर से भयभीत हो गए। तो एक व्यक्ति ने कहाः ऐ अल्लाह के रसूल! लगता है कि यह अल्वेदाई भाषन है, हमें कुछ और वसीयत की जीये। तो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमायाः मैं तुम्हें अल्लाह का तक्वा (भय) और शासक की बात सुनने और मानने की वसीयत करता हूँ। अगर्चे वह शासक अप्रिय व्यक्ति (हबशी गुलाम) हो, बेशक मेरे बाद जो व्यक्ति जीवित रहेगा, वह बहुत ज़्यादा लोगों के बीच मतभेद देखेगा, तो तुम लोग मेरी सुन्नत और सही मार्ग पर चलाए गए नेक खुलफाए की सुन्नत पर अमल करना, केवल उन ही के सुन्नतों पर मजबूती के साथ अमल करो, और उन सुन्नतों पर दृढ़ता से जमे रहना, और दीन में नई चीज़ों से बचो, क्योंकि दीन में प्रत्येक नई चीज़ बिदअत है और प्रत्येक बिदअत पदभ्रष्टता की ओर ले जाती है।   (सही अबू दाऊदः 4607, तखरीज मिश्कातुल मसाबीहः 165)

बिदअत पर अमल करने वाले सही रास्ते से हट कर गलत रास्ते पर चलने लगते हैं। नेकी कमाने के बजाए पाप कमाने लगते हैं। इस लिए हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिये कि हमारा कोइ भी कार्य बिदअत में से न हो कि बल्कि प्रत्येक कार्य सुन्नत के मुताबिक हो ताकि हमारे कर्म क़ियामत के दिन हमारे लिए मुक्ति का कारण हो। बिदअत के महा पाप होने और उस में बहुत से लोगें के लिप्त होंने के आशंका के कारण रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) प्रत्येक जुमा में बिदअत से सूचित करते थे। जैसा कि हदीस में विवरण हुवा है।

كانَ رسولُ اللَّهِ صلَّى اللَّهُ علَيهِ وسلَّمَ يقومُ فيخطُبُ فيحمدُ اللَّهَ،ويُثني علَيهِ بما هوَ أَهْلٌ لهُ ويقولُ: مَن يَهْدِهِ اللَّهُ فلا مضلَّ لهُ ومن يُضلِلْ فلا هاديَ لهُ إنَّ خيرَ الحديثِ كتابُ اللَّهِ وخيرَ الهديِ هديُ محمَّدٍ وشرَّ الأمورِمُحدثاتُها وَكُلَّ مُحدثةٍ بدعةٌ وَكُلَّ بدعةٍ ضلالةٌ وَكُلَّ ضلالةٍ في النَّار  (أحكام الجنائز: 29)

रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जुमा के दिन खुतबा के लिए खड़े होते थे तो सर्व प्रथम अल्लाह की बहुत प्रशंसा करते और अल्लाह के शान के लाएक तारीफ करते थे और फरमाते थे। जिसे अल्लाह तआला सही मार्ग पर चलाए तो उसे कोई सही मार्ग से भटका नहीं सकता और जिसे अल्लाह सही रास्ते से भटका दे तो उसे कोई सही मार्ग पर चला नहीं सकता। बेशक सब से अच्छी तथा उत्तम बात अल्लाह की किताब है और सब से उत्तम मार्ग दर्शन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का बताया हुआ तरीका है और दीन में सब से बुरी चीज़ दीन में लाइ गई नई चीज़ है और दीन में प्रत्येक नई चीज़ बिदअत है और प्रत्येक बिदअत गुमराही (पदभ्रष्टता) है और प्रत्येक गुमराही (पदभ्रष्टता) जहन्नम में दाखिल करने वाली है।  (अहकामुल जनाइज़, शैख अल्बानीः 29)

यह हदीस स्पष्ट रूप से बिदअत की खराबी को बयान करता है, जिस व्यक्ति ने बिदअत पर अमल किया तो उसका अमल अकारथ हो जाता है, उसकी मेहनत पर पुरस्कार के बचाए अल्लाह की नाराजगी मिलती है। क्योंकि बिदअत में कोइ भलाइ नहीं है। बिदअत कर्म को बर्बाद और सर्वनाश करने का माध्यम बनता है।

मानव का कोइ भी नेक कर्म उसी समय अल्लाह के पास स्वीकारित है जब उस कर्म में दो शर्त पाइ जाए।

पहला शर्तः वह कर्म केवल अल्लाह की खुशी के कारण की जाए। अल्लाह के सिवा के लिए न की जाए। अल्लाह के साथ किसी को खुश करने का लक्ष्य न हो, तब ही अल्लाह तआला उस कर्म को स्वीकार करेगा।

दुसरा शर्तः  वह कार्य नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सुन्नत के अनुसार हो, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने प्रवचन से उस कार्य के करने पर उत्साहित किया हो या नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने वह कार्य स्वयं ही किया हो या सहाबा ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने कर्म किया हो परन्तु आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा को उस कार्य से मना नहीं फरमाया हो।

जब किसी भी नेक कार्य में यह दोनों शर्त पाइ जाए तब ही वह कार्य अल्लाह के पास स्वीकारित है।

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