हज में एकेश्वरवाद के चिन्ह क़दम क़दम पर

 

التوحيد في الحج 2आज इस्लामी आस्था के विषय को इतना तुच्छ समझ लिया गया है कि जिस किसी ने कलिमा शहादत की गवाही दे ली समझो ‘ कि वह पक्का मोमिन हो गया, अब उसे ईमान की ओर ध्यान देने की बिल्कुल जरूरत नहीं रही , हालांकि ईमान आधार है जिस पर लोक और परलोक की भलाई निर्भर है, जिसके लिए ज़मीन और आसमान को पैदा किया गया, जिन्नात और इनसानों की सृष्टि हुई, नबियों और रसूलों को भेजा गया और किताबें उतारी गईं। इस्लाम के बाक़ी चार स्तम्भों का आधार इसी कलमे पर है. नमाज़ तकबीरे तहरीमा से लेकर सलाम फेरने तक कलमा तौहीद के आसपास घूमती है , क्याम, रुकूअ, क़ौमा, सज्दा और तशह्हुद हर स्थान पर एक अल्लाह की स्तुति और प्रशंसा बयान की जाती है और एक अल्लाह से मांगा जाता है। ज़कात में भी इस कलमे की रूह पाई जाती है , रोज़ा में भी  कलमा शहादत का पूरा दर्पण दिखाई देता है . और हज्ज तो तौहीद का सन्निहित नमूना है , हज्ज शुरू से अंत तक कलमा तौहीद के आसपास घूमता है, इसके एक एक कदम पर तौहीद का जलवा दिखाई देता है । आइए इस लेख में हम देखते हैं कि हज्ज से एकेश्वरवाद की क्या शिक्षाएं हमें मिलती हैं।

देश से निकलते समय:

जब हज्ज के यात्री अपने घर से निकलते हैं तो उनके सामने परिवार, बीवी बच्चों , देश और संपत्ति का प्यार आड़े आती है लेकिन वह किसी की परवाह नहीं करते , अपना बहुमूल्य धन खर्च करते हैं , यात्रा की कठिनाइयाँ सहन करते हैं , कितने धनवान और समृद्ध जिन्होंने कभी विदेशी जीवन नहीं बिताई होती,  वह हज्ज के नशे में देश और परिवार को अलविदा कर रहे हैं। क्यों? ज़ाहिर है इसकी वास्तविक प्रेरणा ईमान है , तौहीद है,  एकेश्वरवाद है और अल्लाह से सच्ची मुहब्बत है जिसके सामने सारी मुहब्बतें मामूली हैं।

उमरा के कपड़े पहनते समय:

जब हाजी मीक़ात पहुंचने के बाद हज्ज के मन्सक में प्रवेश होने के लिए अपने सामान्य कपड़े उतार कर स्नान करता है, और बिना सिला हुआ दो कपड़ा, एक चादर और एक तहबंद पहनता है, तो उसके दिमाग़ में मौत की याद ताजा हो जाती है कि एक दिन हमें मरना है , मौत का प्याला पीना है, लोग हमारे कपड़े उतार कर उसी तरह नहलाएंगे और ऐसे ही कपड़े में लपेटकर कब्र की अंधेरी कोठड़ी में सुला देंगे।

तल्बियाः

जब हाजी हज्ज के मन्सक में प्रवेश करने के लिये तल्बिया पुकारता है तो उस में पूरी तरह तौहीद की घोषणा करता और बहुदेववाद का खंडन करता हैः

لبيك اللهم لبيك لبيك، لا شريك لك لبيك، إن الحمد والنعمة لك والملك ، لا شريك لك.

 लब्बैक ,अल्लाहुम्म लब्बैक , लब्बैक लाशरीक लक , लब्बैक इन्नल हम्द वन्निअम’त ल’क वलमुल्क लाशरीक लक।

” में उपस्थित हूं, हे अल्लाह मैं उपस्ति हुं, मै उपस्ति हुं, तेरा कोई साझी नही, हर प्रकार की प्रशंसायें, उपहार और राज पाट तेरे ही लिए हैं, तेरा कोई साझी नहीं है “। इस तल्बिया को वह ज़ोर ज़ोर से पुकारता है और इसके अर्थ को अपने मन और मस्तिष्क में बैठाए रहता है कि ऐ अल्लाह हम उपस्थित हैं , तेरी पुकार पर लब्बैक कहते हैं , जिस तरह तू बखशीश व अनायत, एहसान व दानशीलता , और स्वामित्व बादशाहत में एकता है उसी तरह इबादत में भी एकता है , तेरा कोई साझी नहीं , तेरे अलावा हम किसी को नहीं पुकारते, तेरे अलावा हम किसी पर विश्वास नहीं करते , तेरे अलावा हम किसी को देने वाला और कठिनाइयाँ दूर करने वाला नहीं मानते। इस प्रकार एक हाजी हर समय तौहीद में मस्त रहता है और मात्र अल्लाह तआला को लाभ एवं हानि पहुंचाने का मालिक समझता है।

यह तल्बिया हमारे नबी ने अपनी उम्मत को सिखाया है जिसके शब्द शब्द से तौहीद का शुद्ध संदेश मिलता है क्योंकि आप के आगमन का लक्ष्य तौहीद की ओर आमंत्रित करना और शिर्क से अपनी बेज़ारी की घोषणा करना था वरना नबी सल्ल. के आने से पहले कुफ़्फ़ार और मुर्शिकीन भी हज्ज किया करते थे और तल्बिया भी पुकारा करते थे. उनका तल्बिया थाः

لبيك لا شريك لك إلا شريكا هو لك تملكه وما ملك

लब्बैक लाशरीक लक इल्ला शरीकन हुव लक तम्लिकुहू व मा मलक

“हे अल्लाह ! में हाज़िर हुं , तेरा कोई साझी नहीं, सिवाय उस साक्षी के जिसका तू मालिक है वह मालिक नहीं ” .

अर्थात् वह भी मानते थे कि अल्लाह तआला ही निर्माता और मालिक है, वही रोज़ी देता है , वही मारता और जिलाता है, वही सारे ब्रह्मांड पर शासन कर रहा है और यह भी समझते थे कि यह प्रतिभागी भी पूरा अधिकार नहीं रखते, उनका भी मालिक अल्लाह तआला ही है , लेकिन चूंकि वह अल्लाह के करीब हैं , अल्लाह उन से राज़ी है , हम पापी हैं , गुनहगार हैं इसलिए उनकी कुछ इबादतें हम सिर्फ इस लिए करते हैं ताकि हमें महा प्रलय के दिन उनकी सिफारिश मिल जाए, वे हमारे सिफारशी बन जाएं। कुरान ने उनके इस विश्वास को बयान कियाः

مَا نَعْبُدُهُمْ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَا إِلَى اللَّـهِ زُلْفَىٰ   سورة الزمر 3

 मा नाबदुहुम इल्ला लियुकर्रिबूना इलल्लाहि  ज़ुल्फ़ा ( अल-ज़ुमर: 3 ) “हम उनकी पूजा केवल इसलिए करते हैं ताकि वे हमें अल्लाह के करीब कर दें। “

सही मुस्लिम की रिवायत हैः अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व सल्लम जब कुफ्फार और मुश्रिकीन को यह कहते हुए सुनते कि ऐ अल्लाह तैरा कोई भागीदार नहीं सिवाय उस भागीदार के जिसका तू मालिक है वह मालिक नहीं”  तो कहतेः وَيلَکُم  قد قد ” तेरी मौत हो, बस करो, बस करो ” अर्थात् “तेरा कोई साझी नहीं” के बाद “सिवाय उस साझी के” का इज़ाफा क्यों करते हो ?

पता यह चला कि ईमान के लिये जरूरी है कि एक बंदा केवल अल्लाह लआला के लिए इबादत के सारे काम करे, नमाज़ , रोज़ा , हज्ज , क़ुरबानी, दुआ , भेंट और नेयाज़ , रुकू (झुकना) और सज्दा (साष्टांग) सब शुद्ध एक अल्लाह के लिये होने चाहिएं।

और यही तल्बिया का संदेश है , तल्बिया मात्र शब्दों का बार बार दोहराना नहीं बल्कि यह अर्थ भी हाजी के ज़ेहन और दिमाग़ में रचा बसा होना चाहिए कि जिस चीज़ की वह बार बार गवाही दे रहा है उसकी प्रक्रिया भी इसके अनुसार ढल जाए . इसलिए अल्लाह के अतिरिक्त किसी से न मांगे , अल्लाह के अलावा किसी से मदद न तलब करे, अल्लाह के अलावा किसी को कठिनाई दूर करने वाला और आवश्यकता पूरी करने वाला न समझे।

जब एक हाजी कहता है लाशरीक लक ” कि ऐ अल्लाह तेरा कोई साझी नही ” . तो उसे चाहिए कि वह शिर्क की वास्तविकता को जानता हो , इसकी खतरनाकी से अवगत हो , क्योंकि इस्लाम में सबसे बड़ा पाप यही है . यह वह प्रक्रिया है जो इंसान के सभी कार्यों को अकारत कर देती है . सूर: अनआम के दसवें रुकुअ में अल्लाह तआला ने अठारह महान संदेष्टाओं के नाम ले लेकर उनके स्थान और महत्व का उल्लेख किया है, उसके बाद आयत नंबर 88 में सब्हों को मिलाकर कहाः

ولو أشركوا لحبط عنهم ما كانوا يعملون

वलौ अशरकू लहबित अनहुम मा कानू यामलुन ” अगर उन नबियों ने भी अल्लाह का भागीदार ठहराया होता तो उनके भी सारे अमल अकारत और बर्बाद हो जाते “।

 और सूर: ज़ुमर आयत  नंबर 65 में अल्लाह तआला नबी सल्ल. को संबोधित करते हुए कहता हैः

لئن أشركت ليحبطن عملك ولتكونن من الخاسرين

लइन अशरक्त लयहबतन्न अमलुक व लतकूनन्न मिनल खासिरीन ” यदि आप ने अल्लाह का भागीदार ठहराया तो वास्तव में आपका सारा अमल बेकार हो जाएगा और आप ( मरने के बाद वाले जीवन में ) घाटा पाने वालों में से हो जाएंगे।”

जरा गौर कीजिए ! शिर्क के मामले में जब नबियों और रसूलों को इस तरह संबोधित किया गया तो उनके सामने हम किस खेत की मूली होते हैं , हमें तो और अधिक शिर्क की खतरनाकी से संवेदनशील रहना चाहिए . ऐसा न हो कि हमारे अमल अकारत हो जाएँ, विशेष रूप में जाहियों को अपनी ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है जो बहुत महान मनस्क की अदाएगी के लिये मक्का की यात्रा करते हैं।

अल्लाह तआला ने  हज्ज की आयतों के संदर्भ में इस आयत का भी उल्लेख किया हैः

ومن يشرك بالله فكأنما خر من السماء فتخطفه الطير أو تهوي به الريح في مكان سحيق. (سورة الحج 13 )

 ” और जो कोई अल्लाह के साथ शिर्क करे तो मानो वह आसमान से गिर गया ( अर्थात् अब उसकी कोई हैसियत नहीं रही ) फिर उसे पक्षी उचक ले जाएँ या हवा उसे किसी दूर जगह ले जाकर फेंक दे ” (अल:. हज्ज -13(

बैतुल्लाह का तवाफ़

जब हाजी मक्का मुकर्रमा पहुंचता है और पवित्र हरम की धरती पर कदम रखने के बाद काबा पर उसकी पहली दृष्टि  पड़ती है तो वह दुनिया और उसकी सारी चीज़ों से बेखबर हो जाता है , उद्देश्य के समीकरण पर उसकी आंखें डबडबा उठती हैं . यह एक प्राकृतिक जुनून और वालहाना संबंध है जो हर मुसलमान के दिल में पैदा होता है।

इस महत्वपूर्ण प्राकृतिक लगाव के साथ हाजी को चाहिए कि जब वह काबा के पास आए तो उसके ज़ेहन और दिमाग़ में अल्लाह की महानता की छाप बैठ जाए और काबा के संस्थापक इब्राहीम अलैहिस्सलाम की जीवनी उसके ज़ेहन और दिमाग के परदे पर छा जाए जो एकेश्वरवादियों के नायक थे , जिन्हों ने शुद्ध तौहीद पर उसकी स्थापना की थी और निर्माण पूरा होने के बाद बहुत विनम्रता से प्रार्थना की थीः

وَاجنُبني وَبَنِیَّ أن نَعبدَ الأصنامَ (سورة ابراہیم 53)   

वजनुबनी व बनिय्य  अन नअबुदल अस्नाम  (सुर: इब्राहीम 53 ) ” ऐ अल्लाह ! मुझे और मेरी संतान को मूर्ति पूजा से बचाना “

एक मुस्लिम काबा का तवाफ मात्र इसलिए करता है कि अल्लाह तआला ने उसे ऐसा करने का आदेश दिया है और उसे हज्ज और उमरा का स्तम्भ ठहराया है:

وَليطَّوَّفُوا بِالبَيتِ العَتِيقِ

” और चाहिए कि बैतुल्लाह का तवाफ़ करें “।

उसी प्रकार रुकने यमानी को छूते और हज्रे अस्वद को चुंबन देते समय भी अल्लाह के रसूल सल्ल. के अनुसरण की भावना सामने आती है। वरना एक मुसलमान का ईमान है कि उनके अंदर न लाभ पहुंचाने की शक्ति है और न नुकसान पहुंचाने की क्षमता . इसी अर्थ को दूसरे खलीफा उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया था जबकि हज्रे अस्वद को चूम रहे थे :

إني أعلم أنك حجر لاتضر ولا تنفع ولو لا أني رأيت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقبلك ما قبلتك  رواه النسائي في سننه

” मैं जानता हूँ कि तू एक पत्थर है जो न लाभ पहुंचा सकता है और न हानि , लेकिन अगर मैं ने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहे व सल्लम को तुझे चुंबन लेते हुए न देखा होता तो मैं तुझे चुंबन न देता .”( सुनन निसाई)

यहाँ पर एक मुसलमान को सबसे बड़ा सबक यह मिलता है कि काबा के तवाफ़ , हज्र अस्वद के चुंबन और रुक्ने यमानी के इल-तिज़ाम (चिमटना) के अलावा किसी दूसरे स्थान का न तवाफ़ हो सकता है , न किसी अन्य स्थान का चुंबन लिया जा सकता है और न किसी अन्य स्थान से चिमटा जा सकता है . क्योंकि इस्लाम ने हमें उन स्थानों के अलावा अन्य किसी स्थान का तवाफ़ करने , चुंबन लेने या चिमटने की अनुमति नहीं दी. बल्कि काबा की चादर को चूमना, या मक़ामि इब्राहीम का चुंबन लेना, या अल्लाह के रसूल सल्ल. की क़ब्र की दीवारों को चूमना, या मस्जिदे नबवी की दीवार को चुंबन लेना यह सब गलत है।.

तवाफ़ की दो रकअत:

जब हाजी तवाफ़ पूरा कर ले तो उसे आदेश है कि मक़ामे इब्राहीम के पास तवाफ़ की दो रकअत अदा करे, पहली रकअत में सुरः फातिहा के बाद सूर: अल-काफ़्रिरून और दूसरी रकअत में सुरः फातिहा के बाद सूर: इख़लास की तिलावत करे. उनके अर्थ पर विचार करने से हमें हज्ज में तौहीद के स्पष्ट चिन्ह देखने को मिलते हैं। यह तीन सुरतें वास्तव में तौहीद का सारांश हैं , सूरः फातिहा में तौहीद की तीनों क़िस्में रुबूबियत, उलूहियत और आस्मा व सिफ़ात शामिल हैं. और सूरः अल-काफिरून में बहुदेववाद से बराअत व्यक्त की गई है और शुद्ध तौहीद की घोषणा की गई है। और सूर: अख़लास में अल्लाह तआला की पूर्ण विशेषतायें बयान की गई हैं, और भागीदारी तथा हमसरी और बच्चे आदि से उसकी महिमा को पवित्र रखा गया है। सुन्न अबी दाऊद में सय्यदना जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु  का बयान है कि فقرأ فيهما بالتوحيد आप सल्लल्लाहु अलैहे व सल्लम ने इन दो रकअतों में तौहीद की आयतें तिलावत कीं।.

सफा और मरवा की सई:

जब हाजी सफा और मरवा की सई करने जाता है तो वहाँ एकेश्वरवाद की धारणा खुल कर सामने आती है , एक हाजी का ध्यान तुरंत इब्राहीम और हाजरा अलैहुमस्सलाम के किस्से की ओर चला जाता है जिसमें भरोसा है ,  अल्लाह से अच्छा ख़्याल रखना है और अल्लाह तआला से सहायता मांगना है। जब हाजी इस किस्से पर ग़ौर करता है तो उसकी संबंध अल्लाह तआला से मज़बूत होने लगता है और वह भरोसा और इतमाद का चट्टान बन जाता है .

जी हाँ ! हज्ज में हमें यही सबक मिलता है कि अल्लाह पर हमारा यक़ीन दृढ़ होना चाहिये , उसके दामन में शरण ली है तो दुनिया की कोई ताकत हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकती।

अरफा के दिन की दुआः

हज्ज में तौहीद के चिन्ह् में से एक चिन्ह् अरफा के दिन की वह प्रसिद्ध प्रार्थना है जिसे हाजी अरफा के मैदान में बार बार पढ़ते हैं. तिर्मिज़ी की रिवायत के अनुसार सय्यदना अब्दुल्लाह बिन अमर बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा का बयान है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व सल्लम ने फरमाया:

” उत्तम दुआ अरफ़ा के दिन की दुआ है जो अरफा में मांगी जाए , मैं ने और मुझ से पहले संदेष्टाओं ने जो दुआएँ की हैं उन में से बेहतर दुआ यह हैः

[ لَا اِلٰہَ اِلَّا اللّٰہُ وَحدَہ لَا شَرِيکَ لَہ، لَہ المُلکُ وَلَہ الحَمدُ وَھُوَعَلٰی کُلِّ شَیئٍ قَدِير]

 [ ला इलाहा इल्लल्लाहु  वहदहु ला शरीक लहु लहुल मुल्को , व लहुल हम्दु व हुव अला कुल्लि शैइन क़दीर ]

 ” अल्लाह के सिवा कोई सत्य ईबादत के योग्य नहीं, उसका कोई साझी नहीं , सम्पूर्ण संसार का राज्य और हर प्रकार की प्रशंसा उसी के लिए है और वह हर चीज़ पर क्षमता रखता है ” .

इस दुआ की शुरुआत कलेमा तय्येबा لَا اِلٰہَ اِلَّا اللّٰہُ  से होती है , जिसे जबान से बोले बिना एक इंसान मुसलमान नहीं हो सकता लेकिन अफसोस कि सारे मुसलमान इस शब्द को पढ़ते हैं परन्तु कितने लोग इसके अर्थ से भी अनभिज्ञ हैं और कुछ लोग अर्थ से परिचित तो हैं लेकिन उसके अनुसार उनका जीवन गुजर नहीं रहा है, कलेमा तय्येबा का सीधा साधा मतलब है अल्लाह के अलावा कोई सही इबादत के लाइक़ नहीं , अर्थात् पूजा का अधिकार केवल अल्लाह है जो सम्पूर्ण संसार का पालनकर्ता है . इबादत क्या है ? दुआ , नमाज़,  रोज़े , हज्ज , क़ुरबानी ,  भेंट व नयाज़ , रुकूअ और सज्दा (साष्टांग) तात्पर्य यह कि यह सब पूजा की श्रेणी में आते हैं जो कवल अल्लाह के लिये विशेष होनी चाहिएं।

क़ुरबानी (बलिदान)

आज के दिन अर्थात् दसवीं ज़िलहिज्जा को हाजी जमरा अक़बा को कंकरी मारने के बाद क़ुरबानी करेंगे , क़ुरबानी के अंदर एकेश्वरवाद के चिन्ह्ना खुलकर सामने आते हैं , यह रक्त धरती और आकाश के निर्माता के नाम पर ही बहना चाहिए, किसी पेड़ , पत्थर , मूर्ति , पीर , या वली के नाम पर नहीं , अल्लाह तआला का आदेश है :

قل إن صلاتي ونسكي ومحياي ومماتي لله رب العالمين لاشريك له وبذلك أمرت وأنا أول المسلمين (سورة الأنعام 162 )

“आप कह दीजिए कि निःसंदेह मेरी नमाज़, मेरा बलिदान , और मेरा जीना और मेरा मरना यह सब केवल अल्लाह तआला ही के लिये है जो सारे संसार का मालिक है ” . (सूरः अल-अनआम 162)

और कहाः فَصَلِّ لِرَبِّکَ وَانحَر الکوثر2   ” तू अपने प्रभु के लिए नमाज़ पढ़ और बलिदान दे ” .

पता यह चला कि क़ुरबानी एक पूजा है जो केवल अल्लाह के नाम से होनी चाहिए, सय्यदना अली रज़ियल्लाहु अन्हुम का  बयान है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व सल्लम ने फरमाया :

لَعَنَ اللّٰہُ مَن ذَبَحَ لِغَيرِاللّٰہِ ( رواه مسلم )

 लअनल्लाहु  मन ज़बह  लिगैरिल्लाहि ” अल्लाह का अभिशाप हो उस व्यक्ति पर जो अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के नाम पर पशु का वध करे। ” . (सहीह मुस्लिम)

अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य के नाम पर जो भी खून बहाया जाए यह शिर्क है चाहे एक मक्खी का भेंट चढ़ाना ही क्यों न हो।

हज्ज और उमरा से सम्बन्धित आस्था की कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें:

(1)हज्ज एवं उमरा की अदाएगी केवल अल्लाह के लिए तथा मुहम्मद  सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम के तरीक़ा के अनुसार होनी आवश्यक है।

(2) मक्का, मदीना, या हज्ज के विषेश स्थलों में से किसी जगह को लाभ हेतु चुमना, वहाँ की मिट्टि उठा कर लाना, काबा के चक्कर या रौज़ा के दर्शन के बाद उलटे पाँव चल कर निकलना, कब्र की ओर मुख करके हाथ उठाए हुए हुआ करना, यह सब ग़लत है।

(3) किसी व्यक्ति के लिए वैध नहीं कि अल्लाह के रसूल  सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम की समाधि पर आकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करे।  अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम ने फरमाया 

لا تطروني كما أطرت النصاري ابن مر يم فانما أنا عبد فقولوا عبدالله ورسو له (متفق عليه)

मेरी हद से अधिक तारीफ़ न किया करो जैसे कि ईसाइयों ने इब्न मरयम के बारे में कहा, मैं एक बन्दा हूँ इस कारण मुझे अल्लाह का बन्दा और उसका रसूल कहा करो (बुख़ारी, मुस्लिम)

क्योंकि यदि कोई मुर्दे से प्रार्थना करता है तो मानो वह अल्लाह के साथ उसे भागीदार ठहराता है। और यही शिर्क है जिसे अल्लाह तआला कदापि क्षमा नहीं कर सकता।

हज्र अस्वद (काला पत्थर) से सम्बन्धित कुछ बातें:

(1) हज्र अस्वद को चूमना कोई ज़रुरी नहीं, और न ही उसे बोसा देना हज्ज या उमरा में शामिल है।

(2) उसे चूमते समय उस से लाभ अथवा हानी की आस्था रखना भी सही नही है। इसी लिए जब हज़रत उमर फ़ारुक रज़ि0 हज्र अस्वद के पास पहुंचे तो आप ने उसे चूमते हुए कहा :

إني لأ علم أنك حجر لا تضر و لا تنفع ولولا أني رأيت رسول الله يقبلك ما قبلتك (متفق عليه)

मैं जानता हूँ कि तू पत्थर है, तुम लाभ अथवा हानी नहीं पहुँचा सकते, परन्तु मैं ने अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम को तुम्हें चूमते हुए देखा था इसलिए चूम रहा हूँ (बुख़ारी, मुस्लिम)

(3) यह भी याद रखना चाहिए कि काबा या हज्र अस्वद की ओर मुख कर के भी केवल अल्लाह की प्रशंषा बयान की जाती है। सारी नमाज़ और तवाफ़ में कोई ऐसा सब्द नहीं आता जिस में कहा गया हो कि

हे काबा तू हमारी सहायता कर

(4) हमें बताइए कि यदि किसी विदेश में रहने वाले बेटे का पत्र माँ के पास आये, माँ उसे श्रृद्धा से चूमने लगे तो क्या उसे पूजा का नाम दिया जाएगा? कदापी नहीं अतः यह पत्थर भी तो स्वर्ग से आया हुआ है। रसूल सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम ने फरमाया :

نزل الحجر الأسود من الجنة رواه الترمذي

 हज्र अस्वद स्वर्ग से अवतरित हुआ है।(तिर्मिज़ी)

इसका समर्थन ब्रिटानिया के एक वैज्ञानिक रिचार्ड डिबर्टन ने भी किया है। पश्चमी वस्त्र में स्वयं को मुस्लिम सिद्ध करते हुए मक्का आया। वह काबा में हाजियों के साथ पिल पड़ा और हज्र अस्वद का एक टूकड़ा प्राप्त करने में सफल हो गया। फिर उसे अपने साथ लन्दन लाकर Geology lab में उसकी जाँच पड़ताल आरम्भ कर दी। जाँच के पश्चात वह इस परिणाम पर पहुँचा कि वह पत्थर पृथ्वी का नहीं बल्कि आकाश से अवतरित हुआ है। इसका वर्णन उसने अपनी पुस्तक मक्का और मदीना का दर्शन में किया है जो लन्दन से अंग्रेज़ी भाषा में सन् 1856 में प्रकाशित हुई। 

प्रिय पाठकगणः

हज्ज में एकेश्वरवाद के यह कुछ उदाहरण थे जिन्हें हमने संक्षेप में प्रस्तुत किया है इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि हज्ज का यह महान मन्सक भी हमें कदम कदम पर एकेश्वरवाद की शिक्षा देता है . इसलिए जरूरत है कि हम हज्ज और अन्य इबादतों में इस पहलू को हमेशा ध्यान में रखें क्योंकि यही वह मुख्य बिंदु है जो हमारी इबादतों को दीसरे धर्मों के मानने वालों की इबादतों से प्रतिष्ठित करता है . और इसी के द्वारा हम स्वर्ग में प्रवेश करने के अधिकारी बन सकते हैं।

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